बुधवार, 18 सितंबर 2013

नग्नता रियलिटी के नाम पर

आर्य का अर्थ सर्वदा गतिमान आत्म तत्त्व 


हमारा वर्तमान अस्त-व्यस्त और असंतुलित है। सामाजिक सामंजस्य भंग हो गया है। आधुनिकता के नाम पर शाश्वत मूल्य तोड़े जा रहे हैं। परिवार टूटते जा रहे हैं। स्वच्छन्दता और निरंकुशता को प्रगतिशीलता के नाम पर बढ़ावा मिल रहा है। जीवन की विविधरूपता केवल दो बिंदु पर सिमट गयी है _ एक रोटी और दूसरी नारी अर्थात जीवन का दृष्टिकोण नितांत भोगपरक है। भोग की तीव्रता ने सारी समझ और विवेक को इन्द्रियों की तृप्ति में लगा दिया है। जीवन-उन्नति तथा शांति के लिए अनिवार्य मूल्य मात्र सिद्धांतों में रह गये हैं। जिंदगी जिन आदर्शों से संचालित है _ वे पशु-आदर्श हैं अविश्वास और स्वार्थ-परता युग-धर्म बन गये हैं। पिता-पुत्र , पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, व्यक्ति-समाज इन सबके मध्य घृणा और असंतोष की खायी गहरी होती जा रही है। वैयक्तिक जीवन का बिखराव समाज और राजनीति पर हावी है। प्रत्येक क्षेत्र में तोड़-फोड़ और अराजकता क्रांति के नाम से चल रही है।


संसार का प्रत्येक राष्ट्र सांस्कृतिक स्तर से गिर रहा है। ऐन्द्रिक उत्तेजना की पशु-वृत्ति व्यापक होकर नैतिकता और आदर्शों की नवीन कुत्सित व्याख्या प्रस्तुत कर रही है। फ्री-सेक्स की मांग से नई पीढ़ी में विवाह के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी है। समलैंगिक मैथुन को क़ानूनी अनुमति दी जा रही है। राज्य गर्भपात और भ्रूण-हत्या का समर्थन कर रहे हैं। मद्यपान को शिष्टता का लक्षण मान लिया गया है। तो दूसरी ओर नशीले पदार्थ अति लोकप्रिय हो रहे हैं। अश्लीलता कला का मुखौटा पहने घूम रही है। नग्नता रियलिटी के नाम पर परोसी जा रही है। राजनीतिज्ञ और धार्मिक नेता सभी इस पतन को देख रहे हैं। राजनेताओं ने तो परिस्थिति से प्रगति के नाम पर समझौता कर लिया है। और धार्मिक नेता कलिकाल का आवश्यक प्रभाव मानकर चुप हैं।

वस्तुत: इस सबका कारण आध्यात्मिक अज्ञान ही है। आत्म-विस्मृति के कारण ही जीवन का यह दृष्टिकोण सृजित हुवा है। आत्म-विस्मृति और आत्म-स्मृति को एक कथानक के माध्यम से समझा जा सकता है। प्रजापति के पास इंद्र और विरोचन अनश्वरता का ज्ञान प्राप्त करने गये। इंद्र देवों के प्रतिनिधि थे और विरोचन असुरों का प्रजापति ने दोनों को अमृत-विद्या का उपदेश दिया। उपदेश मौखिक नहीं अपितु प्रायोगिक था। दोनों को जल के किनारे खड़ा कर दिया गया। प्रजापति ने कहा _ ' जल में झाँक कर देखो जो दिखलाई देता है , वह पुरुष है। यह पुरुष अव्यय है , अमर है। जो इसको जान लेता है , वह अमृत हो जाता है। ' विरोचन ने जल में झाँक के देखा तो उसे अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई दिया। वह हिला तो बिम्ब भी हिला। उसने पुष्पहार धारण क्या तो बिम्ब ने भी किया। इस प्रयोग से विरोचन ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह द्रष्टव्य सत्ता ही पुरुष है और अमृत है। अस्तु इसी की पूजा और उपासना होनी चाहिए। विरोचन प्रजापति के उपदेश से संतुष्ट होकर असुर-लोक चला गया। उसने असुरों को उपदेश दिया कि यह दिखाई पड़ने वाला शरीर ही सत्य है और इसकी पुष्टि-तुष्टि ही परम धर्म है। इस शरीर से भिन्न और कोई पुरुष तत्त्व नहीं है। इस प्रकार असुर विरोचन ने भोग-मार्ग की स्थापना की। इस मार्ग के आचार्य चार्वाक ने काम को परम पुरुषार्थ कहा और ऐन्द्रिक सुख को जीवन की सार्थकता। उसने कहा _ ' यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत , भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:' अर्थात खाओ , पीओ और मौज करो, चाहे कर्जा करके घी पीओ। शरीर के भस्म हो जाने पर कौन आता है और कौन जाता है ?

इंद्र ने भी अपना प्रतिबिम्ब जल में देखा पुष्पहार धारण करके फिर देखा_ ' ओह मेरे माला धारण करने पर इस प्रतिबिम्ब पुरुष ने भी माला धारण कर ली। ' उसने माला उतार कर फिर देखा तो प्रतिबिम्ब पुरुष का भी माला से रहित पाया। इंद्र कुछ क्षण रुके और सोचा। एक विचार उत्पन्न हुवा। ' जो बदलने वाला है , परिवर्तन धर्मा है , वह अनश्वर कैसे हो सकता है ? ' इंद्र प्रजापति के पास गये अपनी शंका निवेदित की पर उपदेश की प्रार्थना की। प्रजापति इंद्र की पात्रता से प्रसन्न हुवे और अमृत-विद्या का उपदेश दिया। देवराज विद्या लेकर देव-लोक चले गये। उन्होंने देवताओं को बतलाया कि बदलने वाला यह शरीर मरण-धर्मा है। इस शरीर में जो पुरुष है , वही देखता , सुनता और करता है पर स्वयं नहीं दिखाई नहीं पड़ता , वह ही अमृत है। अत: देहासक्ति से हटकर उस परम तत्त्व को शाश्वत और सत्य मानो देवताओं ने इन्द्रियों के भोगवाही मार्ग को छोड़कर ज्ञान का सूक्ष्म मार्ग ग्रहण किया। स्थूल शरीर और उसके क्षणिक सम्बन्ध वाचक व्यक्तित्व को महत्त्व प्रदान न करके व्यापक आत्मतत्त्व को व्यवहार का आधार बनाया। इस उदात्त दिव्यता ने देवों को अजर अमर और अपराजेय बना दिया। दूसरी ओर आत्म-विस्मृति होने के कारण असुर सर्वदा पराजित होते रहे और दुःख पाते रहे।

आज की मानवता को आत्म-विस्मृति का महारोग है, इस रोग का कारण अज्ञान है। असत्य को सत्य समझ कर धारण कर लिया गया , जिसका प्रभाव चिंतन और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ा। अंतत: शांति और
आनंद इस अंधकार में खो गये। प्रतिपल जीवन उलझता चला गया। सत्य के ग्रहण और असत्य-त्याग का साहस समाप्त हो गया किन्तु सत्य की मांग मानव-चैतन्य की मांग है। इसको दबाया जा सकता है , किन्त्तु नष्ट नहीं किया जा सकता। सत्य एक है, सबके लिए एक जैसा। सत्य को प्रतिष्ठित करने वाले महापुरुषों को उनके जीवन काल में कभी स्वीकृति नहीं प्रदान नहीं की गयी। स्वीकृति तो दूर की बात है , लोगों ने उन महापुरुषों को जीने नहीं दिया। सत्य का अवतरण करने के अपराध में सुकरात को विष पीना पड़ा और गैलीलियो को दंडित किया गया। हमारे अपने देश में सत्य के प्रकाश को लाने वाले युग-पुरुष दयानन्द को कौन से ऐसे कष्ट नहीं दिए गये , अंत में उस सत्य के अवतारक को भी विष ही पीना पड़ा। अहिंसा के मूर्तिमान स्वरूप महात्मा गाँधी को गोली खानी पड़ी यद्यपि समाज सत्य के लाने वालों की बलि लेता रहा है, फिर भी सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति नष्ट नहीं हो सकी। मानव-चेतना का सत्य में रूपांतरण जीवन की अनिवार्यता है। जब तक पूर्ण सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती पीड़ा का यह चक्र चलता रहेगा।

आनंद की उपलब्धि का साधन हमारे पास है , केवल मनोयोग से काम लेने की आवश्यकता है। आत्म-ज्ञान एवं आत्म-स्मृति के साथ यदि कर्म क्या जाएगा तो आनन्द का मार्ग प्राप्त होगा। महर्षि दयानन्द ने मानवता के सत्य स्वरूप का बोध कराते हुवे सभी को आर्य स्वीकार किया। आर्य का अर्थ परमात्मा का पुत्र, सद्गुणों का प्रयोक्ता और सज्जन पुरुष है। आर्य का अर्थ सर्वदा गतिमान आत्म तत्त्व है आर्य बन कर किया गया चिंतन और कर्म सत्य से युक्त होगा। अत: आर्य बनो और सभी को आर्य बनाओ _ ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' 



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