मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सहनशीलता

सहनशीलता 
                         
                                                   
                                         


एक युवती नव-वधू बनकर ससुराल में आई।  सास उसको ऐसी मिली ; जो मानो दुर्वासा का अवतार हो।  वह दिन में दो-तीन बार जब तक बहू से लड़ न लेती , उसे भोजन हजम नहीं होता।  सास बहू को 
बात-बात पर ताने देने लगी , तुम्हारे बाप ने तुम्हें क्या सिखाया है ? तुम्हारी माँ ने क्या यही शिक्षा दी है ? तेरी जैसी मूर्ख तो मैंने मैंने कभी देखी नहीं।  बहू यह सब कुछ सुनती और सुनकर मोन रहती। 
सास चिल्लाकर कहती _ अरी ! तेरे मुख में जीभ नहीं है ? बहू फिर भी शांत बनी रहती।  

       एक दिन जब वह इसी प्रकार बहू पर बरस रही थी तभी एक पड़ोसन ने कहा _बुढ़िया ! लड़ने की बहुत इच्छा , तो आकर हमसे लड़।  इस गाय के पीछे क्यों पड़ी रहती है ? बहू ने तुरंत उठकर कहा _
' नहीं , इन्हें कुछ भी मत कहिये।  ये मेरी माँ हैं माँ।  माँ ही बेटी को  नहीं समझायेंगी तो फिर कौन समझाएगा  ? 

सास ने यह बात सुनी तो लज्जित हो गयी फिर कभी उसने क्रोध नहीं किया। बहू की सहनशक्ति ने सास  का स्वभाव बदल दिया।  *****

सोमवार, 19 अगस्त 2013

बेंत - सी विनम्रता

बेंत - सी विनम्रता 

                                                                                                                                        






वर्षा ऋतु में नदियाँ अपने साथ बड़े - बड़े वृक्ष भी उखाड़ कर बहाए लिए चली जा रही थी। यह देखकर सागर ने कहा --हे ! सरिताओं , तुम अपने साथ इतने विशाल हरे- भरे वृक्ष बहा लाती हो।  इनमें आम पीपल , बरगद सभी तरह के वृक्ष होते हैं।  लेकिन आज तक कभी बेंत का वृक्ष बहा कर नहीं लायी ? 
क्या उसने तुम्हारे ऊपर कोई उपकार किया है ?


नदियों ने कहा _ उसने हमारे ऊपर कोई नहीं किया।  बात सिर्फ इतनी है कि जब हम अपने प्रभंजन वेग से आगे बढ़ती हैं  तो वह हमारे आगे पूरी तरह नतमस्तक हो जाते हैं।  हमारे वेग से आगे समा जाते  है।  इसीलिए हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ते।  दूसरी ओर ये बड़े  वृक्ष झुकते नहीं ; अकड़े खड़े 
रहते हैं ; इसलिए हम उन्हें उखाड़ फेंकते हैं।  *****

भोजन और भाव

भोजन और भाव 

                                             
                          
जब कोई मनुष्य किसी खाने की वस्तु को श्रद्धा , भक्ति और एकाग्रता से बनाकर खिलाता है तो वह 

पदार्थ बहुत हल्का बन जाता है और वह सुपाच्य हो जाता है।  पेट में और प्राण में भारीपन नहीं होता। 
हल्केपन से सात्विकता उत्पन्न होती है।  


                                जब कोई अनमने मन  , चंचल भाव और सेवा धर्म न समझकर बनाकर खिलाता है  तो वह पदार्थ पेट को भारी बना देता है और प्राण स्थूल होकर कुपाच्य बना देते हैं।  *****

लयबद्ध दीर्घश्वास

लयबद्ध दीर्घश्वास 

                                                                      

लयबद्ध दीर्घश्वास द्वारा प्राणायाम - प्रक्रिया रोगमुक्ति का एक सर्वश्रेष्ठ साधन है।  इसमें श्वास - प्रश्वास को क्रमश: गहरा और लम्बा किया जाता है।  धीरे- धीरे श्वास लें और धीरे- धीरे श्वास छोड़ें। अपने चित्त को कंठकूप की श्वासनली में केन्द्रित करें।  श्वास लेते समय श्वासनली को स्पर्श करते हुवे भीतर जाया जाता है और छोड़ते समय भी उसी प्रकार स्पर्श करते हुवे बाहर आते हैं।  इससे श्वास गहरा और दीर्घ होता है।  श्वास को ग्रहण करते समय पेट फूले और छोड़ते समय पेट सिकुड़े ; इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए। 

धीरे- धीरे लम्बा , गहरा और लयबद्ध श्वास लें।  जितने समय में लम्बा , गहरा और धीमी गति से  
श्वास लें , उतने ही समय में धीमी गति से धीरे-धीरे श्वास को बाहर छोड़ें।  यही क्रिया लगातार की जाये।  लयबद्ध रूप से प्रत्येक श्वास 5 सैकंड लें और 5 सैकंड छोड़ें।  

लयबद्ध श्वास मन को एकाग्र और शरीर को सर्वांगपूर्ण स्वस्थ बनाता है।  हमें सर्वदा इस बात का विशेष  ध्यान रखना चाहिए।  ******  

असत्य को सत्य से विजय

असत्य को सत्य से विजय 
                                                      


   



क्रोध को प्रेम से , बुराई को भलाई से  , लोभ को उदारता से और असत्य को सत्य से विजय करो।  


वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है और न चाँद - तारे।  वहाँ ये बिजलियाँ भी नहीं प्रकाशित होती हैं ; फिर 
लौकिक अग्नि कैसे प्रकाशित हो सकती है।  उस परमात्मा के प्रकाश से ही यह यह सम्पूर्ण विश्व  प्रकाशित है।  __ कठोपनिषद ******          

रविवार, 18 अगस्त 2013

परमात्मा ?

परमात्मा ? 
                                                                  

                                                                     जहाँ से मन सहित वाणी आदि इन्द्रियां उसे पाकर लौट आती हैं , उस ब्रह्मानंद को जानने वाला पुरुष 

सदा निर्भय रहता है तथा उस मनोमय पुरुष की आत्मा वही परमात्मा है ; जिसका वर्णन सभी 

करते हैं। _ तैत्तिरीयोपनिषद 2 /4 *****

स्वामी दयानंद और गुरु विरजानंद

स्वामी दयानंद और गुरु विरजानंद 

                                                                



गुरु विरजानंद अपनी कुटिया में बैठे थे।  द्वार खटखटाने की आवाज आई।  गुरु ने पूछा _ ' कौन है 
बाहर ? ' उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला।  दूसरी - तीसरी बार पूछने पर भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो 
विरजानन्दजी सहारा लेकर बाहर निकले।  उन्हें पता चला कि बाहर मूलशंकर खड़े थे।  उन्होंने उनसे पूछा _ ' क्यों रे ! पूछने पर बोल क्यों नहीं कि तू था ? ' मूलशंकर ने उत्तर दिया _ ' जब यह पता 
नहीं कि मैं कौन हूँ तो क्या उत्तर देता ? ' 

गुरु विरजानंद ने प्यार से उसकी पीठ थपथपाई और फिर बोले _ ' आ जा बेटा ! कब से तेरा ही इन्तजार  कर रहा था।  ' दिव्य प्रतिभा सम्पन्न गुरु और प्रखर प्रतिभा सम्पन्न शिष्य का मिलन हुवा  . यही मूलशंकर आगे चलकर स्वामी दयानंद के नाम से प्रख्यात हुवे।  ****** 

लक्ष्मी द्वारा पुरुषार्थी का ही वरण

लक्ष्मी द्वारा पुरुषार्थी का ही वरण 
                                                              



लक्ष्मी से देवता चिरकाल  अनरोध करते थे कि आप असुरों के यहाँ न रहें , हमारे पास रहें। पर लक्ष्मीजी ने असुर का निवास छोड़ा ही नहीं।  इधर देवताओं ने विलासिता का जीवन त्यागा ;
एकजुट हुवे एवं लक्ष्मीजी का आह्वान हेतु पुरुषार्थ में तत्पर हो गये। उधर से लक्ष्मीजी असुर -निवास छोड़कर देवलोक आ गयीं। 
देवताओं ने कहा _ " अभी तो हमने कुछ किया भी नहीं था।  आप असुरों को छोड़कर कैसे आ गयीं ?"
लक्ष्मी जी बोलीं _ " सुर- असुर होने का पुण्य - पाप भगवान देखते हैं। मैं तो बस पुरषार्थ देखती हूँ। 
आलस्य - प्रमाद और दुर्व्यसन जहाँ हों तो मैं वहाँ नहीं रह सकती। "
असुर उसी में लिप्त हो गए थे।  इधर आप भी बदल गये थे। 

लक्ष्मीजी पुरुषार्थी का ही वरण करती हैं।  ******* 


   

चित्त की प्रसन्नता से रोग-मुक्ति

चित्त की प्रसन्नता से रोग-मुक्ति 

                                                 



जो रोगों के कारण दुखी रहता है , उस पर रोग अधिक असर करते हैं।  जो प्रभु-स्मरण करता  रहता  है और संयम से रहता है , हमेशा प्रसन्न रहता है और स्वाध्याय शील रहता है उस पर रोग ज्यादा असर नहीं करते।  चित्त की प्रसन्नता से ही उसके रोग दूर हो जाते हैं।  ___ स्वामी श्री रामसुख दास जी महाराज *******

रक्षा-बंधन _ उषा -उमा-सुषमा



                                          रक्षा -बंधन की शुभ-कामनाएं                                                                                                                            





आदि शंकराचार्य के मठ

आदि शंकराचार्य के मठ 

                                                      



आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा के लिए भारत भर में पाँच मठों की स्थापना की थी। बहुत से लोग इनकी संख्या चार ही मानते हैं। 

पुरी में गोवर्धन , द्वारका में शारदा , दक्षिण में श्रृंगेरी और उत्तर में बद्रीनाथ के समीप ज्योतिर्मठ ( जोशीमठ ). दक्षिण में एक और मठ है कांची।  यहाँ का प्रतिष्ठान और मठों की तुलना में अधिक श्री - समृद्धि -सम्पन्न है। 

मठ की मान्यता है कि अन्य चार मठों में आदिशंकराचार्य ने अपने चार शिष्यों को आचार्य पद सौंपा था।  कांची में उन्होंने स्वयं अध्यक्ष पद दायित्व सम्भाला था।  दूसरे मठों के आचार्य और विद्वान् शंकराचार्य  यहाँ के अध्यक्ष बनने की बात नहीं मानते।  

उपलब्द्ध प्रामाणिक स्रोतों के अनुसार आचार्य शंकर जीवन के अंतिम काल में हिमालय के गुह्य एवं गुप्त प्रदेशों में चले गये थे।  शंकराचार्य ने अंतिम बार केदारनाथ ( उत्तराखंड ) में अपने शिष्यों को सम्बोधित किया  और धर्म-क्षेत्र में सौंपा हुवा दायित्व पूरा करने के लिए कहा।  अपने साथ हमेशा रहने वाले  वाले शिष्यों को अब और आगे नहीं आने देने के लिए कहकर वे हिमालय के गहन क्षेत्र में चले गए।  

                     अन्यतम बदरीनाथ  

आदि शंकराचार्य ने जिन चार मठों की स्थापना की, उनमें बदरीनाथ का महत्त्व सर्वाधिक एवं अन्यतम है।  पुरी , द्वारका और श्रृंगेरी में वे पहले ही मठ स्थापित कर चुके थे।  बदरीनाथ मठ के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा था।  लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले बदरीनाथ मन्दिर की मूर्त्ति तोड़कर दुष्टों ने कुंद में फेंक  दी थी। बदरीनाथ मन्दिर तब से सूना था।

शंकराचार्य जब यहाँ आये और मठ की स्थिति देखी तो उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से मूर्ति को खोजा।  उन्होंने मूर्ति को कुण्ड से निकलवाया।  कहा जाता है कि ईश्वर की प्रेरणा उसी मूर्ति को पुन: स्तापित किया गया।  सीमा पार से होने वाले विधर्मी आक्रमणों को रोकने के लिए उन्होंने एक संन्यासी संगठन  भी बनाया।  *****  


शनिवार, 17 अगस्त 2013

शरीर और मन एक दूसरे पर आधारित

शरीर और मन एक दूसरे पर आधारित 

                                                         
                                            


स्वस्स्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है ; ऐसा कहा जाता है। परन्तु यह भी सच है कि जब मन की स्थिति बिगड़ती है तो शरीर भी दुर्बल और अस्वस्थ हो जाता है।  आयुर्वेदाचार्य आज के ' साइकोसोमैटिक रोगों  ' के इस तथ्य को बड़े सुंदर ढ़ंग से अभिव्यक्त करते हैं __

            " शरीरात जायते व्याधि: व्याधि: मानसो सो नैव संशय: 1 
               मानसात जायते व्याधि: शारीरो नैव  संशय: 11 " 

अर्थात शरीर में बीमारी पैदा होती है तो साथ ही मन में भी बिमारी पैदा होती है।  इसी प्रकार मन में व्याधि पैदा  होने पर शरीर में भी बिमारी पैदा होती है ; इसमें कोई संदेह नहीं है।  दोनों का स्वास्थ्य एक -दूसरे पर आश्रित है अर्थात मन और शरीर एक- दूसरे पर आधारित हैं। *****

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं

ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं 

                                                                                                                     
                                 



नास्ति कामसमो व्याधि : नास्ति मोहसमो  रिपु : । 
नास्ति  कोपसमो  वह्नि : नास्ति ज्ञानात परं सुखं  । । 


काम के समान कोई रोग , मोह के समान कोई शत्रु , क्रोध के समान कोई अग्नि और ज्ञान से बढ़कर संसार में कोई सुख नहीं है। *****

सूक्ष्म की समर्थता

सूक्ष्म की समर्थता 

                                                                   


हम जितना अधिक काम अपनी स्थूल काया से कर सकते हैं ; उससे भी कहीं गुना अधिक सामर्थ्य हमारा सूक्ष्म शरीर दे सकता है। मसल्स पावर का _ शरीर -बल , बाहु-बल का परिचय हम अपनी स्थूल काया से दे सकते हैं। लेकिन ऋद्धि - सिद्धि के भंडार तो तो सूक्ष्म और कारण शरीर में ही सन्निहित हैं। योगी , तपस्वी एवं साधक स्तर के व्यक्ति इन्हें प्रयत्नपूर्वक जाग्रत करके भौतिक सफलताओं एवं आत्मिक विभूतियों से लाभान्वित होते हैं। स्थूल शरीर की अपेक्षा अपने सूक्ष्म शरीर को वे इतना सशक्त और परिष्कृत बना लेते हैं कि वे इच्छानुसार सुदूरवर्ती क्षेत्रों लेकर लोक-लोकान्तरों तक की यात्रा क्षण मात्र में करने में सफल रहते हैं। *****

पुरुषार्थ _ मेहनत

पुरुषार्थ _ मेहनत 
                                                                      

एक मजदूर पत्थर तोड़ता और रोज थक जाता।  सोचता _किसी बड़े मालिक का पल्ला  पकडूँ , ताकि अधिक लाभ मिले और कम से कम मेहनत करनी पड़े।  ऐसा सोचते -सोचते पहाड़ पर चढ़ गया और देव  प्रतिमा से याचना करने लगा।  वह प्रतिमा चुप रही , तो  उसने सोचा और भी बड़े देवता की आराधना करूं।  

वह सोचने लगा कि बड़ा कौन ? तो उसे सूर्य का ध्यान आया।  तो वह सूर्य की आराधना करने लगा।  एक दिन बादलों ने सूर्य को ढ़क दिया।  दो दिन तक सूर्य दिखा ही नहीं।  मजदूर ने सोचा _ बादल सूर्य से बड़े लगते हैं तो वह बादलों की पूजा करने लगा।  बाद में वह सोचने लगा कि बादल भी पहाड़ से टकराकर बरस जाते हैं।  अत पहाड़ का ही भजन करना ठीक होगा।  फिर सोचा की पहाड़ को तो हम रोज तोड़ते और काटते हैं।  हमसे ज्यादा ताकतवर कौन है ? 

वह मजदूर आख़िरकार सब कुछ छोडकर स्वयं अपने आप को सुधारने में लग गया।  इसप्रकार वह पुरुषार्थ के एवं मेहनत के सहारे उठता चला गया।  *****

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

हाइजीन_ एक बला

हाइजीन_ एक  बला 
                                                            

हाइजीन का तात्पर्य है _ अच्छा स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य का संरक्षण।  इसे स्वच्छता एवं साफ़ -सफाई तथा बचाव के रूप में लिया जाता है।  यह एक सीमा तक तो ठीक है , परन्तु अब इस पर विशेष अत्यधिक ध्यान दिया जाता है ; तो अब यह एलर्जी एवं संक्रामक रोग को जन्म देने का कारण बनता जा रहा है।  वर्तमान में हाइजीन जिन अर्थों में प्रयोग किया जाता है , उनमें तमाम विसंगतियां है।  इसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रयोग किया जाना चाहिए।  

उठने बैठने , खाने-पीने तथा पहनने के लिए एकदम साफ चीजों के प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं है ; परन्तु केवल इसी का प्रयोग करना एवं धूल -मिट्टी से सदा परहेज करना अनगिनत समस्याओं को जन्म देता है। क्योंकि जीवन में दोनों परिस्थितियों का समान महत्त्व है। 

 दैनिक जीवन में धूल -धक्कड़ और मिट्टी आदि की भी आवश्यकता है।  वैज्ञानिक मानते हैं कि जब कभी हम मिट्टी आदि के सम्पर्क में आते हैं तो हमारे ' इम्यून सिस्टम ' प्रतिरक्षा प्रणाली को कीटाणुओं के सम्पर्क में आने का अवसर मिलता है। 

प्राकृतिक परिवेश में धूल- मिट्टी आदि बिखरी होती है।  बच्चे उसके सम्पर्क में आते हैं और खेलते - कूदते रहते हैं।  इससे उनका शरीर स्वस्थ रहता है।  एलर्जी इन बच्चों को कम होती है और साथ ही संक्रामक रोग भी कम ही होता है ; परन्तु इसके विपरीत जो परिशुद्ध परिवेश में रहते हैं तथा कम्प्यूटर , इंटरनेट आदि में व्यस्त रहते हैं या रखे जाते हैं , तो वे रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।  

पश्चिम देशों में एलर्जी की अधिकता इन्हीं अति सावधानियों के कारण अधिक हुयी हैं।  एक अन्य शोध में इसके विपरीत उन लोगों का अध्ययन किया गया , जो झोपड़ियों में निवास करते हैं , जिनके बच्चे उन्मुक्त होकर खेलते हैं , वर्षा के पानी में भीगते हैं और तालाब का पानी भी पी जाते हैं ; पर उनको किसी प्रकार की बीमारी भी नहीं होती।  

जीवन में केवल स्वच्छता की ही नहीं , थोड़ी - बहुत धूल-मिट्टी की भी आवश्यकता पडती है।  दिन- रात के समन्वय - संयोग से ही एक पूर्ण चक्र बनता है।  ठीक उसी प्रकार हाइजीन की परिकल्पना में स्वच्छता एवं धूल आदि का होना भी आवश्यक है।  इम्यून सिस्टम के कमजोर हो जाने से छोटी-सी बात भी  रोगों का कारण बन जाती है।  पानी से भीगते ही सर्दी , जुकाम हो जाता है।  धूल से एलर्जी हो जाती है और छींक आदि आने लगती हैं।  ये सभी रोग इम्यून सिस्टम की कमजोरी के कारण पनपते है ; परन्तु इस तन्त्र को मजबूत कर लिया जाये तो ये रोग स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे। 

आधुनिकतम शोध निष्कर्ष से पता चला है कि धूल और गोबर में विद्यमान कीटाणुओं से लड़ चुके इम्यून  सिस्टम में इतनी ताकत आ जाती है कि वह दमे आदि रोग को भी पास फटकने नहीं देती। एक और सर्वेक्षण का निष्कर्ष तो चौंकाने वाला है , जो हमारी वैदिक मान्यता  को पुष्ट करता है।  इस व्यापक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जिन घरों में गाय और बैल बंधे होते हैं तथा जिनके घर-आंगन में गोबर आदि से लिपाई-पुताई की जाती है ; वहां पर निवास करने वाले लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली अत्यंत सुदृढ़ होती है।  ऐसे लोग रोगों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं तथा वे स्वस्थ ही रहते हैं।  

हाइजीन से तात्पर्य है प्रकृति का सहचरी -भाव।  प्राकृतिक जीवन ही सही अर्थों में हाइजीन है ; जबकि उसके विपरीत विकृति है , जो अनेक रोगों का कारण बनती है।  साफ-सुथरा होना आवश्यक है  , परन्तु यह तभी हो सकता है , जब गन्दगी को बाहर कर दिया जाये।  कपड़ा साफ स्वच्छ तभी हो सकता है  , जब जब उसे धोया जाता है। ठीक उसी प्रकार स्वास्थ्य तभी पाया जा सकता है , जब रोगों के लड़ने की सामर्थ्य मिल जाये।  अत हमें प्राकृतिक जीवन जीने का यथा- सम्भव प्रयास अवश्य करना चाहिए।  



कायाकल्प

कायाकल्प
                                                 
                                                         
मगध देश के राजा चित्रांगद वन-विहार को निकले। एक सुंदर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटिया दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुवे कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है यह। महात्मा ने वह धन-राशि लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गयी , पर सब लौटा  दी गयी। 


राजा स्वयं गये और पूछा कि आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की ? महात्मा हँस कर बोले _ " मेरी आश्यकता के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है। " राजा ने देखा कुटीर में एक तूम्बा , एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र भर था ; यहाँ तक कि धन रखने के लिए और कोई सन्दूक आदि भी नहीं था।  

राजा ने फिर कहा _ ' मुझे कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। ' महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर राजा के कान में कहा _ " मैं रसायनी विद्या जानता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ। " अब राजा की नींद उड़ गयी। 

वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और महात्मा के पास सुबह ही पहुँच कर कहा _ " महाराज ! मुझे वह  विद्या सिखा दीजिये , ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूँ। " महात्मा ने कहा _ " इसके लिए तुम्हें समय देना होगा।  वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा।  मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनना । एक वर्ष बाद तुम्हें 
सिखा दूंगा। "    

राजा नित्य आने लगा।  सत्संग एवं आचार-गंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा।  एक वर्ष में राजा के विचारों में  परिवर्तन आ चुका था।  महात्मा ने स्नेह से पूछा _ " विद्या सीखोगे ? "  राजा बोले _ " प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन  बन गया।  अब किसी नश्वर विद्या को सीख कर क्या करूंगा ? " ऐसा होता है _ काया-कल्प। 

धर्म-युद्ध

धर्म-युद्ध 





खलीफा अली जंग के मैदान में थे।  एक मौका आया जब उन्होंने दुश्मन राजा को उसके घोड़े से नीचे गिरा दिया और उसकी छाती पर बैठ गये।  खलीफा ने अपनी तलवार तिरछी की और वे उसे दुश्मन के दिल में भोंकने ही वाले थे कि अचानक दुश्मन राजा ने उसके मुंह पर थूक दिया।  खलीफा तुरंत एकओर हट गये और बोले _' आज की जंग यहीं खत्म।  हम कल फिर लड़ेंगे। ' दुश्मन राजा बोला _ ' लगता है आप घबरा गये।  आज आपके पास मौका है जंग जीतने का , हो सकता है कि कल ऐसा न हो पाए। '

खलीफा ने उत्तर दिया _ ' मित्र ! मजहब का उसूल है कि कभी जोश में होश खोकर कोई काम न करो।  जब तुमने थूका तो मुझे गुस्सा आ गया।  गुस्से में किया गया वार हिंसा होती ; इसलिए मैंने कहा कि आज नहीं कल लड़ेंगे।  ' 

दुश्मन के अचरज का ठिकाना न रहा।  वह तुरंत खलीफा के पैरों में झुक गया और बोला _ ' जो इन्सान जंग भी उसूलों से लड़ता हो , उसे मैं क्या दनिया की बड़ी से बड़ी ताकत भी नहीं हरा सकती।  मैं यह जंग आज ही खत्म करता हूँ। ' 

सिद्धांतो के आधार पर चलाये गये अभियान ही  धर्मयुद्ध  होते हैं।  

व्यस्त ही नहीं अपितु व्यवस्थित

व्यस्त ही नहीं अपितु व्यवस्थित 


व्यस्तता और अस्त -व्यस्तता के मध्य एक झीनी -सी  रेखा खिंची हुयी है। व्यस्तता का तात्पर्य है _ किये हुवे कार्य को उपयुक्त ढ़ंग से करना और अस्त-व्यस्तता का तात्पर्य है _ उसे बिखरे बेढ़ब तरीके से करना।  व्यस्तता शुद्ध रूप से एक नित्य प्रति की प्रक्रिया है ; जिसमें व्यक्ति बाह्य रूप से अपने सभी कार्यों को समय के साथ सम्पादित करता हुवा दिखायी देता है। 


व्यस्तता और व्यवस्था में अंतर है। व्यस्त व्यक्ति दीखने में सभ्य और सुसंस्कृत लगता है , लेकिन अपने निजी जीवन में इतने गहरे अवसाद , कुंठा एवं द्वंद्व के भंवर में फँसा हुवा हो सकता है कि वह इस मानसिक परेशानी से उबरने के लिए नशे एवं अन्य कृत्यों सहारा लेने लगता है।  

इसलिए आवश्यक है कि यदि हम जीवन में सुख-शांति एवं प्रसन्नता चाहते हैं तो व्यवस्थित रूप में व्यस्त रहना सीखें।  यही जीवन जीने की कला का मूल सिद्धांत है।  *****

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

प्रेमनिवास _ अर्पित जैन

प्रेमनिवास _ अर्पित जैन 


प्रिय अर्पित , 

मैंने प्रेम - निवास के विषय में पढ़ा।  पढ़कर मन करुणा से भर गया।  हमारे समाज में आजकल स्थिति बहुत ही भयावह हो गयी है।  मुझे जानकर ख़ुशी हुयी की तुमने अपना जन्म- दिवस ऐसे लोगों के मध्य मनाया।  तुमने जो लिखा है कि यह दान नहीं , अपितु एक ' इन्वेस्टमेंट' है , यह वास्तव में बड़ी बात है।  तुम जैसे मित्र पर मुझे निश्चय ही गर्व अनुभव होता है।  भाव और भावना ही मनुष्य को मानव से महा मानव बना देते हैं।  साथ ही आशीष शर्मा को भी बधाई , जिन्होंने अच्छे कार्य में तुम्हारा सहयोग दिया। मैं इस कार्य के लिए अपनी ओर से शुभ कामनाएं देता हूँ।  

मुझे भी इस संस्था का पता तथा फोन नम्बर देना ताकि मैं भी वहाँ सम्पक स्थापित कर सकूं।  जन्म-दिवस की बहुत-बहुत पुन: शुभ कामनाएं। 

मैं आजकल ब्लोग़ लिख रहा हूँ , इन्हें फ़ेसबुक भी प्रेषित कर रहा हूँ।  अपनी टिप्पणी भी अवश्य देते रहना।  जीवन में सदा प्रगति करते रहो।  तुम्हारे जैसे मित्र को पाकर मैं धन्य हो गया।  

पहचान__ आचरण

पहचान __ आचरण 

पहचान पाने की व्याकुलता प्राय: सभी में होती है ; हर कोई इसके लिए अपने-अपने ढ़ंग से प्रयास करता है।  कोई धन पाने के लिए ,कोई उच्च पद पाने के लिए , कोई सम्मान के लिए सदा प्रयास करता रहता है।  कुल मिलाकर जितने लोग उतने प्रयास ; इन सभी प्रयासों का उद्देश्य एक ही होता है की समाज में उनकी पहचान और प्रतिष्ठा।  

इन सभी प्रयासों में लगे व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उनके पास क्या है ? इससे भी अधिक कि वे स्वयं क्या हैं ?इससे ही उनकी सही पहचान होती है।  यथार्थ में यही सच्ची सम्पदा है और यही वास्तविक पहचान है।  जो यह सम्भाल लेता है , वह सब कुछ सम्भाल लेता है।  

इस सम्बन्ध में एक कथा कबीर के सन्दर्भ में आती है।  वे अपने बेटे कमाल को पहचान का सही पाठ पढ़ाने के लिए मार्ग के बीच में खड़े थे।  उस समय वहाँ से बांदोगढ़ के राजा की सवारी निकलने वाली थी।  मार्ग को निर्विघ्न करने करने के लिए कुछ सैनिक वहाँ आये। उन्होंने कबीर को धक्का दिया और बोले _ ' बूढ़े ! तुझे समझ में नहीं आता कि महाराज की सवारी निकल रही है।  ' इस पर कबीर हँसे और बोले _ ' इसी कारण यह  ऐसा है। ' बाद में सनिकों का अधिकारी आया और बोला _ ' मार्ग से हट जाओ , महाराज की सवारी आने वाली है। ' कबीर फिर हँस कर बोले _ ' इसी कारण यह  ऐसा है। ' 

इसके बाद राजा के मंत्री आये , उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा और उन्हें बचाकर अपने घोड़ों को ले गये।  इस पर कबीर फिर हँसते हुवे बोले _ ' इसी कारण यह  ऐसा है। ' और तब महाराज स्वयं आये , उन्होंने सवारी से उतरकर महात्मा कबीर के पैर पाँव छुये , फिर चले गये।  इस पर कबीर ठहाका मारकर हँसे और बोले _ इसी कारण यह ऐसा है। 

अब कमाल से नहीं रहा गया उसने उनसे ' इसी कारण ' की वजह  पूछी।  इस पर कबीर ने कहा _ ' मनुष्य के व्यक्तित्व और आचरण से उसकी पहचान प्रकट होती है।  मनुष्यों में भेद भी इसी कारण होता है।  जो अपने व्यक्तित्व व आचरण की निरंतर समीक्षा करते हुवे इसे विकसित करते हैं , वे अपनी पहचान को भी स्वत: विकसित  कर लेते हैं। 

भारतीयता

भारतीयता 


भारतीयता में भारतमाता की  लाडली सन्तान होने के भाव भरे हैं।  इसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुगंध से अपनत्व का अहसास है।  यही एक भावना है , जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम सभी भारतवासी जन को एक स्नेह - सम्बन्ध में बाँधती है।

स्वाधीन भारत के निवासियों की एक ही पहचान है __ भारतीयता।  और इस वर्ष के स्वाधीनता - दिवस पर हममें से हर का एक संकल्प है __ जय हिद एवं वन्दे मातरम ********


डा रीता गर्ग को जन्म-दिवस

आगामी 1 4 अगस्त को जन्म - दिवस के उपलक्ष्य में प्राचार्या डा रीता गर्ग को जन्म-दिवस  की बहुत-बहुत शुभ कामनाएं।  साथ में नयी पुत्र -वधु जिज्ञासा एवं सुपुत्र आशीष तथा अनुज   को भी बहुत-बहुत शुभकामनाएं ___ प्रेषक __ बीना व विद्यालंकार 

क्रोध से बचिए

क्रोध से बचिए 

क्रोध आते ही हमारी दशा माचिस की तीली जैसी हो जाती है ; जो औरों को जलाने से पहले स्वयं जलती है।  क्रोध आत्म-संयम तथा विवेक सबसे पहले क्षति पहुँचाता है।  इससे हमारा संचित ज्ञान नष्ट हो जाता है।  चिडचिड़ापन , हाइपरटेंसन और डाईबिटीज रोग क्रोधी व्यक्ति पर सहज ही हावी हो जाते हैं। 

पर क्रोध से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है अपने भीतर सहनशीलता को विकसित करना।  क्रोध को सहनशीलता से ही स्थायी तौर पर जीता जा  सकता है।  

क्रोध आने पर ध्यान को एकदम हटा लेना तथा एक- दो गिलास पानी पी लेना अत्यधिक उपयोगी उपाय सिद्ध हो सकता है। 

ईश्वर के प्रति अश्रद्धा

ईश्वर के प्रति अश्रद्धा 

" हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं  मुखं "

सोने के पात्र से सत्य का मुख ढ़का रहता है , अर्थात माया के बंधन परमात्मा को अनुभव नहीं करने देते।  

संत बल्लभाचार्य जिस गाँव में रहते थे , उस गाँव का नाई ईश्वर के प्रति अत्यधिक अश्रद्धा रखता था।  जब भी संत उसके द्वार के पास से निकलते तो वह उन्हें सुनाने के लिए जोर-जोर से बोलता __' दुनिया में कोई भगवान् नहीं है ; नहीं तो यहाँ इतने सारे दुखियारे क्यों होते ? ' संत हँसते हुवे उसकी बात को टाल जाते। 

एक दिन नाई अपनी दुकान पर बाल काट रहा था और एक-दो व्यक्ति बाहर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर  रहे थे।  तभी संत बल्लभाचार्य वहाँ से निकले।  उन्होंने नाई को आवाज देकर बुलाया और बोले _ " लगता है इस गाँव में कोई नाई नहीं है , नहीं तो इस आदमी के बाल इतने क्यों बढ़ जाते। " नाई खिसियाते हुवे बोला _ ' महाराज ! नाई तो मैं ही हूँ , पर जब यह मेरे पास बाल कटवाने ही नहीं आएगा तो बाल कैसे कटेंगे ? '   

सोमवार, 12 अगस्त 2013

व्यस्त रहने में आनन्द

व्यस्त रहने में आनन्द 




चिंता होती ही ऐसी , जो व्यक्ति को चिता के समान सुलगाये रखती है। व्यक्ति को अंदर से खोखला कर देती है और किसी तरह का कोई समाधान नहीं देती साथ ही हमारी ऊर्जा को लगातार घुन के समान खाकर नष्ट करती रहती है।  

चिंता से एक तरह का नकारात्मक विचार व्यक्ति को लगातार घेरता रहता है और धीरे - धीरे वह बड़ा होता चला जाता है।  साथ ही चिंता करने के कारण मस्तिष्क पर अत्यधिक आंतरिक तनाव पड़ता है , जो हमारे रसों एवं हारमोंस को स्रावित होने में अवरोध उत्पन्न कर देता है।  परिणामत: व्यक्ति की क्षति होना शुरू हो जाती है।  

चिंता करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता , अपितु उसके माध्यम से अल्प समस्या भी अधिक भयावह दिखने लगती है।  जिस कार्य के सम्पादन में परिश्रम एवं संघर्ष करना पड़ता है तो उस कार्य को करने में उस समय चिंता लेश-मात्र भी नहीं रहती।  कार्य की व्यस्तता उसकी चिंता को पूर्ण रूप से उखाड़ देती है।  अत: व्यक्ति को जीवन भर व्यस्त रखने का प्रयास करना चाहिए। 

वास्तव में चिंता व्यक्ति को तभी रहती है , जब वह खाली रहता है तथा उसके पास करने को कोई भी कार्य नहीं होता। 

इस संसार में बहुत से ऐसे कार्य हैं , जिन्हें व्यक्ति कर ही नहीं सकता ; जो कार्य वह कर ही नहीं सकता , उसकी चिंता उसे नहीं करनी चाहिये।  तथा जो कार्य वह कर सकता है तो उसे पूरी तन्मयता से करना चाहिए।  व्यक्ति को जीवन का उद्देश्य आनन्द के लिए नहीं अपितु आनन्द के साथ प्रत्येक कार्य करना चाहिए।  

कर्म में ही आनन्द के भाव को विकसित करना चाहिए।  वास्तव में कर्म में व्यस्त रहने में ही सच्चा आनन्द निहित है। *****

व्यवहार -कुशल

व्यवहार -कुशल 


इस दुनिया में सुखी , संतुष्ट जीवन जीने के लिए व्यवहार-कुशल होना आवश्यक है। कहा भी गया है ' आहारे व्यवहारे च त्यक्त लज्जा सुखी भवेत ' अर्थात आहार एवं व्यवहार में अधिक संकोच नहीं करना चाहिए ; नहीं तो यह विपत्ति का कारण बन जाता है।  हमारा व्यवहार ही हमारे व्यक्तित्व का परिचय दूसरों से कराता है और उनसे हमारा सम्बन्ध स्थापित होता है।  

इस विषय में यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि हम दूसरों के प्रति जो भी बुरा सोचते हैं ; घृणा व द्वेष करते हैं ; क्रोधित होते हैं __ वह सब अपने मन में करते रहते हैं।  ये सब कलुषित भावनाएं मन में होने के कारण हमें ही अधिक हानि पहुँचाती हैं। 


यदि व्यक्ति किसी को अपना अच्छा मित्र नहीं बना सकता ; अच्छे सम्बन्ध नहीं जोड़ सकता तो उसे अपने शत्रु भी नहीं बनाने चाहियें। अपने अंदर की नकारात्मकता को दूर करते हुवे सकारात्मकता को विकसित करना चाहिए।  

जीवन में सकारात्मक भाव , अच्छे विचार एवं प्रसन्न मन:स्थिति ही वे अनमोल उपहार हैं , जिससे व्यक्ति का परिष्कार हो जाता है।  जीवन में आगे बढ़ने के लिए व्यवहार - कुशल होना नितांत आवश्यक है।  *****

अपना कैसे बनाएं ?

क्रिया के अभाव में विचारों कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। अपने जीवन को परिमार्जित करने के लिए हमें आचरण पर विशेष महत्त्व देना ही होगा। सत्संग , स्वाध्याय आदि का महत्त्व इसीलिए है ; क्योंकि इनके द्वारा हमें उत्तम आचरण की प्रेरणा मिलती है। 


जीवन को उन्नत बनाने के लिए समस्त शास्त्रों को कंठस्थ करने की आवश्यकता नहीं ; बस एक सद्वाक्य को आचरण में लेन से भी जीवन परिमार्जित हो सकता है। 

बुरे अतीत को यदि हम नापसंद करते हैं और अच्छे भविष्य की आशा रखते हैं तो वर्तमान को सुव्यवस्थित रीति से जीना आरम्भ कर दें।  वह शुभ मुहूर्त आज ही है , अभी ही है , इसी क्षण है।  अब हम अपने संचित ज्ञान को कार्यरूप में लाकर अपने जीवन को उन्नत बना सकते हैं।  

सामान्य रूप से जिसका ध्यान नहीं आता , निषेध करने पर वह अवश्य ही आएगा।  यही बात बुराइयों के सन्दर्भ में भी है।  यदि हम उनका विरोध करने का प्रयास करेंगे तो वे दुगने वेग से आएँगी।  इसलिए बुराइयों को दूर करने का सरल उपाय यही है की हम अच्छे गुणों को अपनाना प्रारम्भ कर दें।  

दूसरों को अपना बनाने का सबसे सरल उपाय है ; उनकी सच्ची प्रशंसा करना।  प्रशंसा सब को अच्छी लगती है ; चाहे वह बालक हो या वृद्ध , अमीर हो या गरीब , परिचित हो या अपरिचित।  प्रशंसा से किसी के भी मन को जीता जा सकता है। प्रशंसा परायणता में जितना आध्यात्मिक लाभ है ; उससे भी अधिक  भौतिक लाभ है। 

जीवन में हर व्यक्ति चाहता है कि दूसरे उसे प्यार , सम्मान दें एवं वह दूसरों के लिए वह प्रेरणा का स्रोत बने।  जीवन की सभी समस्याओं का यही एकमात्र समाधान है और अपनत्व को विकसित करने का यही सरलतम उपाय है 

संतुष्टि ही ख़ुशी

एक संत भ्रमण पर नकले हुवे थे।  उन्हें मार्ग में एक राजा मिला ; जो पड़ोसी राज्य पर हमला करने के लिए निकला हुवा था।  संत को देख कर उसने उन्हें प्रणाम किया और बोला _ ' महाराज ! मैं चक्रवर्ती सम्राट हूँ।  मेरे पास अपार धन-दौलत है और आज मैं उसे और बढ़ाने के लिए दूसरे राज्य पर आक्रमण करने निकला हूँ।  आप मुझे आशीर्वाद दें। ' संत धीरे से हँसे और उसके हाथ पर एक रूपये का सिक्का रख दिया। 

राजा को आश्चर्य हुवा और वह बोला _ ' ' महाराज! आपने सुना नहीं कि मैं बड़ा धनवान हूँ , मुझे इस एक रूपये की आवश्यकता नहीं है। ' संत बोले  _ बेटा ! यही सुनकर मैंने यह रुपया तुझे दिया।  मुझे यह मुद्रा पड़ी मिली थी और मैंने सोचा कि इसे सबसे दरिद्र व्यक्ति को दूंगा।  आज तुझसे मिलकर मुझे लगा कि सबसे दरिद्र यदि कोई है ; वो तू ही है , जो अपार धन-सम्पदा होते हुवे भी दूसरों का घर लूटने चला है। ' 

संत की बात सुनकर ही राजा का सिर शर्म से झुक गया और उसने जीवन की राह बदलने का संकल्प किया। 

जीवन में सबसे बड़ा धन संतोष ही है ; जिसके पास संतोष है ; फिर उसे अन्य आकर्षण विचलित नही करते। ***

सार्थक सफलता

प्राय: यह देखने में आता है कि सफल होने के उपरांत लोग संतुष्ट नहीं होते।  जो लोग हमें सफल दिखाई देते हैं , जानने पर ज्ञात होता है कि वे संतुष्ट नहीं हैं।सफलता उनके लिए बोझ बन गयी है. इच्छा जन्म लेती है, पर उसके पूर्ण होने पर भी संतुष्टि नहीं हो पाती।  अर्थात सफलता तो है , पर संतुष्टि नहीं। 

सफलता यदि जीवन की सार्थकता का अनुभव दे जाती है , तभी संतुष्टि अनुभव हो पाती है।  जीवन की सबसे बड़ी चाह जिदगी के सार्थक होने का अनुभव है।  यदि जीवन में सार्थकता की अनुभूति नहीं , तब जो भी प्राप्त किया है , वह भी व्यर्थ है।  

सार्थकता का सम्बन्ध व्यक्ति की मौलिकता से होता है।  मौलिकता की अभिव्यक्ति ही व्यक्ति को सार्थकता का अनुभव प्रदान करती है।  व्यक्ति को अपना लक्ष्य मौलिकता के आधार पर ही निर्धारित करना चाहिए।  मौलिकता की अभिव्यक्ति से व्यक्ति स्वयं को सफल अनुभव कर सकता है। ***
   

धर्म और विज्ञान

धर्म कहता है ईश्वर है अपितु इतना ही पर्याप्त नहीं है पर व्यक्ति ईश्वर के सदृश्य बन जाये , यह भी आवश्यक है।  धर्म केवल सूचनाएं ही प्रदान नहीं करता , अपितु इन तथ्यों के साथ -साथ लक्ष्यों और उद्देश्यों की भी उद्घोषणा करता है।  

सत्यत: यही कारण है कि विज्ञान अपनी जड़ता से मुक्त नहीं हो पाया है , जबकि धर्म निरंतर जीवन और जगत में चेतना का संचार करता रहता है।  प्रयोगधर्मिता अपनाई जाएगी।  यदि विज्ञानं अपनी जड़ता से उबर जाये तथा धर्म विज्ञानं की प्रयोग धर्मिता स्वीकार कर ले तो सारी  समस्याएं ही समाप्त हो जायेंगी , तथा भविष्य में ऐसी ही प्रयोगधर्मिता अपनाई जाएगी। 

वस्तुत: मानव के उत्थान का सही रूप तभी स्पष्ट हो पायेगा , जब अध्यात्म और विज्ञान का मिलन हो जायेगा।  

परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में कि विज्ञान जीवित रहेगा , पर उसका नाम भौतिकविज्ञान न होकर अध्यात्म विज्ञान ही हो जायेगा।  इस आधार को अपनाते ही स्वयं सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।  ***

सहजीवन

सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।  सह वीर्यं करवावहै।  तेजस्वि नावधीतमस्तु।  मा विद्विषावहै। ॐ शांति: ! शन्ति:! शांति: !!!

इस वैदिक सूक्त में ' सहजीवन की उत्कृष्टता को स्पष्ट किया गया है ---सहजीवन के पथिक दोनों की एकसाथ ही रक्षा हो।  दोनों एकसाथ मिलकर पालन-पोषण करें।  साथ ही साथ शक्ति अर्जित करें।  हमारा अध्ययन तेज से परिपूर्ण हो।  हम कभी भी परस्पर विद्वेष-भाव न रखें।  साथ ही हे ! प्रभु हमारी आध्यात्मिक , आधी दैविक और आधिभौतिक इन तीनों ही तापों की निवृत्ति हो।  

यह सहजीवन माता -पिता , पति -पत्नी , भाई -बहन , गुरु-शिष्य आदि विभिन्न सम्बन्धों के मध्य हो सकता है।  यह समाज के प्रत्येक वर्ग के मध्य हो सकता है।  इसमें समाज और मानव -जीवन की समस्याओं का सार्थक समाधान समाहित है।  

सह जीवन संस्कृति है , विकृति नहीं।  संस्कृति सतत विकास का सूचक है ; जबकि विकृति विनाश और अवसान की द्योतक है।  सहजीवन के सांस्कृतिक मूल्य उच्चतम हैं , क्योंकि वे एक दूसरे पर आधारित 

समाधान

व्यवहार और मानसिक क्रियाएं तो मानवीय व्यक्तित्व के एक पहलू भर हैं ; अंशमात्र हैं।  अंश को जानने के लिए सम्पूर्ण का ज्ञान आवश्यक है तथा निम्नतम को पूर्ण रूप समझने के लिए उच्चतम को जानना अनिवार्य है ; क्योंकि पूर्णता में अंश का अस्तित्व समाहित है और उच्चतम में ही निम्नतम का समाधान निहित है।  यही भारतीय मनोविज्ञान है , जिसके नूतन आगमन की घड़ी प्रतीक्षारत है।  उसमें समस्त मानसिक समस्याओं का समाधान ही नहीं , अपितु मानसिक चेतना का ऊर्ध्वगमन भी समाहित है 

रविवार, 11 अगस्त 2013

राष्ट्र-निर्माण

राष्ट्र - निर्माण राजनीति का सर्वप्रथम धर्म होना चाहिए ; पर आज की परिस्थितियों में किसी एक का व्यक्तित्व एवं अस्तित्व बचाने के लिए देश को जाति , धर्म ,वर्ग आदि के समीकरणों में उलझाया तथा भटकाया जा रहा है।  

अपने हित साधने के लिए सभी स्थितियों को उपेक्षित कर दिया गया है ; किसी को भी राष्ट्र के निर्माण की चिंता नहीं। 

भ्रष्टाचार की माया नहीं



जिस प्रकार सूर्योदय होने पर निशाचरों का पता नहीं लगता ; उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान हो जाने पर भ्रष्टाचार की माया किसी भी रूप में नहीं रह पाती।  

महामाया वह है , जिसकी कृपा से मनुष्य माया और योगमाया के पर्दे को पार कर जाता है और वास्तव में परमेश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार कर पाता है।  इन्हीं की कृपा से व्यक्ति के चित्त का परिष्कार होता है।  वस्तुत: संसार व्यक्ति के मन में बसता है ; हमारी आंतरिक वृत्तियों का दूसरा नाम ही संसार है।  

इस तरह संसार में बहुत कुछ पाने का लोभ है और नष्ट हो जाने या छिन जाने का भय भी है और यही तो संसार है। व्यक्ति सम्मान व यश पाने के लिए अपना सब कुछ लुटा देता है और अंत में वह क्या प्राप्त कर पाता है  __ प्रशंसा , प्रभाव , चकाचौंध , गुणगान आदि।  

लेकिन इस तरह कुछ महापुरुष ऐसे भी होते हैं , जो कभी भी सम्मान की कामना नहीं रखते हैं।  और संसार युग-युगों तक स्मरण करता रहता है।  

एक और ऐसी ही सत्य  कहानी आई -ए -एस कोमल प्रवीण भाई गणरात्रा की भी है।  उनका जीवन तो इससे भी अधिक दुःखद और भयावह था है।  कोमल का विवाह एक सामान्य परिवार में हुवा था; परन्तु दहेज लोलुप इस परिवार ने विवाह के कुछ दिन बाद ही कोमल के जीवन को यातनाओं एवं अत्याचार के कठोर कष्टों से भर दिया।कोमल की जिन्दगी नारकीय हो गयी।  इस दुनिया में उसने दहेज पीड़िता के रूप में पांच वर्ष गुजारे।  

कोमल ने निश्चय किया कि वह इस भयावह एवं भीषण परिस्थितियों के बीच कुछ ऐसा सृजनात्मक कार्य करेगी कि उसका जीवन सार्थक हो जाये ओरों के लिए वह प्रेरणा का स्रोत बने कोमल ने निश्चय किया कि वह आई-ए-एस की तयारी करेगी। 

उसने अपनी समस्त प्रतिभा एवं ऊर्जा को इसमें लगाया।  सोते -जागते उठते-बैठते उसने एक ही ध्येय बना लिया कि किसी भी कीमत पर वह इस लक्ष्य को प्राप्त करेगी। कोमल ने अपने साहस को नहीं छोड़ा ; वह अपने आत्म विश्वास को बनाये रखी।    

परिणाम स्वरूप उसने आई-ए-एस जैसे उच्च पद को उपलब्ध कर लिया।  निंदा एवं कटाक्ष करने वाले ही सबसे पहले उसको बधाई देने आये।  
निरीश की माँ पैसे के अभाव  में दुनिया छोड़ गयी और पैसे के ही अभाव में वह आई -ए -एस परीक्षा की कोचिंग भी नहीं कर पाया ; तब भी उसने घर में कड़ी मेहनत करके अध्ययन किया।  

इसी बीच जिस जगह वह काम करता था , वहाँ से भी उसे निकाल दिया गया।  निरीश पर घोर विपत्ति आ गयी।  पल भर के लिए उसका मन विचलित हो गया।  सोचा यह सब बेकार है।  पर दूसरे ही पल उसके प्रबल आत्मविश्वास ने उसे भरोसा दिलाया कि यह स्थिति भी अधिक दिन नहीं टिकेगी।  

टूटो मत और घबराओ मत ; केवल अपने लक्ष्य पर डटे रहो।  परिणाम की चिंता मत करो कि क्या होगा ? वर्तमान में जियो और अंतिम साँस तक घोर परोश्रम करो।  उसकी इसी  मेहनत एवं अटल विश्वास ने आज उसे आई -ए -एस पद पर सुशोभित कर दिया। 
शिवकुमार को लगा कि इस अर्थाभाव की घोर समस्या से कैसे छुटकारा मिले।  शिवकुमार ने अख़बार वालों से सम्पर्क साधा ; जो घर -घर अख़बार देने का कार्य करते हैं।  बात बन गयी।  शिवकुमार को कार्य मिला कि दस किलोमीटर के अंदर अख़बार बाँटे।  आई -आई -एम छात्र के लिए यह एक बड़ी चुनौती , लेकिन उसने उसे स्वीकार किया।  

शिवकुमार ने किसी तरह एक साईकिल की व्यवस्था की और उसने नित्यप्रति प्रात : चार बजे से सात  बजे के बीच दस किलोमीटर के दायरे में अखबार बाँटने का कार्य पूरा किया और शिवकुमार ने कड़ी मेहनत से एक मिसाल कायम कर दी।  अनेक बहु राष्ट्रीय कम्पनियों से अच्छा वेतन देने की स्थिति में हैं ; पर वह कहता है कि साथ-साथ ही उसके जैसे छात्रों की सहायता के लिए भी कटिबद्ध रहेगा। 
इस युग का सबसे बड़ा संकट प्रत्यक्षवाद और परिणामों की त्वरित आकांक्षा ही है।  कार्य करने से पूर्व ही मनुष्य लाभ की सोचता है और उसे पाने के लिए किसी भी सीमा तक उतरने के लिए तत्पर है।  
आदर्शों और मूल्यों का स्थान चालबाजी और कुचक्र ने ले लिया है और अधिक से अधिक मनुष्य इस अनैतिकता को ही जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य मानने लगते हैं।  
संवेदना ही लोक-कल्याण एवं आत्म-कल्याण का आधार है और इसीसे सेवा -भाव प्रस्फुटित होता है।  


अहं है -- प्रकृति और आत्मा का सम्बन्ध-सूत्र और दोनों के बीच का सम्बन्ध।  इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अहं वह झरोखा है ; जिससे आत्मा प्रकृति के सौन्दर्य को निहारती है ; जबकि का अर्थ है कि स्वयं को ही झरोखा मान लेना।  यही वह विकार है , जो व्यक्तित्त्व को ही नष्ट कर देता है।  
वास्तविक आत्मा का लक्षण है __ सकारात्मकता।  सकारात्मकता का तात्पर्य है कि किसी भी रूप

एक दूसरे पर दोषारोपण

सुख बांटने वाली एवं दुःख बंटाने जीवन की एक ही विभूति है , वह है संवेदना।  अब सब और से यही 
निष्प्राण होती जा रही है ; इसके अभाव मनुष्य स्वार्थ केन्द्रित एवं अहं केन्द्रित होता जा रहा है। 

दुनिया में  समस्याओं की  चर्चा  होती  है , एक दूसरे  पर दोषारोपण किये जाते हैं ; वस्तुत:जिस दिन मानव
के अंदर मानवीय संवेदना जग जाएगी तो उसी दिन मानव-जीवन का स्वर्ण-युग आ जायेगा।