सोमवार, 16 सितंबर 2013

सत्य को और श्रद्धा को जीवन में समन्वित

आचार्य वह है जो अपनी समग्रता से सत्य में आचरण 

सर्वप्रथम यह निश्चित है कि मनुष्य स्वभाव से ज्ञानी है । स्वभाव से तात्पर्य यह है कि जिसमें स्व की स्थिति है और जो अपरिवर्तनशील है , वह स्वभाव है । स्वभाव अर्जित नहीं होता , अपितु वह नैसर्गिक होता है । वह व्यक्ति के अस्तित्व के साथ रहता है , जैसे भूख लगना मनुष्य का स्वभाव है । आप किसी औषधि अथवा किसी क्रिया से इसे कम कर सकते हैं या अवधि को बढ़ा सकते हैं , पर ऐसा नहीं हो सकता कि मनुष्य को कभी भूख ही नहीं लगे । वस्तुत: मनुष्य न पूर्णत: ज्ञानी है और न ही पूर्णत: अज्ञानी । एक व्यक्ति एक क्षेत्र का ज्ञानी हो सकता है , जबकि वह दूसरे क्षेत्र का अज्ञानी ही रहता है । अत: मनुष्य कितना ही ज्ञानी क्यों न हो , पर अल्पज्ञता उसका स्वभाव है और वह कभी नष्ट नहीं हो सकता . 

मनुष्य के समक्ष अब दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य को ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है ? किन्हीं की मान्यता है कि मनुष्य को ज्ञान अंदर से प्राप्त होता है । जबकि ज्ञान अंदर से प्राप्त नहीं होता । मन , चित्त , बुद्धि इत्यादि उपकरण तो अंदर ही हैं , किन्तु जब तक इन्द्रियां ज्ञान के प्रत्ययों की तन्मात्रा के द्वारा अंदर प्रेषित नहीं करेगी तो बुद्धि क्या कर सकती है । महाकवि कालिदास या महर्षि वाल्मीकि के साहित्य में जो कुछ भी अद्वितीय और सुंदर है वह तो उनके देखने और परखने की क्षमता है । प्रकृति के सौन्दर्य को इन कवियों ने गहरी और व्यापक दृष्टि से देखा था । साहित्य के वे परम विद्वान् थे । वर्षों तप करके यह कौशल पाया था ; तभी वे साहित्य सृजन कर सके थे । चित्रकार कुछ भी तो मौलिक नहीं बनाता है । उसकी सारी कला केवल बाहर की अनुकृति है अर्थात केवल नकल है । जितनी अच्छी नकल कर लेता है तो वह उतना अच्छा कलाकार है । कहने का तात्पर्य है कि ज्ञान पौधे की तरह अंदर नहीं उगता है , अपितु बाह्य प्रेरणा से चिंतन सक्रिय होता है । अत: ज्ञान का विषय ब्रह्मांडीय भौतिक तत्त्व है , जो सृष्टि के चारों तरफ विस्तृत है ।

वेद में कहा गया है कि ' देवस्य पश्यकाव्यं न ममार न जीर्यति ' अर्थात विश्व ब्रह्माण्ड को देखो यह भगवान का काव्य है और यह ऐसा अमर काव्य है जो कभी जीर्ण होता है और न ही नष्ट होता है । नित्य नवीन रस का संचार करने वाला है । जो खुली आँखों से इसे नहीं देख पाता , इसमें काम करने वाले कारण -कार्य को नहीं समझता , वह आँख बंद करके क्या ज्ञान प्राप्त करेगा ? यह कैसी विडम्बना है कि इस देश को सर्वदा आँख बंद रखने का ही उपदेश मिलता रहा है । भगवान के दर्शन करने हैं तो आख्नें बंद करो । ज्ञान प्राप्त करना है तो वेदादि शास्त्र छोड़ो और आँख बंद करो । ऐसी आँख बंद करवा दी है कि समाज को दिखना ही बंद हो गया है . सच तो यह है कि समाज को अँधा ही कर दिया गया है ।

वैदिक ज्ञान कहता है कि बंद आँख वालों को ज्ञान प्राप्त नहीं होता । आँखों के साथ-साथ मन और बुद्धि भी खुली रहनी चाहिए । बुद्धि तर्क और अनुमान से देखती है । श्रुत संस्कारों से चित्त काम करता है । अत: ज्ञान-प्रत्यक्ष के लिए सचेत होकर देखो । अंदर बाहर के बहकावे में न भटको । ज्ञान-प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपनी समग्र सत्ता को काम में लेना होगा । दीक्षा इस योग्यता को पैदा करती है । दीक्षित ही ज्ञान प्राप्त करते हैं एवं ऋषि होकर ब्रह्माग्नि का प्रज्वलन करते हैं । दीक्षा का अर्थ है ,दक्षता , पात्रता एवं योग्यता को प्राप्त करना । वेद के अनुसार ' व्रतेन दीक्षामाप्नोति ' अर्थात व्रतों से दीक्षा की प्राप्ति होती है । व्रत का अर्थ है जीवन में नियम की स्थापना , यानि सद्गुण ग्रहण करना । जिस परमेश्वर को हम सब प्राप्त करना चाहते हैं , वह स्वयं व्रतपति है । नियमबद्ध है और सद्गुण का आगार है । यह परम तत्व सत्य है । अत: ऋषि कहते हैं कि सत्य और श्रद्धा को ग्रहण करके दीक्षा लीजिए । आध्यात्म दीक्षा का महत्त्व है जीवन में उच्चतम मूल्यों की स्थापना ।

यह दीक्षा तीन प्रकार से मिलती है । प्रथम प्रकार है सद्शास्त्र अध्ययन और महापुरुषों की जीवनी का अध्ययन । शास्त्र और महापुरुषों जीवन के प्रकाश में अपने आप को देखें हम जितनी स्पष्टता से अपने जीवन को समझ सकते हैं उतना दूसरा नहीं समझ सकता । कमजोरी , दुर्गुण और दुर्व्यसन जो कुछ भी हमारी जिन्दगी में है ओरों से छिपाया जा सकता है , लेकिन हम इस सबसे भली प्रकार परिचित हैं । हमारी कमियां हमसे छिपी हुयी नहीं हैं । अत: स्वयं की जिन्दगी को गहरायी से देखें और जहाँ भी आवश्यकता है उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए । शास्त्र केवल पुस्तक ही नहीं है , यह ऋषियों का आत्मिक स्वरूप है । हम एकाग्रता और निष्ठा से स्वाध्याय करेंगे तो योग में स्थिति होती चली जाएगी । केवल पठन-पाठन स्वाध्याय नहीं है । इसके साथ सत्य को जानने की भूख और जाने हुवे सत्य को जानने की भूख और जाने हुवे सत्य को जीवन में धारण करने की निष्ठा भी अनिवार्य है. 



ब्रह्म-ज्ञान के लिए वेद में सत्य और श्रद्धा निष्ठा को महत्त्व दिया गया है । जब जीवन में ये दो गुण आ जाते हैं तो व्यक्तित्व का रूपांतरण होना प्रारम्भ हो जाता है ।सत्य को धारण करने का अर्थ है नित्य सत्ता को धारण करना , अर्थात नित्य सत्ता में विचरण करना । नित्य सत्ता वह है जो त्रिकालाबाधित है और कभी भी नहीं बदलने वाली है । जो बदलने वाली है या परिणामशील है , वह नित्य सत्ता नहीं । सत्य से अर्थ है _ आत्मा का अस्तित्व । अपने को नित्य शास्वत और अज आत्म-तत्व समझ कर जब आचरण किया जाता है तब सरे दुर्गुण अपने आप नष्ट हो जाते हैं । शरीर -भाव से ही मनुष्य बुरे कर्म करता है । अन्याय शोषण छल-कपट सब भौतिक सुख के लिए किए जाते हैं । जब साधक को यह अनुभव हो जाता है की शरीर अनित्य है तो तब अपने आप वृत्ति मर्यादित होने लगती है । जीवन में व्रतों का आना ही वैदिक दीक्षा है तथा हम वेद-शास्त्र पढ़कर जीवन को उसके अनुरूप परिवर्तित करें तो यही शास्त्र-दीक्षा है ।


आचार्य वह है जो अपनी समग्रता से सत्य में आचरण कर रहा है । आचार्य के सान्निध्य में रहने पर अध्यात्म के चेतन स्वरूप का दर्शन होता है । साधक उनके अनुभवों से अपना अज्ञान दूर करता है , यह आचार्य-दीक्षा है । यही शक्तिपात भी कहा जा सकता है । आत्मा में बैठे हुवे वेद-स्वरूप परमात्मा को सतगुरु मानना ही भागवत -दीक्षा है । श्रुति की यह प्रार्थना अत्यंत मनोहारी है _ ' हे ज्ञानस्वरूप अग्ने ! हमें सुपथ मार्ग पर ले चलो । हमारी त्रुटियों और दुरित को भली प्रकार जानते हो , क्योंकि आप अंदर बाहर सर्वत्र विद्यमान हो । टेढ़े-मेढ़े कुटिल रास्तों से बचाकर सीधे मार्ग पर ले चलो । '

उपनिषद में कहा गया है _ ' नायमात्मा बलहीनेन लभ्य: ' अर्थात बलहीन को आत्मोप्लब्द्धि नहीं होती । ' ऋतस्य पन्थाम न तरन्ति दुष्कृत: ' अर्थात दुष्कृत व्यक्ति ऋत के मार्ग पर नहीं चल सकते । व्रतपति कप पाने के लिए व्रती होना अनिवार्य है । अत: व्रती बनकर भागवत दीक्षा को ग्रहण करना चाहिए ।सत्य को और श्रद्धा को जीवन में समन्वित करना चाहिए । यही जीवन का स्वभाव है और इसी में ही कल्याण है ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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