शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

धार्मिक रीति-रिवाज धर्म नहीं हो सकते

 यथार्थ में स्वर्ग-सुख इन्द्रियों का सुख नहीं 


जिस प्रकार पाप कर्मों का फल नरक है, उसी प्रकार शुभ कर्मों का फल स्वर्ग है पाप क्या है और पुण्य क्या है ? यह एक रहस्यपूर्ण प्रश्न है। पर सार रूप में इतना समझ लेना चाहिए कि प्रेम तथा हार्दिक पवित्रता के साथ किए हुवे पुण्य एवं स्वार्थ पाखंड के साथ किए हुवे कार्य पाप हैं। ' परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम ' अर्थात पुण्य के लिए परोपकार तथा पर- पीड़ा से पाप प्राप्त होता है। पुण्य कर्मों से तत्क्षण आत्मा में एक शांति प्राप्त होती है, उसके विरुद्ध पाप कर्मों में एक जलन उठती है। धार्मिक कर्मकांड मन की पवित्रता में कुछ सहायता दे सकते हैं , पर वे स्वयं कोई धर्म नहीं हैं। शंख बजाने या घंटी टन-ट्नाने से कुछ धर्म नहीं होता , इससे मनोभूमि को पवित्र करने में कुछ सहायता मिलती है। यदि किसी का मन ऐसा दुष्ट हो कि उसके अंदर दुर्भावनाएं ही उठती रहें तो कोई भी कर्मकांड उसे स्वर्ग नहीं पहुंचा सकता। सांप्रदायिक लोग अज्ञान के कारण कर्म -कांडों को ही स्वर्ग का साधन समझते है। यथार्थ में यह बहुत ही तुच्छ साधनमात्र है। धार्मिक रीति-रिवाज धर्म नहीं हो सकते

दया, प्रेम , उदारता, सत्यपरायणता धर्म के अंग हैं। आत्मा को संतोष देने वाली आंतरिक सद- वृत्तियाँ हीं पुण्य कही जा सकती हैं। उनके द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त होना सम्भव है। अंध-विश्वासों में पड़े रहना अँधेरे में भटकने के बराबर है। जैसे जीवन में अन्य अनेक निष्प्रयोजन कार्यों में अपना समय नष्ट करते हैं , वैसे ही कितनी धार्मिक परम्पराएँ भी ऐसी ही हैं। जिनमें बिलकुल व्यर्थ समय बर्बाद होता है और उनसे परलोक का रत्ती भर भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

शुभ कार्यों से आंतरिक प्रसन्नता होती है, यह प्रसन्नता परलोक में स्वर्ग के रूप में उसी प्रकार प्रस्फुटित होती है , जैसे पाप कर्म नरक के रूप में। नरक के विषय में जैसी हमारी कल्पना होती है , वे प्राय: वैसी ही उससे मिलती-जुलती दिखाई देती ही उसी प्रकार स्वर्ग की कल्पना भी सत्य है। धर्मात्मा हिन्दू को वैकुण्ठ एवं इन्द्र लोक का सुख मिले और उसी प्रकार मुस्लमान को भी सुकर्मों से गिल्माओं वाली जन्नत मिले तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है , क्योंकि स्वर्ग -नरक हमारे आज के दृष्टिकोण के अनुसार कल्पना मात्र हैं , चाहें उस समय कल्पना सत्य ही प्रतीत होती हों। स्वर्ग-सुख भी नियत समय तक ही रहता है। स्वर्ग का आनन्द मिलने का उद्देश्य यह है कि उसकी आत्मिक योग्यता अधिक चैतन्य और उत्साहित होकर आगामी जीवन में अधिक सूक्ष्म बन जाए। स्वर्ग-सुख के अधिकारी जो व्यक्ति होते हैं , उनकी तुच्छ इन्द्रिय-लिप्साएं पहले ही शांत हो जाती हैं, इसलिए जैसा कि अज्ञानी समझते हैं , स्वर्ग-लोक इन्द्रिय वासनाएँ तृप्त करने की सामग्री से ही भरपूर है , वैसा ही नहीं होता।

 इन्द्रियों के गुलाम और वासनाओं के कीड़े स्वर्ग-सुख से बहुत दूर रहते हैं। मद्यपान , वेश्यागमन , मैथुन आदि का नाम ही यदि स्वर्ग में हो तो ऐसे स्वर्ग के लिए इतना तप करने की कुछ आवश्यकता नहीं, वह कुछ पैसा खर्च करके जहाँ भी चाहें जब प्राप्त किया जा सकता है। यथार्थ में स्वर्ग-सुख इन्द्रियों का सुख नहीं , अपितु अंत:करण चतुष्टय _ मन ,बुद्धि, चित्त एवं अहंकार का आनन्द है यह इन्द्रीय -सुख की अपेक्षा उच्च कोटि का है।

अध्यात्म तत्त्व के जिज्ञासु जानते होंगे कि आत्मा नें अनंत शक्ति है। ईश्वर का अंश किसी प्रकार अशक्त नहीं है। वह इच्छा मात्र से ही स्वर्ग-नरक की रचना कर लेता है , इसमें आश्चर्य और अविश्वास की कुछ बात नहीं है। ईश्वर ने इच्छा की कि " एको अहं बहुस्याम " मैं एक हूँ , बहुत हो जाऊं , तभी वह पल भर में ही एक दृश्य जगत के रूप में प्रकट हो गया। आत्मा इच्छानुसार जाग्रत अवस्था , स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था की रचना करता है। जन्म-मरण को स्वर्ग बनाता है , उसी प्रकार स्वर्ग नरक का निर्माण कर लेता है, इच्छा से बंधन में बंधता है और इच्छा से मुक्त हो जाता है , ये सब बातें उनकी निजी शक्ति के अंतर्गत हैं।********



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