रविवार, 29 सितंबर 2013

चरित्र आचरण का ही नाम

एकाग्रता और अनासक्ति -- दोनों ही शक्तियों का एक साथ विकास करना होगा  


चरित्र बहुत कुछ आचरण का ही नाम है। हम जैसे हैं , वैसा ही आचरण करते हैं। यदि हम अच्छे नहीं हैं , तो कभी अच्छा आचरण नहीं कर सकते। हम स्वयं ही अच्छे कैसे बन सकते हैं ? प्रयास के साथ विहित या नैतिक आचरण के अभ्यास के द्वारा यह सम्भव है। विहित आचरण क्या है ? इसे अपने मन के आवेगों द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता , अपितु इसे शास्त्रों से जान लेना होगा। नैतिक या विहित आचार के बारे में ' आपस्तम्ब धर्म -सूत्र' का निर्देश है--- क्रोध, हर्ष, लोभ, भ्रम, अहंकार, तथा शत्रुता का आभाव, सत्य बोलना, आहार का संयम, दूसरों के दोषों को प्रकट न करना , ईर्ष्या से मुक्ति, अच्छी चीजों में दूसरों के साथ सहभागिता, यज्ञ , सरलता, सौम्यता, शांति, आत्मसंयम, सभी जीवों के प्रति मैत्री, क्रूरता का आभाव, संतोष--- ये मानव- जीवन की सभी अवस्थाओं के लिए विहित विचार हैं। इनका ठीक-ठीक पालन करने से मनुष्य सार्वभौमिक रूप में कल्याणकारी हो जाता है।



जीवन के चार महा-पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। मनुष्य के मनोभाव को हमें इस प्रकार प्रशिक्षित करना होगा कि उसमें धर्म के द्वारा काम तथा अर्थ की उपलब्धि हो और क्रमश: वह मोक्ष को ही धर्म एवं जीवन का उद्देश्य समझने लगे। चरित्र आत्मसंयम की एक ऐसी अर्जित गति है, जो स्वप्रयास के द्वारा ही अपने भीतर आरम्भ होती है। सत्य-असत्य के सहज विचार , असत्य का त्याग और सत्य के प्रति दृढ लगाव के रूप में एक अथक परन्तु सुनियोजित संघर्ष के द्वारा यह प्रक्रिया भीतर चलती रहती है। एकाग्रता और अनासक्ति -- दोनों ही शक्तियों का एक साथ विकास करना होगा। इच्छा-शक्ति का विकास ही सभी महत्त्वपूर्ण उद्यमों में सफलता का रहस्य है। अपने कर्त्तव्यों के प्रति प्रेम के द्वारा हम इस इच्छा -शक्ति का विकास कर सकते हैं। वस्तुत: सदाचार में सद्य: प्रस्फुटित पुष्प की-सी एक मृदु सुगंध होती है। यह उस व्यक्ति के अंतर से सहज ही उठती रहती है, जिसने बिना किसी बाह्य दबाव के , स्वयं ही अपने चुने हुवे जीवन-मूल्यों से प्रेरित होकर प्रयासपूर्वक अपने को विकसित कर लिया है।


प्रश्न यह है कि चरित्र की आदर्श अवस्था क्या है ? विश्व-व्यवस्था से जोड़ने वाले अपने नैतिक स्वत्व के केन्द्रीय सूत्र या केन्द्रीय- सामंजस्य को पा लेना ही वस्तुत: चरित्र की सर्वोच्च उपलब्धि है। सत्यत: यही चरित्र-निर्माण की आदर्श अवस्था की उपलब्धि है।

विभिन्न व्यक्तियों , समाजों और राष्ट्रों की अलग-अलग आवश्यकताएँ होती हैं। और विविध प्रकार से उनकी परिपूर्ति की जाती है। परन्तु सभी देशों के निवासी सम्पूर्ण मानवजाति की एक सार्वभौमिक आवश्यकता भी है और वह है चरित्र की आवश्यकता। मानव-जाति आज एक स्थान पर आ पहुंची है , जहाँ कि विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले प्रत्येक विचारवान व्यक्ति को इस आवश्यकता पर नये सिरे से ध्यान देना होगा और वह है अधिक से अधिक चरित्र के निर्माण की, अधिकाधिक मात्रा में चरित्र का विकास करने की पर अपने परिवार तथा समाज के सदस्यों की यथा- सम्भव वैसा ही करने में सहायता देते हुवे , स्वयं एक सच्चा तथा सुयोग्य मनुष्य बनने की आवश्यकता। अत: स्वामी विवेकानन्द चरित्र पर विशेष बल देते हुवे कहते हैं -- ' चरित्रवान बनो और बनाओ।' इसे ही चरित्र की पूर्णता भी कहा जा सकता है।%%%%%%%%%%%%%



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