मंगलवार, 17 सितंबर 2013

यज्ञ- अग्नि ज्ञान का प्रतीक

यज्ञ-कुंड में प्रज्वलित की जाने वाली अग्नि ज्ञान का प्रतीक 


ज्ञान की नींव पर अध्यात्म का भवन स्थित है। " सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म " _ इस उपनिषद उक्ति का अर्थ है कि ज्ञान ही ईश्वर है। वैदिक धर्म ज्ञान की सर्वोच्चता को स्वीकार करता है। ज्ञान ब्रह्म है और ब्रह्म ही ज्ञान है। ऋषियों की यह स्थापना ज्ञान-निष्ठा प्रकट करती है। अंधकार को केवल अग्नि का प्रकाश ही मिटा सकता है और किसी वस्तु से अंधकार नहीं मिटाया जा सकता। वह अग्नि चाहे सूर्य की हो या जलती हुयी लकड़ी की। अंधकार मिटाने में केवल अग्नि ही समर्थ है। अग्नि की ऊष्मा ही ऊर्जा है, जो गति प्रदान करती है। गति ऊर्जा से ही सम्भव है।

 संसार में जो कुछ भी गतिमान है , अग्नि से लेकर गृह-नक्षत्र तक सब अग्नि की ऊर्जा से है। अग्नि विश्व-ब्रह्माण्ड में व्यापक है। अग्नि का तीसरा अद्भुत गुण है कि वह समीप आने वाले को अपना रूप प्रदान करती है। पत्थर को अग्नि में डालो चाहे लोहे या स्वर्ण को सब अग्नि के समान हो जाते हैं। जो कुछ भी अग्नि के समीप आएगा , अग्नि न उसे अपना रूप प्रदान करेगी ; अपितु अग्नि के गुण संक्रमित होकर उसमें प्रविष्ट होंगे और उसका अपना स्वरूप छिप जायेगा। साथ भी ज्ञान के भी तो यही गुण हैं। इस गुण सादृश्यता के कारण अग्नि ज्ञान अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।

 अज्ञान के अंधकार को केवल ज्ञान ही मिटा सकता है। कर्म-शक्ति ज्ञान से प्राप्त होती है। और जो ज्ञान के समीप जाता है, वह ज्ञानमय हो जाता है। संसार का प्रत्येक मनुष्य इन तीन गुणों की कामना करता है। मानव-मात्र की यह चिरन्तन मांग उपनिषद के शब्दों में ' असतो मा सद गमय ' , ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' के रूप में प्रकट की गयी है। ज्ञान की उपासना में ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा , गरीब-अमीर का कोई भेद नहीं है। जो भी कोई इसकी उपासना करता है, ज्ञानी हो जाता है।

यज्ञ-कुंड में प्रज्वलित की जाने वाली अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। उस ज्ञान का जिसे प्रत्येक साधक को अंत: करण के कुंड में प्रज्वलित करना है। वेद का प्रथम सूत्र प्रकट करता है कि आर्य-जीवन ज्ञान के स्तवन से प्रारम्भ होता है और इसका परिवर्तन विज्ञानं में ही होता है। इसके समान मनुष्य को पवित्र करने वाली कोई अन्य वस्तु नहीं है। जैसे अग्नि मल को जलाकर प्रत्येक पदार्थ को शुद्ध कर देती है , वैसे ही यह अंत:करण को पवित्र बना देता है। गीता में कहा गया है _ " नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते " अर्थात ज्ञान के समान पवित्र करने वाली वस्तु कोई और नहीं। ज्ञान-नौका से ही भव- सागर पार किया जा सकता है। वैदिक दर्शन में मुक्ति का हेतु ज्ञान को ही माना गया है , और ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।&&&&&&&&&&&


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