रविवार, 22 सितंबर 2013

भारत -सिन्धु का प्रतिरूप_ त्रिदेव की धारणा

आज का हिन्दू इन सब कुलों और उनकी सभ्यताओं का मिश्रण 


आज प्रजाति के आधार पर मानव-वंश के पांच वर्ग किए गये हैं। पाँचों प्रजातियाँ भारत में पाई गयी हैं। हमारे प्राचीन साहित्य और इतिहास में कई कुलों का वर्णन है--- देव, असुर, नाग, गरुड़, यक्ष, किरात, गन्धर्व, निषाद, पिशाच आदि इनमें से देव और असुर परिवार को आज के तथाकथित आर्य माना जा सकता है। उनसे पूर्व की और अधिक प्रजातियाँ नाग और गरुड़ ,गन्धर्व, यक्ष व राक्षस थीं। किरात , निषाद, पिशाच, दस्यु, पुलिंदआदि अर्द्ध-सभ्य या असभ्य जातियां थीं। देव और असुर अपने को एक कुल का मानते थे। वे एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुवे और आरम्भ में एक ही वरुण की पूजा करते थे।

उनसे पहले इस भू-भाग पर नाग और गरुड़ कुलों की सभ्यता फैली थी। उनकी बड़ी प्राचीन सभ्यता थी। वे व्यापारी और व्यवसायी थे। उन्होंनें दूर-दूर तक सारे संसार में उपनिवेश बसाये। पानी से इन्हें विशेष प्रेम था। पानी के बीच में गढ़ बना कर रहते थे। या अपने गढ़ के चारों ओर खाई बना कर रहते थे। कृष्ण का कालिय नाग से युद्ध, अर्जुन का उलूपी से विवाह, जनमेजय का नागों को चुन-चुन के मारना साथ ही कुषाणों को भगाकर इन्होंने ही भारत का पुनरुद्धार किया और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने इसी वंश की राजकन्या कुबेरनागा से विवाह किया। इन्हें द्राविड कहा जा सकता है। यक्ष, गन्धर्व आदि किरात प्रजाति के कुल थे। ये पहले हिमालय में रहते थे। यक्ष धीरे-धीरे नीचे उतरे और उनकी एक शाखा रक्ष ' (राक्षस ) ने तो दक्षिण में जाकर प्राचीन इतिहास का सबसे बलवान और धनवान सामुद्रिक राज्य स्थापित किया। इनके राजाओं की एवं रावण की संसार में अत्यधिक सशक्त सत्ता थी।

निषाद, कैवर्त , पुलिंद आदि आग्नेय जाति के कुल थे। ये दक्षिण- पूर्व से पानी में होते हुवे भारत पहुंचे थे और गंगा से होते हुवे ऊपर बड़े थे। पिशाच हब्शी प्रजाति के लोग थे। ये मनु की चलाई मानव-सभ्यता में न मिल सके और धीरे-धीरे भारत से समाप्त हो गये। आज हब्शी कुल केवल अंडमान और निकोबार द्वीप- समूह में पाया जाता है। आज का हिन्दू इन सब कुलों और उनकी सभ्यताओं का मिश्रण है। भारत एक सिन्धु है, जहाँ ये सभ्यताएँ नदियों के समान आकर मिल गयी हैं। हिन्दू इन सभी सभ्यताओं की उपज है। देव-असुर यज्ञ करते थे, नाग-गरुड़ (द्राविड़) फूलों से पूजा करते थे। किरात-यक्ष कुबेर और लक्ष्मी को पूजते थे। आग्नेय प्रजाति नदी और तीर्थ मानती थी। साथ ही हब्शी परिवार पेड़-पत्थरों को मान्यता देता था। आज ये सब हिन्दू जीवन के अंग हैं।

आज की हिन्दू-संस्कृति अस्सी प्रतिशत आर्यों से भिन्न सभ्यता है। आज की पवित्र गंगा को पुराने देव जानते भी नहीं थे। गंगा ( कांग ) स्वयं एक आग्नेय परिवार का शब्द है, जिसका अर्थ जल है। पान का पुराना नाम नागवल्ली था। हब्शी परिवार से हमने पेड़ों की पूजा तथा पर-लोक सम्बन्धी कुछ धारणाएँ लीं। आग्नेय परिवारों से जूम पद्धति की खेती ली, जो पृथु से पहले पृथ्वी पर प्रचलित थी। घरेलू रिवाज , विवाह-परिपाटी, पूजा-विधि, धोती साडी पहनना , मांग में सिंदूर लगाना आदि सब इनकी दें है। ये तुलसी का थांवला बनाते थे, देव -पूजा, तन्त्र-मन्त्र करते थे। मुर्दे गाड़ते थे। अनुष्ठानों में नारियल व पान काम में लाते थे। विजित पशु के रक्त का मस्तक पर टीका लगते थे। गंगा, काम, लिंग, लान्गूल, ताम्बूल, कम्बल, बाण, कपास, कर्पट, पट, मातंग, मयूर आदि ये शब्द हिन्दू-संस्कृति को इनकी देन हैं। इसके अतिरिक्त किरात परिवार का भी शाक्त धर्म पर काफी प्रभाव है। शूल- गव्य जैसी वैदिक यज्ञ-क्रिया किरातों से ली गयी है। कुबेर और अन्य यक्षों -- मणिभद्र आदि की पूजा भी उनकी देन है। साथ ही द्राविड़ प्रजाति की देन तो रूपये में बारह आने है। हमारा आज का जीवन द्राविड़ सभ्यता का प्रतिबिम्ब अधिक है और आर्य- सभ्यता का कम है।

इस आज का हिन्दू इन सब कुलों और उनकी सभ्यताओं का मिश्रणआज प्रजाति के आधार पर मानव-वंश के पांच वर्ग किए गये हैं। पाँचों प्रजातियाँ भारत में पाई गयी हैं। हमारे प्राचीन साहित्य और इतिहास में कई कुलों का वर्णन है--- देव, असुर, नाग, गरुड़, यक्ष, किरात, गन्धर्व, निषाद, पिशाच आदि इनमें से देव और असुर परिवार को आज के तथाकथित आर्य माना जा सकता है। उनसे पूर्व की और अधिक प्रजातियाँ नाग और गरुड़ ,गन्धर्व, यक्ष व राक्षस थीं। किरात , निषाद, पिशाच, दस्यु, पुलिंदआदि अर्द्ध-सभ्य या असभ्य जातियां थीं। देव और असुर अपने को एक कुल का मानते थे। वे एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुवे और आरम्भ में एक ही वरुण की पूजा करते थे।

उनसे पहले इस भू-भाग पर नाग और गरुड़ कुलों की सभ्यता फैली थी। उनकी बड़ी प्राचीन सभ्यता थी। वे व्यापारी और व्यवसायी थे। उन्होंनें दूर-दूर तक सारे संसार में उपनिवेश बसाये। पानी से इन्हें विशेष प्रेम था। पानी के बीच में गढ़ बना कर रहते थे। या अपने गढ़ के चारों ओर खाई बना कर रहते थे। कृष्ण का कालिय नाग से युद्ध, अर्जुन का उलूपी से विवाह, जनमेजय का नागों को चुन-चुन के मारना साथ ही कुषाणों को भगाकर इन्होंने ही भारत का पुनरुद्धार किया और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने इसी वंश की राजकन्या कुबेरनागा से विवाह किया। इन्हें द्राविड कहा जा सकता है। यक्ष, गन्धर्व आदि किरात प्रजाति के कुल थे। ये पहले हिमालय में रहते थे। यक्ष धीरे-धीरे नीचे उतरे और उनकी एक शाखा रक्ष ' (राक्षस ) ने तो दक्षिण में जाकर प्राचीन इतिहास का सबसे बलवान और धनवान सामुद्रिक राज्य स्थापित किया। इनके राजाओं की एवं रावण की संसार में अत्यधिक सशक्त सत्ता थी।

निषाद, कैवर्त , पुलिंद आदि आग्नेय जाति के कुल थे। ये दक्षिण- पूर्व से पानी में होते हुवे भारत पहुंचे थे और गंगा से होते हुवे ऊपर बड़े थे। पिशाच हब्शी प्रजाति के लोग थे। ये मनु की चलाई मानव-सभ्यता में न मिल सके और धीरे-धीरे भारत से समाप्त हो गये। आज हब्शी कुल केवल अंडमान और निकोबार द्वीप- समूह में पाया जाता है। आज का हिन्दू इन सब कुलों और उनकी सभ्यताओं का मिश्रण है। भारत एक सिन्धु है, जहाँ ये सभ्यताएँ नदियों के समान आकर मिल गयी हैं। हिन्दू इन सभी सभ्यताओं की उपज है। देव-असुर यज्ञ करते थे, नाग-गरुड़ (द्राविड़) फूलों से पूजा करते थे। किरात-यक्ष कुबेर और लक्ष्मी को पूजते थे। आग्नेय प्रजाति नदी और तीर्थ मानती थी। साथ ही हब्शी परिवार पेड़-पत्थरों को मान्यता देता था। आज ये सब हिन्दू जीवन के अंग हैं।

आज की हिन्दू-संस्कृति अस्सी प्रतिशत आर्यों से भिन्न सभ्यता है। आज की पवित्र गंगा को पुराने देव जानते भी नहीं थे। गंगा ( कांग ) स्वयं एक आग्नेय परिवार का शब्द है, जिसका अर्थ जल है। पान का पुराना नाम नागवल्ली था। हब्शी परिवार से हमने पेड़ों की पूजा तथा पर-लोक सम्बन्धी कुछ धारणाएँ लीं। आग्नेय परिवारों से जूम पद्धति की खेती ली, जो पृथु से पहले पृथ्वी पर प्रचलित थी। घरेलू रिवाज , विवाह-परिपाटी, पूजा-विधि, धोती साडी पहनना , मांग में सिंदूर लगाना आदि सब इनकी दें है। ये तुलसी का थांवला बनाते थे, देव -पूजा, तन्त्र-मन्त्र करते थे। मुर्दे गाड़ते थे। अनुष्ठानों में नारियल व पान काम में लाते थे। विजित पशु के रक्त का मस्तक पर टीका लगते थे। गंगा, काम, लिंग, लान्गूल, ताम्बूल, कम्बल, बाण, कपास, कर्पट, पट, मातंग, मयूर आदि ये शब्द हिन्दू-संस्कृति को इनकी देन हैं। इसके अतिरिक्त किरात परिवार का भी शाक्त धर्म पर काफी प्रभाव है। शूल- गव्य जैसी वैदिक यज्ञ-क्रिया किरातों से ली गयी है। कुबेर और अन्य यक्षों -- मणिभद्र आदि की पूजा भी उनकी देन है। साथ ही द्राविड़ प्रजाति की देन तो रूपये में बारह आने है। हमारा आज का जीवन द्राविड़ सभ्यता का प्रतिबिम्ब अधिक है और आर्य- सभ्यता का कम है।

इस भारत -सिन्धु का प्रतिरूप हमारी त्रिदेव की धारणा है --- ब्रह्मा, विष्णु, महेश ब्रह्मा आर्यों का भगवान है, वह उत्पत्तिकर्त्ता है। जब आर्य अन्य सभ्यताओं के सम्पर्क में आए तो गरुड़ और नागों से उनकी मैत्री हुयी। तब उनका भगवान विष्णु है , जो पालक है, गरुड़ की सवारी करता है। वह शेषनाग की शैया पर सोता है। गरुड और नाग इन्हीं पक्षियों का चिह्न धारण करने वाले एक ही प्रजाति के दो कुल थे, जिनमें आपस में बहुत झगड़ा था। देवों ने जब इनसे मित्रता की तो इनमें आपस सुलह करा दी। तीसरा देव महादेव हैं,जो असुर, पिशाच, भूत-प्रेत आदि के भगवान हैं। देवों और असुरों में लड़ाई होने के बाद जो भी देवों का शक्तिशाली शत्रु है , उसे असुर पुकारा गया है। चाहे वह किसी कुल का हो। महादेव का इन सबको वरदान प्राप्त था, इसी कारण वे संहारक माने गये। ब्रह्मा,विष्णु, महेश से भगवान के तीन रूप हो गये। ब्रह्मा जो जन्म से देवों के साथ हैं, उत्पत्तिकर्त्ता विष्णु --- शक्तिशाली शत्रुओं के विरुद्ध सहायता देकर बचाने वाले , पालक महेश--- देवों में आई बुराई के कारण उनका संहार करने वाले , संहारक ब्रह्मा को यज्ञ से संतुष्ट किया जाता है। विष्णु को पूजा से और महेश को तपस्या से प्रसन्न किया जाता है। पौराणिक कथाओं में जितने असुर या राक्षस हैं, सबको महादेव से वरदान प्राप्त है। शुरू में यक्षों ने कार्तिकेय के नेत्रित्व में देवों को असुरों के विरुद्ध सहायता दी। ये रक्ष या राक्षस अर्थात रक्षा करने वाले कहलाये। बाद में राक्षसों की शक्ति बढ़ने पर उनसे मानवों का झगड़ा हुवा। जो देवों का असुरों के साथ सम्बन्ध था , वह मानवों के साथ राक्षसों का हो गया। असुरों और राक्षसों का अर्थ शक्तिशाली शत्रु हो गया। महादेव से वरदान-प्राप्त असुर-राक्षसों से पराजित होकर देव ब्रह्मा और विष्णु की शरण में जाते थे; पर वे उन्हें महादेव की शरण में ही जाने को कहते थे। इसका अर्थ यही है कि हारने पर देव शिवभक्तों में फूट डालने का प्रयास करते हैं। जैसे तारकासुर के विरुद्ध देव इंद्र के स्थान पर कार्तिकेय को सेनापति बना कर लड़े।

क्या देव मानव हैं ? क्या देव स्वर्ग में रहने वाली जाति है या हम जैसे मानव थे। देव इसी पृथ्वी पर ही रहते थे। मानवों को ही प्राचीन काल में ' देव ' कहते थे देवों का सर्वश्रेष्ठ भोजन नीवार ( चावल) था। देव घुमक्कड़ थे। उनके निवास-स्थान के जो वृक्ष गिनाये गयें हैं--- ओक , चीड़, देवदार, गोंग वाले तरु, लचकदार वृक्ष ( फल वाले नहीं ) -- वे उनका पर्वत पर रहना सूचित करते हैं। देव विश में रहा करते थे , उनके झोपड़ें दम और पू: कहलाते थे। शायद पर्वतों में रहने के कारण ही उनमें मुर्दों को जलाने की प्रथा पड़ी। पहाड़ों पर भू खोद कर दबाना बहुत कठिन था ।&&&&&&&




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