रविवार, 22 सितंबर 2013

थिंक एंड ग्रो रिच अथवा एडाप्ट पोजिटिव टुडे

स्व-संकेत व्यक्ति को उच्च आदर्श-भूमि पर स्थापित कर देता है 


प्रतिभा का आशय सदैव आदर्शोन्मुख बुद्धि व भावना के समन्वित विकास से लिया जाना चाहिए। वस्तुत: स्व-संकेतों में ही मानसिक कायाकल्प का मर्म छिपा पड़ा है। श्रुति की मान्यता है कि जो जैसा सोचता है और अपने संबंध में भावना करता है , वह वैसा ही बन जाता है। विधेयात्मक चिंतन, महापुरुषों के गुण अपने अंदर समावेश होने की भावना से,सजातीय विचार खिंचते चले आते हैं एवं वांछित विद्युत्-प्रवाहों को जन्म देने लगते हैं। एक प्रकार से स्व-संकेतों द्वारा अपने आभा-मंडल को एक सशक्त चुम्बक में परिणत किया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं-- " थिंक एंड ग्रो रिच" अथवा " एडाप्ट पोजिटिव टुडे " , आशय यह है कि विधेयात्मक सोचिए एवं अभी इसी क्षण सोचिए, ताकि आप स्वयं को श्रेष्ठ बना सकें। सारे महामानव स्व-संकेतों से ही महान बनें हैं। गांधीजी ने हरिश्चंद्र के नाटक को देखकर स्वयं को संकेत दिया कि सत्य के प्रयोगों को जीवन में उतारो तथा उसके परिणाम देखो। उनकी प्रगति में इस चिन्तन की महान भूमिका थी , यह सभी जानते हैं।

हमें दूसरों के विचारों से प्रभावित न होकर स्वयं अपने ही विचारों से अपने भविष्य का निर्माण करना चाहिए। अपने आप को समझाना सबसे आवश्यक है। आत्म-प्रेरणा के अनुसार चलकर ही हम विश्वास और साहस प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य अपना निर्माणकर्त्ता स्वयं है। आत्मावलंबन की भावना को बढ़ाने का प्रयास करते रहने से जीवन में नया उत्साह और आनन्द प्राप्त होता रहता है। इसमें विपत्तियों को सहन करने की सामर्थ्य और बल भी मिलता है। हमें अपने अंतर्जगत को सब तरह से प्रकाशित करना चाहिए। जीवन की यथार्थता हमारे विचारों पर निर्भर है। दूसरों से प्राप्त संकेत हमारे मन पर स्थायी प्रभाव नहीं डालते , परन्तु बार-बार मिलने वाले स्व-संकेत ग्रन्थि का रूप ले लेते हैं। स्वयं का अध्ययन करके मन:क्षेत्र की दुर्बलताओं को निकालना और उच्च आदर्शों का बीजारोपण करते रहना लाभप्रद होता है। आकांक्षाओं को जिस ओर बढ़ाना हो , उसके लिए स्व-संकेत निर्मित कर अपनी आत्मा और शक्तियों को उस ओर चलने का आदेश देते रहें। अपने साथ मित्रवत व्यवहार करते हुवे सद्गुणों के निर्माण में लगे रहें।

हमारे मन के दो स्वरूप हैं-- एक चेतन और दूसरा अचेतन। मन की शक्ति इन दोनों पर निर्भर है। चेतन हमारी बौद्धिक प्रगतिशीलता पर निभर है। जो कार्य हम नित्यप्रति सोच-समझकर करते हैं, वे चेतन मन द्वारा सम्पन्न होते हैं। यह मन हमारी जाग्रत अवस्था पर आश्रित है। अचेतन मन हमारी चेतना का दास नहीं है। वह सर्वथा उन्मुक्त और स्वाधीन है बिना चेतना की आज्ञा तथा आदेश के वह जो चाहे कर सकता है। मन का यह भाग हमारे अधिकार में नहीं है। कभी-कभी इसके कार्य हमारी इच्छा के विपरीत होते हैं। यह सोते-जागते प्रत्येक अवस्था में क्रियाशील रहता है। न चुपचाप बैठता है , न थकता है और हमें निर्देश देता है कि तुम अपना कार्य करो, हमें अपना कार्य करने दो। हमारी प्रेरणाएँ यहीं से उत्पन्न होती हैं। अचेतन मन हमारी मूल प्रवृत्तियों और अनुभवों से जुड़ा है.

संकेतों का प्रभाव हमारे अचेतन मन पर , जहाँ मानसिक ग्रन्थियों का जाल बिछा रहता है। वास्तव में अचेतन मन ही हमारी शक्ति का भंडार है। इसमें समायी गुत्थियों को जड़ से काटना और नवीन उत्साह प्रदान करने वाली उत्कृष्ट ग्रन्थियों का निर्माण करना ही संकेतों का कार्य है। संकेतों द्वारा विपरीत ग्रन्थियों को सहज ही हटाया जा सकता है। तत्पश्चात नवीन ग्रन्थियों का इच्छानुसार बीजारोपण किया जा सकता है। बुरे वातावरण, कठोर व्यवहार एवं परिस्थितियों के कारण हमारे अचेतन मन का निर्माण उचित रीति से नहीं हो पाता। हम उसमें तुच्छता , नीचता या दीनता की ग्रन्थियां अनजाने में ही बना डालते हैं। जब माँ अपने पुत्र को कहती है, " तू कपूत है , तेरा भाग्य खराब है, तुझे संसार में कोई भी नहीं न पूछेगा।" तो ये विचार अचेतन मन के गहरे भाग में उतर जाते हैं और वहां उनकी ग्रन्थि बन जाती है।


चर्म-चक्षुओं को मूंदकर अंतरपट को खोलना चाहिए। हम अपनी अंतरात्मा का निरीक्षण करें और देखें कि वहां कौन-कौन से असत विचार , दुर्बल मन्तव्य, निर्बल कल्पनाओं की घास-फूस उग आई है। कौन -कौन सी चिंताएं हमें उद्विग्न कर रहीं हैं। कौन सी स्मृति हमें शूल की तरह चुभ रही है। हजारों भ्रांतियां भय, संशय आदि इस प्रदेश में मिलेंगे। यह हमारी आत्म-शक्ति का क्षय करते हैं। स्व-संकेतों का आधार हमारी श्रद्धा है। इन पर हमारा जितना विश्वास होगा, उतनी ही तीव्रता से कार्य करेंगे। अपनी शक्तियों में अविश्वास करना विषपान करना है। श्रद्धा हमारी शक्तियों की प्राण है। वह हमारे अणु-अणु को नवजीवन प्रदान करती है। बिना आत्मश्रद्धा के ज्ञान विफल है, क्रिया-शक्ति रहित है, संकल्प निर्जीव है और मनुष्य क्षुद्र प्राणी है। सर्वप्रथम छोटे- छोटे संकल्प लेकर सफलता प्राप्त कर आत्म श्रद्धा को बढ़ने का अवसर देना चाहिए। इसके बाद कार्यों को बढ़ाते जायिए। ऐसा करने से आत्मविश्वास में पर्याप्त अभिवृद्धि हो जाएगी। ज्यों-ज्यों हमारी आत्मश्रद्धा बढ़ेगी , ईश्वरीय सत्ता से हमारा सम्बन्ध स्थापित होता जाएगा। पहली बार ही हमें कोई भी दुष्कर कार्य नहीं ले लेना चाहिए , जो हमारी पहुंच के बाहर हो। ऐसा करने से कई दिन का एकत्रित आत्मविश्वास नष्ट हो जाएगा।

अभ्यास के प्रारम्भ में एक ऐसे कमरे का चयन करना चाहिए , जहाँ एकांत हो। सामने एक बड़ा दर्पण रख लें। उसमें अपनी आकृति को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए। ऐसा अनुभव करें कि हमारे नेत्रों से तीव्र प्रकाश झलक रहा है। हमारे चेहरे से सफल पुरुषों जैसा आत्मप्रकाश आ रहा है। सफलता की आधारशिला यही है कि हम इन संकेतों पर पूर्ण विश्वास कर लें। यदि हम इनपर थोड़ा भी संशय करेंगे तो हमारी मनोवान्छ्नाएं अंदर ही अंदर घुट कर मर जाएँगी। हम ऐसा अनुभव करें कि मैं एक दिन महामानव बनकर ही रहूँगा। मेरी उन्नति का मार्ग खुल गया है। संसार की समस्त शक्तियाँ मेरी रक्षा कर रहीं हैं। मुझे सच्चा ज्ञान प्राप्त हो रहा है। मैं अपनी शक्ति का अनुभव करता हूँ। सत्य का का उपदेश देने वाला , सीधा-सरल रास्ता दिखाने वाला सच्चा गुरु मेरी अंतरात्मा है। मैं विपत्तियों का प्रसन्नता से स्वागत करता हूँ। मैं शांत वातावरण में स्थिर शरीर से एकाग्र मन से बैठा हूँ। मेरे मस्तिष्क से प्राण-विद्युत् शरीर के अंग-अवयवों में अधिक मात्र में प्रवाहित हो रहा है। प्राण-विद्युत् शिथिलता को दूर कर रही है और उसका स्थान सक्रियता लेती जा रही है। मेरा शरीर सक्रिय होता जा रहा है।

मैं सदा सकारात्मक विचार करता एवं रखता हूँ। महापुरुषों के गुणों को ग्रहण करता हूँ। मेरे महान विचार सजातीय विचारों को अपनी ओर खींचते हैं। मैं संसार का सबसे श्रेष्ठ प्राणी हूँ। मेरी बुद्धि विकसित है। मन-तन स्वस्थ और अंत:करण पवित्र है। मेरी प्रगति निश्चित है। मुझे प्रत्येक कार्य में सफलता मिलती है। फलत: इस प्रकार की विचारणा से शुद्ध संकेत आने लगते हैं। एक रूप से यह प्रार्थना की ही भाषा है। हर प्रार्थना हम में शुभ-संकेत छोड़ती है और यह ही प्रार्थना का मन्तव्य भी है। स्व-संकेत व्यक्ति को उच्च आदर्श-भूमि पर स्थापित कर देता है।&&&&&&&&&

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