शनिवार, 21 सितंबर 2013

इंद्र भारत का सबसे प्राचीन नायक

इंद्र भारत का सबसे प्राचीन नायक 

इंद्र भारत का सबसे प्राचीन नायक है। ( लगभग 600 ईसा पूर्व) वह एक वास्तविक व्यक्ति था, जिसके नेतृत्व में देवों ने असुरों के कठोर साम्राज्य से छुटकारा पाया था। उस महान पुरुष को स्मरण करने के लिए देवों ने अपने नेता को इंद्र की पदवी से पुकारना प्रारम्भ किया और इसी प्रकार उसके वीर साथियों के वंश चले। ऋग्वेद का अधिकांश भाग , विशेषत: प्राचीन भाग , उसके गुण-गान से भरा पड़ा है। विशेष बात यह है कि वेद में इंद्र की पूजा नहीं है। अपितु प्रार्थना है कि इंद्र और अन्य देव आकर हमारी सहायता करें या हम भी इंद्र के समान कार्य करें। देवलोक से इधर -उधर फैलने पर शत्रु -असभ्य-संसार में देवों के छोटे-छोटे दल या तो स्वयं इन्द्र के समान पराक्रम कर अन्य कुलों पर विजय प्राप्त करते थे या प्रतिकूल परिस्थिति में अपने प्राचीन सुदृढ़ राज्य से सहायता की मांग करते थे। सैकड़ों- सहस्रों वर्ष बीत जाने पर समतल पर उतर आए तथा वैदिक सूक्त उनके वंशजों में प्राण-संचार करते रहे। ऋग्वेद में समय-समय पर ऋषियों द्वारा कहे गये सूक्त एकत्रित हैं। समस्त विद्वान् मानते हैं कि कुछ उनमें बहुत पुराने हैं , कुछ बीच के समय के हैं। सरस्वती के सूखने पर ऋषियों के आश्रम उजड़ गये और सूक्तों की धारा इधर-उधर बहने के बाद अस्तव्यस्त हो गयी। तभी 1450 ई० पू० में वेदव्यास ने उन्हें एकत्रित किया।

इंद्र के विषय में वेद मुखर हैं , पुराण मुखर हैं तथा महाकाव्य भी घटनाएँ अनेक हैं , परन्तु इंद्र भी अनेक हैं। उनमें से इंद्र के विषय में जानकारी ली जा सकती है। इंद्र के पिता का नाम द्यौस था। देवगण उसका आदर करते थे। परन्तु सबसे अधिक आदर भृगु का किया जाता था। वह महान कवि था , सूक्त रचता था और उसने अग्नि को खोज निकाला था। असुर उस समय बहुत बलवान थे। उन्होंने अनेक राज्य बना लिए थे। देवगण चरवाहे थे। गाय के झुण्ड और रखवाली के कुत्तों के साथ इधर-उधर घूमते फिरते थे। द्यौस के साथ के देवगण को वृत्रासुर ने अपनी राजधानी के पास बसने की अनुमति दे दी थी। वृत्रासुर भृगु से प्रभावित था और भृगु असुरों की राज्य-शैली से अत्यधिक प्रभावित था। असुरों के साथ रहने से जहाँ देवों को लाभ था, वहां हानि भी थी असुर देवों से काम लेते थे और उन पर तथा विशेषकर स्त्रियों पर अत्याचार करते थे। वृद्ध देव अपनी पुरानी चरागाह अवस्था की कठिनाइयों से परिचित थे और असुरों की कृषि-व्यवस्था सीखना चाहते थे, इसलिए कुछ नहीं बोलते थे, लेकिन देवों का खून खौल रहा था। द्यौस का पुत्र उनका नेता था। वह सात हाथ लम्बा था, उसके केश पिंगल-वर्ण थे, नेत्र नीले एवं रंग बिलकुल श्वेत था।

प्राचीन काल से ही देव दिन भर आखेट करके और जब खेती करके रात्रि में मिलकर बैठते थे। भोजन मिल बाँट कर खाते थे, सोम पीते थे , गाने गाते थे और एक-दूसरे की नकल उतारते थे। इस सभा को वे ब्रह्म-गोष्ठी कहते थे। एक दिन ब्रह्म-गोष्ठी में इंद्र ने असुरों से लड़ने का प्रस्ताव रखा, उसके युवक साथियों ने चिल्लाकर इंद्र का अनुमोदन किया। इस पर द्यौस बहुत बिगड़ा। वह पुत्र को मारने लपका पर द्वंद्व में स्वयं मारा गया पल भर को ब्रह्म-सभा स्तब्ध रह गयी, लेकिन इंद्र के साथियों के कहने पर ब्रह्म-सभा ने इंद्र को अपना नेता चुन लिया और असुरों से लड़ने की ठान ली। इस पर भृगु बहुत क्रोधित हुवा और असुरों का गुरु बन गया। इंद्र का साथी अंगीरा था, जो बड़ा मेधावी था और असुरों में रहकर कृषि-कर्म सीखता था। उस दिन ब्रह्म-सभा में अंगिरा ने स्वयं-रचित सूक्त सुनाये और उसे देव-कुल-गुरु बनाया गया। ब्रह्म-सभा में निश्चय किया गया कि सबसे पहले सोम इंद्र को दिया जाएगा, बाद में अन्य सभी को इंद्र की पत्नी असुर पुलोमा की पुत्री शची थी , सम्भवत: यह संसार का प्रथम प्रेम-विवाह था। उसे इन्द्राणी का पद दिया गया। इंद्र का पश्चिम सुमेरु (पामीर) में मेघवत गिरी पर अभिषेक हुवा था।
अग्नि उत्पन्न करना भृगु जानता था, उसके असुरों में चले जाने पर देव बहुत घबराए। रात को समवेत हो अग्नि जलाकर भोजन भून कर वे खाते थे। अंगिरा प्रयोग करता रहा, एक सूखे ठूँठ शमी वृक्ष की डाल को तने से रगड़ कर वह अग्नि जलाने में सफल हुवा। इंद्र बहुत बुद्धिमान था। असुरों के विरुद्ध उसने क्षीरसागर (CASPIAN SEA) के तट पर रहने वाले शेषनाग-कुल से मित्रता की तथा इसके लिए अपने साथी अत्रि को भेजा। दूसरी और नारद को , जो घुमक्कड़ था और कई कुलों की बोली जानता था, दक्षिण-पूर्व निचले हिमालय में गन्धर्वों को मित्र बनाने भेजा।
असुर और देव एक ही प्रजाति के थे, इसे आर्य कहा जा सकता है। जिसमें आगे चलकर ऐतिहासिक काल में शक, कुषाण और हूण भी थे। ये सब एक ही प्रजाति थी , मध्य- एशिया में घुमक्कड़ी का जीवन व्यतीत करती थीं। नीचे की पुरानी नाग,गरुड़,गन्धर्व आदि सभ्यताओं के सम्पर्क में आने पर इनमें सभ्यता के बीज पनपे। ये अधिक प्राणवंत थे , सभ्यता धीरे-धीरे प्राणी को आलसी और दुर्बल बना देती है। अत: नाग,गरुड़ आदि इनके सामने न टिक सके। इंद्र ने कूटनीति से काम लेकर शत्रु के शत्रु को अपना मित्र बनाया। पणियों ने देवों की गायों का रेवड़ रात्रि में चुराकर एक पर्वत-गुहा में छिपा दिया था। सरमा ने इस घटना को देखा था। उसको साथ लेकर इंद्र ने पणियों की गुहा खोजी और गायों का उद्धार किया। असुरों ने अत्रि को शत्द्वार यंत्र में फंसा लिया था। तब इंद्र ने चुपके से जाकर उसे भागने की राह बताई। इन्द्र को सोम पीने का प्याला त्वष्टा ने बनाकर दिया था, जिसने बढ़ई का काम सीखा था। त्वष्टा सरण्यु का पिता था, सरण्यु का पिता विवस्वन्त था और उसके जुड़वाँ बच्चे यम और यमी थे। इन्द्र ने देवों को अश्व पर चढ़ना सिखाया वृत्र ने देवों का पानी बंद कर दिया। युद्ध हुवा , और देव हार कर कन्दराओं में जाकर छिप गये। इन्द्र ने छापा मार कर वृत्र के सेनानायक कुवय को मार डाला। वृत्र ने भयंकर युद्ध किया और देवों का लगातार पीछा किया।
उसी समय भृगु का पुत्र दधीचि जो महादेव का भक्त हो गया था और शर्ष्णावत सरोवर के तट पर जिसने भीषण तप किया था,वह तपस्या से वापिस लौटा। उसने बताया कि ब्रह्मा,विष्णु और महादेव एक ही हैं। देव जाति के कल्याण के लिए उसने योग द्वारा प्राण त्याग दिए। उसकी तप:पूत हड्डियों से वज्र नामक अस्त्र का निर्माण किया गया। उसे देखते ही देवों में भयंकर उत्साह भर जाता था और वे मरने-मारने को उतारू हो जाते थे। इंद्र और वृत्र की नदी के तट पर अंतिम मुठभेड़ हुयी। इंद्र ने वज्र से वृत्र और उसकी माता दनु का वध कर दिया। आधे असुर पश्चिम की ओर भाग गये और शेष दक्षिण-पश्चिम ईरान में चले गये। इंद्र का सबसे महान कार्य यह था कि उसनें देवों का नेता पद वंशागत नहीं रखा उसने पुत्र को अधिकारी नहीं माना , लेकिन ब्रह्म-सभा से कहा कि वह नया नेता चुने। नेता ऐसा हो जो सौ यज्ञों का कर्त्ता हो, अनुपम बलशाली हो, वीर हो एवं धैर्यवान हो। शची ने उसका समर्थन किया ब्रह्मसभा गदगद हो गयी। सभा ने निश्चय किया कि कि हर नये नेता को इंद्र पुकारा जाए और उसकी पत्नी को शची जिससे वे सर्वदा को अमर हो जाएँ।
अंगिरा ने अपने पुत्र बृहस्पति भृगु के घर भेजा था। और भृगु ने बड़े प्रेम से अपना समस्त ज्ञान उसे दिया था। उसे दोनों महान ऋषियों का ज्ञान प्राप्त था और वह स्वयं तेजस्वी मन्त्र-द्रष्टा था। देव-कुल -गुरु वह पिता अंगिरा की मृत्यु के बाद बना था। अंगिरा के अन्य पुत्र आंगिरस कहलाये। लेकिन देवकुल -गुरु का पद बृहस्पति के कुल में ही चला। ऋषियों के कुल में जो नया मन्त्र-द्रष्टा होता था , वह वंशकार ऋषि कहलाता था और उसकी सन्तति बृहस्पति नाम से ही प्रसिद्ध होती थी। जैसे कई पीढ़ियों बाद बृहस्पति कुल में गर्ग उत्पन्न ऋषि हुवा। वह वंशकार ऋषि हुवा और उससे गर्ग कुल चला। गर्ग कुल में आगे जाकर भारद्वाज हुवा , जिससे भारद्वाज कुल चला।
केवल इंद्र ने अपना पद चुनाव का रखा, शेष सब साथियों उनकी सन्तति के कुल चले -- बृहस्पति, नारद, अत्रि, अग्नि आदि। इंद्र पद का नाम हो गया था, वह इससे भी पता चलता है कि हिरण्यकशिपू, प्रह्लाद और बलि असुरराज को कुछ दिन के लिए इंद्र बनाया गया है। अन्य इन्द्रों के नाम भी पुराण में मिलते हैं। वैवस्वत मनु के समय के इंद्र का नाम ऊर्जस्वी था, ध्रुव के भाई उत्तम के समय सुशान्ति, तमस के समय शिखी , रैवत के समय विभु,चाक्षुष मनु के समय मनोजव, सवर्णी मनु के समय अद्भुत, रूचि के समय देवसपति। इंद्र का अनाचार देखकर असुर सम्राट बलि ने उसे प्राचीन परम्परा याद दिलाई थी। उसने पुराने नाम गिनाये थे।*****



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