शनिवार, 21 सितंबर 2013

भरत पर ही इस देश का नाम भारत

भरत पर ही इस देश का नाम भारत 



भारत के पूरा-इतिहास में सोलह महान चक्रवर्तियों का वर्णन है। वहीँ बताया गया है कि उनमें से केवल दो सार्वभौम सम्राट थे। जिनका चक्र समस्त भूमि पर निर्बाध घूम गया था। उनमें एक थे सूर्यवंशी मान्धाता और दूसरे थे चंद्रवंशी भरत पर ही इस देश का नाम भारत पड़ा और पुरु वंश को भरत-वंश कहा जाने लगा। भरत दुष्यंत और शकुंतला का पुत्र था। बचपन में ही बड़े-बड़े नागों और सिंहों का दमन करने के कारण इनका नाम कण्वाश्रम के ऋषियों ने ' सर्वदमन ' रखा था। इसका हाथ चक्रांकित था। राजा दुष्यंत पौरव वंश का था। बड़ा होकर दुष्यंत ने गंगा और सरस्वती के मध्य अपना नया राज्य स्थापित किया। अत: इसे वंशकर राजा कहा जाता है। नागों को हराकर इसने अपनी राजधानी को अपने छठे वंशज हस्तिन के नाम पर ' हस्तिनापुर ' रखा। महाभारत और कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम ' में दुष्यंत की कथा आती है। जबकि दोनों की कथाओं में पर्याप्त अंतर है।

महाभारत के अनुसार दुष्यंत एक बार गंगानदी पार करके मृगया हेतु गया। वहां वह मालिनी तट पर स्थित कण्व ऋषि के आश्रम में पहुंचा। कण्व आश्रम के बाहर गये हुवे थे। वहां उसे तत्कालीन विश्वामित्र और मेनका अप्सरा की पुत्री शकुंतला मिली , जिसे उसकी माता जन्मते ही वन में छोड़ गयी थी। इसे कण्व ने लाकर अपने आश्रम में पाला था। शुकुंत पक्षियों से रक्षा करने के कारण कण्व ने इसे शकुंतला नाम दिया था। भेंट होने पर शकुंतला ने अपनी जन्मकथा दुष्यंत को सुनाई। दुष्यंत द्वारा प्रेमदान पर इसने बताया कि वह अपने पिता की सम्मति के बिना विवाह नहीं करना चाहती। इस पर दुष्यंत ने शकुंतला को विवाह के आठ भेद गिनाये, जिसमें गन्धर्व विवाह बिना पिता की सम्मति के हो सकता है। इस पर वह इस शर्त पर गन्धर्व विवाह को तैयार हुयी कि उसका पुत्र हस्तिनापुर का राजा बनेगा। शकुंतला की यह शर्त दुष्यंत ने मान ली और दोनों का गन्धर्व-विवाह हो गया। विवाह के बाद शीघ्र ही अपनी राजधानी बुलाने का आश्वासन देकर दुष्यंत लौट गया। आश्रम आने पर कण्व को सारी घटना ज्ञात हुयी और उनहोंने शकुंतला को आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद शंकुतला को एक तेजस्वी बालक उत्पन्न हुवा। जिसका नाम सर्वदमन या भरत रखा गया। इतने दिन बीत जाने पर भी दुष्यंत का कोई बुलावा नहीं आया। परिणामत: भरत के जातकर्म संस्कार आदि होने पर कण्व ने शकुंतला को पातिव्रत्य धर्म का उपदेश दिया और शिष्यों के साथ राजधानी हस्तिनापुर को भेज दिया।

दुष्यंत की राज्यसभा में पहुंचकर शकुंतला ने दुष्यंत को सारी शर्तें याद दिलाईं और भरत को युवराज पद देने का आग्रह किया , परन्तु दुष्यंत ने इसके प्रस्ताव को नहीं माना और कतु शब्दों में इसकी आलोचना की। दुष्यंत की कठोर वाणी सुनकर शकुन्तला को बड़ी लज्जा आई। शकुंतला ने बार-बार धर्म की श्रेष्ठता और सूर्य आदि देवताओं की साक्षी देकर अपने प्रति न्याय करने का अनुरोध किया। शकुंतला ने पति के पत्नी और पुत्र के प्रति कर्त्तव्य दुहराए और उनका पालन का आग्रह और प्रार्थना की। फिर भी दुष्यंत के न मानने पर शकुंतला ने यहाँ तक कह डाला ," और तुम भरत को युवराज नहीं बनाओगे तो भरत तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर के स्वयं राज्याधिकारी बनेगा। " इतने में आकाशवाणी ने दुष्यंत को बताया कि शकुंतला उसकी पत्नी है और भरत उसका पुत्र है। इस पर दुष्यंत ने दोनों को स्वीकार कर शकुंतला को पटरानी और भरत को युवराज बनाया। बाद में शकुंतला को को समझाया की लोकोपवाद के भय से शुरू में उसने इसे अस्वीकार किया था।

कालिदास द्वारा ' अभिज्ञानशाकुंतलम ' इस कथा में अनेक उपकथायें दी गयी हैं--- दुर्वासा ऋषि द्वारा शाप दिया जाना, शक्राव-तीर्थ में अभिज्ञान की अंगूठी का खो जाना , राजा दुष्यंत के द्वारा शाप के कारण इसे भूल जाना, मछली के पेट से अंगूठी प्राप्त होने पर स्मृति का लौटना आदि। इनका प्राचीन साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है। यह कवि की कल्पना ही हो सकती है।

शतपथ ब्राह्मण में शकुंतला को नाडापिती कहा गया है। आज के चौकीघाटा स्थान के पास मालिनी तट की सहस्रधारा ही प्राचीन नडपित है। इसी वन में मेनका ने विश्वामित्र का तप भंग किया था और शकुंतला के उत्पन्न होने पर उसे छोड़कर चली गयी थी। नड जाति के अनेक क्षुपों से भरा यह स्थान नडपित कहलाता था। आज भी नड जाति के अनेक पौधे एवं पीले प्यूला फूल पाए जाते हैं। आज भी यहाँ जनश्रुति है कि कुलपति कण्व यहाँ प्रतिदिन स्नान करने आते हैं। इससे प्रत्यक्ष है कि मेनका ने पुत्री को यहाँ छोड़ना क्यों उचित समझा ? मालिनी नदी के नामकरण के विषय में भी जनश्रुति है। इस नदी के तटों पर मालिनिलता नाम की विशेष लता मिलती है। इस लता की विशेषता यह है कि वह अपने प्रिय वृक्ष के वाम भाग पर ही आरोहण करती है। इसकी प्रचुरता के कारण ही नदी का नाम मालिनी पड़ा।

सिंहासन प्राप्त करने के बाद भरत अनेक बार दिग्विजय को निकला और हर बार इसने अश्वमेध यज्ञ किया। भरत भारत का महान पुत्र था वह केवल नीतिविशारद, महावीर और महाबली ही नहीं था, एक अत्यंत सेनानी भी था। अपनी इसी विशेषता के बल पर उसने समस्त पृथ्वी को जीतकर एक बार फिर भारत के गौरव को प्रतिष्ठित किया और देश की आर्थिक स्थिति को फिर स्थायी सुदृढ़ स्तम्भों पर खड़ा किया। इन दिग्विजयों के कारण इसके राजकोष में धन अत्यधिक मात्रा में संचित हो गया था। इसका प्रमाण यह है कि भरत ने एक सहस्र स्वर्ण-कमल तो आचार्य कण्व को गुरु-दक्षिणा में दिए थे। भरत ने अपने अनन्य मित्र इंद्र को भी उच्च कोटि के हजारों अश्व भेंट किए थे।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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