क्रोध एक आंतरिक और मानसिक रोग
क्रोध एक आंतरिक और मानसिक रोग है । क्रोध तृष्णा बढ़ाता है और धैर्य को नष्ट करता है एवं बुद्धि को भ्रष्ट करता है । क्रोध अवांछित एवं अवाच्य वचनों की प्रस्तुति करता है। साथ ही क्रोध पित्त-ज्वर का कारण भी बन जाता है । क्रोध हत्यारा बन प्रतिघात करता है । सात्विक भावों से दूर कर वह शत्रु के समान होजाता है । क्रोध निंदनीय एवं विष के समान ही घातक है .
क्रोध एक आंतरिक और मानसिक रोग है । क्रोध तृष्णा बढ़ाता है और धैर्य को नष्ट करता है एवं बुद्धि को भ्रष्ट करता है । क्रोध अवांछित एवं अवाच्य वचनों की प्रस्तुति करता है। साथ ही क्रोध पित्त-ज्वर का कारण भी बन जाता है । क्रोध हत्यारा बन प्रतिघात करता है । सात्विक भावों से दूर कर वह शत्रु के समान होजाता है । क्रोध निंदनीय एवं विष के समान ही घातक है .
क्रोधी मनुष्य की आँखें इन्सान को शैतान के रूप में , भगवान को पाषाण के रूप में , मानव को दानव के रूप में , राम को रावण के रूप में और बाप को सांप के रूप में निहारती हैं । क्रोध की आग प्रतिशोध की अग्नि के समान है ।
आग पर घी डालोगे तो आग बढ़ेगी ही , क्रोध तो क्रोध से नहीं मिटेगा । हाँ , यह सत्य है कि क्रोध पर नियंत्रण करने से क्रोध मिट सकता है । ईंट का जवाब पत्थर से नहीं अपितु प्यार से देना चाहिए । अपना खुद का मकान यदि कांच का है तो दूसरे के मकान पर पत्थर मरना या अपने हाथ में पत्थर रखना खतरनाक सिद्ध हो सकता है । क्रोध में भद्दी-सी बोली , गाली या गोली , हत्या या खून की होली और लाशों की ही डोली उठ सकती है । इसके सिवाय और कोई दूसरा उपाय नहीं है ।
क्रोध के वातावरण से मुक्त होने के लिए जीवन और परिवेश के साथ-साथ भवनात्मक समत्व के आत्मसात करने की आवश्यकता है । आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से स्थिति से स्थापित कए जाने वाला साम्यवाद यदि हमारे व्यवहार में आ जाये तो इससे जीवन में क्रांति भी हो सकती है । जो आचरण हम अपने प्रतिकूल समझते हैं उस आचरण को दूसरे के साथ भी नहीं करना चाहिए। श्रुति का वचन है _ ' आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत ' ।
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