गुरुवार, 8 मई 2014

दु:ख आर्य-सत्य

दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। 
अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इ
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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मन के मैले चीर

शुद्ध एवं बुद्ध 


सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं।




जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। 




हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। 




विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

शनिवार, 11 जनवरी 2014

सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर

भावनामयी -प्रज्ञा


भावनामयी -प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश में हेतु अधुना विचार करना है । अपनी अनुभूतियों के बलपर जो प्रज्ञा बढ़ रही है , वह कल्याणकारी प्रज्ञा है । सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर जो जाने ,वही भावनामयी प्रज्ञा है । अपनी अनुभूति में जो उतर रहा है , वही अपनी प्रज्ञा है। सबसे पहले सच्चाई इस शरीर की है । इससे काम शुरू करते हैं और इसकी सूक्ष्मताओं में उतरते हैं । धीरे- धीरे चित्त की सूक्ष्मताओं में उतरते हैं उस के , गुण ,धर्म , स्वभाव को देखते हैं । इसके बाद जो इन्द्रियातीत धर्म है , सच्चाई है, लोकातीत धर्म है , उसका साक्षात्कार अपने आप हो जाता है ।

 अनुभूति से मालूम कि उत्पन्न - नष्ट होने वाले ये कण परमाणु से भी छोटे हैं , उस समय की समृद्ध भाषा में भी ऐसे छोटे कण को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं था । तब एक नये शब्द अश्ट्कलाप kओ स्वीकार किया गया । अष्ट कलाप उस ईकाई को कहा , जहाँ आठ चीजें जुढ गयीं । उनके और टुकढे नही हो सकते । यह है भौतिक जगत की नन्ही -सी -नन्ही इकाई ।

 चार भौतिक तत्व और उनके अपने -अपने गुण ,धर्म और स्वभाव । अनुभूतियों के स्तर पर जब यह बात स्पष्ट होती है कि यह शरीर कितना अनित्य है, कितना भंगुर है । प्रति क्षण उदय होता है ,व्यय होता है ,तो आसक्तियां अपने आप टूटने लगती हैं । ज्यों -ज्यों अनित्य-बोध पुष्ट होने लगता है , त्यों-त्यों प्रज्ञा का दूसरा अंग अनात्म-बोध स्पष्ट होने लगता है ।

 अनुभूति के स्तर पर देखने लगेंगे तो पता चलेगा कि जिनके प्रति आसक्ति पैदा कर रहे हैं ,ये तो तरंगें ही तरंगें हैं । अनात्म का अर्थ है ,जहाँ अहं समाप्त हो जाये । तभी राग मिटता है ,द्वेष मिटता है । परिणामत: प्रज्ञा के तीसरे अंग दु:ख का वास्तविक बोध होने लगता है । सही माने में दुख के दर्शन होने लगेंगे । 

प्राय: जिसे सुख संवेदना कहते हैं ,अनित्य स्वभाव वाली होने के कारण उसके नष्ट होने पर जो दुःख होता है ,उसे भी जानेंगे तथा उसे साक्षी ,द्रष्टा एवं तटस्थ भाव देखना सीखेंगे । अनित्य ,अनात्म और दुःख की ये तीनों प्रज्ञा भीतर से अपने- आप जागने लगेंगी ,तो बाह्य जगत में भी प्रज्ञा का शासन चलेगा । जो बात अशुभ है ,अशुभ ही लगेगी । जो असुन्दर है ,असुन्दर ही लगेगी ।चित्त से चित्त का दमन कर ,चित्त से चित्त सुधार । चित्त स्वच्छ कर चित्त से ,खोल मुक्ति के द्वार ।।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

बोधि

सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

सोमवार, 6 जनवरी 2014

हर कर्म का प्रारम्भ मन से

अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान 


अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। 

जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा वाणी याअपनी शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। 

इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा । शील का अर्थ है __ सदाचार। शील के अंतर्गत सम्यक वाणी ,सम्यक कर्म और सम्यक आजीविका आती है। हर कर्म का प्रारम्भ मन से होता है ,फिर वाणी पर उतरता है और इसके बाद शरीर को वश में कर लेता है। अत: शरीर का प्रत्येक कर्म शुद्ध एवं पवित्र हो ना चाहिए। 

सम्यक आजीविका से तात्पर्य ईमानदारी से व्यवसाय करना है।प्रज्ञा के दो अंग _ सम्यक संकल्प और सम्यक दृष्टि हैं । संकल्प का अर्थ है _ चिंतन , मनन। हमारे मन में जो संकल्प-विकल्प चलते हैं , वे सम्यक होने चाहिएं। साँस के प्रति साक्षी भाव लाते-लाते , स्मृति का अभ्यास करते -करते ,अनुभव होता है कि दूषित विचारों से कम से कम छुटकारा होने लगा है। दूषित विचार कम होने लगे हैं ।

 दर्शन का सही अर्थ है ,जो बात ,जो वस्तु जैसी है , उसे ही उसके गुण धर्म-स्वभाव में देखें । यही सम्यक दर्शन है । साथ ही प्रज्ञा के तीन सोपान हैं _ श्रुतमयी प्रज्ञा , चिंतन मयी प्रज्ञा और भावनामयी प्रज्ञा श्रुतमयी प्रज्ञा का अर्थ है वह ज्ञान,जो हमने सुनलिया अथवा शास्त्रों में पढ़ लिया । चिंतन मयी प्रज्ञा का महत्त्व अपना मनन करना मनुष्य का स्वभाव है , उसका अपना प्राकृतिक धर्म है । जब तक अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने ज्ञान की वृद्धि नहीं होगी ,सही माने में लाभ नहीं होगा ।

बुधवार, 1 जनवरी 2014

कठिनाइयों से भागो मत

जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। 



जीवन में एक बड़ी भ्रान्ति चलती है। इस का कारण है कि हम सदैव बहिर्मुखी होते हैं।सदा ओरों को ही देखते हैं। बाहर की परिस्थितियों को ही देखते हैं , अत: दोष बाहर ही देखते हैं। बाहर की घटना , स्थिति ,वस्तु, व्यक्ति को ही अपने दुःख का कारण मानते हैं। तथा उसे ही सुधारने में ही अपना श्रम लगा देते हैं।

 साधना इसलिए है कि अंतर्मुखी होकर अपने आप को देखें ; जैसे हैं , वैसे ही देखें । अपने दोष का दर्शन ही साधना है, दुःख का दर्शन करना है। दुःख का दर्शन करने का मतलब निराशा में डूबना नहीं है। अपने दुखों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, अन्य कोई नहीं है। बहिर्मुखी तो बहुत रहे पर अब स्वमुखी और अन्तर्मुखी होना है एवं प्रज्ञा जगानी है।

 आंशिक दर्शन मिथ्या तथा भ्रामक है। अनेकांत दृष्टि सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करती है। यही ज्ञान-चक्षु से अपने भीतर देखने की प्रज्ञा है। भीतर व्याकुलता विकार के जागृत होने पर ही आती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने बतलाया कि जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। क्रोध आया तो क्रोध को देखो,भय आया तो भय को देखो ; इस प्रकार देखना यदि आ गया तो इन विकारों का शमन होने लगेगा। 

धर्म बुद्धि-विलास में नहीं है,अनुभूतियों से प्राप्त धर्म ही वास्तव में धर्म है। अनुभूतियों के स्तर सत्य के दर्शन करते हुवे यह बात स्पष्ट हुई किजब-जब चित्त पर कोई विकार जगता है, तो बहुत स्थूल - स्तर पर साँस अपनी स्वाभाविकता खो देता है। अस्वाभाविक होकर सूक्ष्म स्तर पर सारेशरीर में कहीं-न-कहीं , कोई -न-कोई जीव - रासायनिक प्रतिक्रिया तीव्र रूप से शुरू हो जाती है। 

यह चित्त -धारा और शरीर-धारा अलग-अलग नहीं हैं। अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे का , एक दूसरे पर प्रतिक्षण प्रभाव पड़ता रहता है। इसलिए इन्हें सहज एवं सहजात कहा गया है। दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। हमारे दुःख का कारण बाहर के व्यक्तियों , वस्तुओं एवं घटनाओं में नहीं है। उसे वास्तव में दूर करना है। दुःख का कारण तो इस मैं और मेरे में है। इस मम -भाव और अहं -भाव में है। साथ ही इस गहरी आसक्ति में है। स्वप्न लेना बुरी बात नहीं है , परन्तु स्वप्नों क्र साथ चिपक जाना बहुत बुरा है।अत:बहिर्मुखी नहीं होकर अन्तर्मुखी होना ही सच्ची साधना है। --"सुख आये नाचे नहीं , दुःख आये नहीं रोय। दोनों में समता रहे , तो ही मंगल होय।। " इति =+