शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

प्रभु कोपुत्र के रूप में स्वीकार करना श्रेष्ठ

प्रभु को पिता के रूप में समझने से कहीं अधिक पुत्र के रूप में स्वीकार करना श्रेष्ठ 


प्रभु को पिता के रूप में समझने से कहीं अधिक पुत्र के रूप में स्वीकार करना श्रेष्ठ है। पिता और पुत्र के सम्बन्धों में पुत्र पिता से कुछ पाने की लालसा रखता है। जबकि पिता के साथ पुत्र का सम्बन्ध होने पर पिता पुत्र को हमेशा ही कुछ - कुछ देने को तत्पर रहता है। इसलिए भगवान् माधव श्रीकृष्ण के साथ तो पुत्र का सम्बन्ध पिता की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ है। यदि हम भगवान को पिता के रूप में स्वीकार करते हैं तो हम अपनी आवश्यकताओं के लिए पिता के सामने हाथ फैलाते हैं। यदि हम प्रभु को पुत्र के रूप में स्वीकार करेंगे तो बचपन से ही हमारा कार्य उसकी सेवा करना होगा। पिता बचपन से ही पुत्र का अभिभावक होता है।

श्रीकृष्ण की माता यशोदा सोचती है कि यदि वह कृष्ण को पर्याप्त भोजन नहीं देगी तो उसका पालन कैसे होगा और वह कैसे पुष्ट होगा। तथा वह भूल जाती है कि श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं और त्रिलोक के आधार हैं। वह यह भी भूल जाती है कि श्रीकृष्ण ही जीवों की सभी आवश्कताओं की पूर्ति करते हैं। वही भगवान यशोदा के पुत्र के रूप में प्रकट हुवे हैं। यशोदा सोच रही है कि यदि वह उसे पर्याप्त भोजन नहीं देगी तो वह मर जायेगा। यही प्रेम है , वह यह भूल जाती है कि श्रीक्रष्ण एक भगवान हैं और आज उस के सामने एक शिशु के रूप में प्रकट हुवे हैं। आसक्ति का यह सम्बन्ध अत्यंत उत्कृष्ट और पवित्र है। इसे समझने में समय लगता है। परन्तु यह एक ऐसी स्थिति है , जहाँ हम प्रभु से यह कहने के बदले , हे ! प्रभु हमें प्रतिदिन आहार दीजिए। अब यह न कह कर हम यह सोच सकते हैं कि यदि हम प्रभु को आहार नहीं देंगे तो प्रभु का जीवन कैसे चलेगा ? यह परम प्रेम का आनंद है। यशोदा मैया उन्हें मातृ- भाव से प्रेम करती हैं।




वास्तव में मातापिता में समर्पण होता है। वे अपने पुत्र की समस्त मनोकामनाएँ पूरी करने का प्रयास करते हैं। जबकि पुत्र में प्राप्ति का भाव होता है। ऐसा कहा जाता है कि पुत्र पू नामक नर्क से पिता की रक्षा करने के कारण , पुत्र कहलाता है। परन्तु वह भी मरने के बाद; मरने के बाद किसने क्या देखा है। इस सबको प्रमाण के रूप में तो इस समय प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। जबकि पिता या माता पुत्र की जीते - जी पूर्ण रक्षा एवं पालन - पोषण करते हैं। यह सत्य तथा तथ्य पूर्ण है , इसे झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। पिता के निमंत्रण-पत्र पर पूरा परिवा समा सकता है , पर पुत्र के निमंत्रण - पर यह सम्भव नहीं है।




 पुत्र का संपत्ति पर सहज अधिकार होता है , जबकि पिता समर्पण एवं प्रतिदान में ही विश्वास करता है। यह एक सामाजिक नियम और सच्चाई है , इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यहाँ पिता-पुत्र में दूरी करना नहीं , अपितु स्वाभाविक सत्य की स्वीकृति मात्र है। यह सदा से होता रहा है और सदा होता रहेगा। यह भावनाओं का प्रश्न है। नजर बदलते ही नजारा भी बदल जाता है। अधिकार में सुख नहीं अपितु प्रतिदान में ही सुख है; दृष्टिकोण बदलिए दृष्टि भी बदल जाएगी। अत: प्रभु के सम्बन्ध में भी दृष्टिकोण बदलना आवश्यक है।



 हमें स्वयं पितृ - भाव उत्पन्न करना होगा तथा प्रभु के प्रति पुत्र - भाव उत्पन्न करना होगा। ताकि हमारी भिखारी की वृत्ति एवं प्रवृत्ति समाप्त हो सके। बार- बार झोली फ़ैलाने से कोई लाभ लेना नहीं अपितु देना सीखो। तभी देवता बन पाओगे प्रभु भाव के अतिरिक्त चाहता भी कुछ नहीं। याचना के भाव को नष्ट करके प्रार्थना के भाव को जागृत करने का हमें प्रयास करना चाहिए।*******





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें