बुधवार, 25 सितंबर 2013

साधन जढ़ और कौशल चेतना

साधन कितने ही विपुल क्यों न हों , अंतत: वे पदार्थ ही होते हैं 








प्रत्यक्षत: साधनों का ही महत्त्व माना जाता है। आँखों से भी वही दिखाई देता है। उन्हीं के आधार पर किसी की क्षमता , सफलता एवं योग्यता का अनुमान लगाया जाता है, पर यह स्थूल दृष्टि है। स्थूल ही नहीं अवास्तविक भी है। क्योंकि साधन कितने ही विपुल क्यों न हों , अंतत: वे पदार्थ ही होते हैं पदार्थों को कोई भी व्यक्ति खरीद और सजा सकता है। भले ही वह उस विषय में प्रवीण- पारंगत न हो। साधन जढ़ और कौशल चेतना है। साधन जमा कर लेना और उनसे बनी पटरी पर लुढ़का देना किसी के लिए भी सरल है। किन्तु अपनी आंतरिक उत्कृष्टता की छाप किसी पर छोड़ना सर्वथा दूसरी बात है। व्यक्त्तित्व के चिंतन, चरित्र और व्यवहार में जितनी उत्कृष्टता और प्रामाणिकता होती है, उसी अनुपात से अन्यान्यों की अंतरात्मा तक गहरी छाप पड़ती है। इसी आधार पर प्राप्त हुयी सफलता अभिनंदनीय और अनुकरणीय बनती है।






आदर्शवादी जीवन को विशेष रूप से अनेक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। उनसे पार होना सिद्धांतवादी साहस और दृढ़ता का काम है। यदि यह न हो तो , हानि सह कर मुसीबत में पैर जमाये रखना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। यह मात्र चरित्रवानों के लिए ही संभव है। चरित्र का अर्थ है -- महान मानवीय उत्तरदायित्वों की गरिमा को समझना और उसका हर मूल्य पर निर्वाह करना। जीवन मनुष्य के हाथों में सौंपा गया सबसे शानदार और महत्त्वपूर्ण दायित्व है। जिसे उसे सम्भाले रहना और शानदार बनाये रखना चाहिए। उसी व्यक्ति की कुशलता और विभूति- सत्ता सराहनीय है। जिसके पास ऐसी कीर्ति सम्पदा है , वह साधनों के अभाव में भी ऊंचे उठते और सफल होते हैं। अनेकों को प्रकाश देना और पार ले जाना ऐसे ही प्रतिभावानों का कार्य है।




अभिव्यक्ति अंत:करण का स्वरूप प्रस्तुत करती है। इसलिए कुशल व्यक्ति की अभिव्यक्ति में गंभीरता, स्पष्टता और कलात्मकता होती है। यदि वह असभ्य संदिग्ध भाषण करता है तो वह सुशिक्षित होने पर भी कुशल नहीं कहला सकता। आदर्श और अनुशासन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिनके जीवन में आदर्श नहीं होता वही अनुशासनहीन और अराजकतावादी होते हैं। कुशल व्यक्ति में आदर्श का स्थान एक अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि उसी पर समाज की व्यवस्था और शांति टिकी होती है। व्यक्ति का आदर्शवादी होना ही पर्याप्त नहीं है। यदि वह सामाजिक बुराइयों के प्रति सहिष्णु और उन्हें सद्भावना पूर्वक दूर करने के लिए कृत- संकल्प नहीं होता तो उसे रोजी- रोटी के लिए जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। वैदिक- युग के ब्राह्मण अपने जीवन का उपयोग समाज को उन्नत बनाने के लिए किया करते थे। उनके सामने जीवन के अन्य विषय गौण थे। उनके प्रति सहानुभूति के कारण ही समाज ने उनकी लौकिक आवश्यकताएँ पूर्ण करने का कर्त्तव्य निभाया था।




आज अनुशासन हीनता, उच्छृन्खलता, उद्दंडता यौन - स्वच्छंदता जैसी बुराइयों की बाढ़ आ गयी है। बुद्धि , कौशल और कलाकारिता सब मिलकर इन्हें ही पनपा रहे हैं। वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी अपने अहंकार की पूर्ति के लिए संसार को विनाश की ओर घसीटे लिए जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में समाज -सुधार की बात सोचना भी कठिन है। इस प्रकार कुशल व्यक्ति को भीषण परिस्थितियों में भी निराश नहीं होना चाहिए। उसे यह समझना चाहिए कि आत्म-सुधार के साथ-साथ -- समाज- सुधार कुशल व्यक्ति का अनिवार्य धर्म और कर्त्तव्य है। उसे पूरा करने में किसी प्रकार के फल की आशा भी नहीं करनी चाहिए। यह कुशलता और निष्ठां ही व्यक्ति को सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वाह करने में सहायक होती है। यही भावना ही असुंदर को सुन्दर बना सकती है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें