शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

जीव अपनी त्रुटियों से अनुभव प्राप्त करें

जीव अपनी त्रुटियों से अनुभव प्राप्त करें और आगे के कार्य के लिए अधिक योग्यता प्राप्त करें 


ईश्वर बड़ा दयालु है, उसने प्राणियों को भरपूर स्वतंत्रता दी है कि वे इच्छापूर्वक कार्य करते हुवे सत-चित-आनंद की प्राप्ति करें। जो लोग गलती करते हैं, उनसे परमात्मा क्रुद्ध नहीं होता और न किसी द्वेष-भाव से दंड देता है , अपितु उसने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जीव अपनी त्रुटियों से अनुभव प्राप्त करें और आगे के कार्य के लिए अधिक योग्यता प्राप्त करें। स्वर्ग-नरक की रचना इसी दृष्टिकोण से की गयी है। समस्त धर्म यह स्वीकार करते हैं कि मृत्यु के उपरांत जीव को स्वर्ग या नरक प्राप्त होता है। निश्चय ही हमें मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग-नरक का अनुभव प्राप्त करना पड़ता है। परमात्मा की इच्छा है कि इस व्यवस्था द्वारा पूर्व त्रुटियों का संशोधन हो जाए और भावी जीवन का निरापद बन जाए।

तीन वर्ष या जितना समय जीव को परलोक में ठहरने के लिए अदृश्य चेतना आवश्यक समझती है, उसका पहला एक-तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है, क्योंकि पुनर्जन्म के परिश्रम की उस काल में इतनी थकान होती है कि प्राणी उससमय अचेतन -सा हो जाता है। प्रारम्भिक एक-तिहाई भाग बीतने पर जीव स्वस्थ होकर जाग्रत होता है और पीछे के कार्यक्रम पर ध्यान देता है। तीसरी तिहाई में वह अपने पिछले जीवन पर ध्यान देता है। सारे बुरे-भले कर्मों के परत उसकी चेतना के साथ बड़ी मजबूती के साथ चिपके हुवे होते हैं। ये परत एक-एक करके खुलते हैं, तब तक उनके कर्मों के बीज पक चुके होते हैं और वे फल के रूप में उपस्थित होते है। इस समय वे केवल स्मरण-मात्र ही नहीं होते, अपितु अपना एक फल साथ लेट हैं। जीवन में हम जो कुछ बुरे-भले काम करते हैं सामान्यत: कुछ दिन बाद उन्हें भूल जाते हैं; किन्तु साक्षी रूप आत्मा जो अंत:करण में बैठा हुवा है , उन सब बातों को अंकित करता है। आत्मा के क्षेत्र में वह काम बीज रूप से उसी प्रकार बो दिए जाते हैं , जैसे खेत में गेहूँ। पाप का स्वरूप दूसरा होता है , किन्तु उसका परिवर्तित रूप दुःख होते हैं ।


नरकों का वर्णन अनेक अनेक प्रकार से होता है। विभिन्न धर्मावलम्बी उनकी रूपरेखा में कुछ अंतर बताते हैं। कुम्भीपाक, वैतरणी, रौरव, दोजख, हैल आदि के वर्णन अलग-अलग हैं। पुराणों में ऐसा वर्णन है कि यमदूत घसीट-घसीट कर नरक में ले जाते हैं। ये यमदूत कोई स्वतंत्र प्राणी नहीं हैं , केवल जीव के मानसिक पुत्र हैं अंत:करण अपने क्रम परिपाक में इन यमदूतों को भी उपजाता है। ये दूत केवल उतने दिनों तक तक जीतें हैं, जितने दिन तक प्राणी को नरक में रहने की आवश्यकता होती है, कार्य समाप्त होते ही वे मर जाते हैं। एक के लिए पैदा हुवे ये यमदूत दूसरे को दंड देने के लिए जीवित नहीं रहते। वास्तविक बात यह है कि परलोक में भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक जीवन प्रस्फुटित रहता है। वैज्ञानिकों के मत से बाह्य मन मर जाता है और अंतर्मन जीवित रहता है। मन, बुद्धि, चित्त,अहंकार का चतुष्टय , दसों इन्द्रियों इन सबके मिश्रण से बना हुवा सूक्ष्म शरीर उस समय वैसा ही अचेतन रहता है, जैसा कि जीवित अवस्था में गुप्त मस्तिष्क। हम देखते हैं कि एक मैस्मेरिज्म करने वाला बाहरी मस्तिष्क को निद्रित कर देता है और भीतरी मस्तिष्क को यह आज्ञा देता है कि ' तुम पानी में तैर रहे हो' तो वह व्यक्ति बिलकुल यही अनुभव करता है कि मैं पानी में तैर रहा हूँ। वास्तव में पानी में तैरने और इस झूठ-मूठ के तैरने में रत्ती भर भी उसे अंतर नहीं मालूम होता। यही बात उस नरक की है। उस नरक की , उन यमदूतों की कोई अलग सत्ता नहीं होती और न परलोक में कोई अलग न्यायाधीश , जज, मुंशी, पेशकार बैठते हैं। प्रतिदिन अरबों-खरबों जीव मरते हैं, इन सबको दंड देने के लिए उनसे दूने-चौगुने तो यमदूत चाहियें और असंख्य दफ्तर , जेलखाने , नरक आदि। इतने अलग बखेड़ों का ' स्वतंत्र रूप ' से होना किसी प्रकार भी सम्भव और सत्य दिखाई नहीं पड़ता। बेशक हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग नरक हो सकते हैं , क्योंकि वे उसके साथ पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं


अंतरात्मा में जमे हुवे पाप-संस्कार प्रकाश के रूप में जब प्रकट होते हैं, तो इतनी शक्ति रखते हैं कि सूक्ष्मशरीर को बलात उसके सम्मुख आना पड़ता है। ये यमदूत जिन्हें ' संस्कारों का तेज ' भी कह सकते हैं। सूक्ष्मशरीर उसकी इच्छा के विरुद्ध भी दंड देने के लिए हाजिर करते हैं। दुष्कर्मों का फल है _ दुःख। सूक्ष्मशरीर को वेदना , पीड़ा , कष्ट देने के लिए अंतरात्मा एक स्वतंत्र नरक बना देती है इस नारकीय यन्त्रणा का मन्तव्य यह है कि जीव दुःख अनुभव करे। पाप -कर्म और उनके फल इन दोनों को साथ-साथ देखकर वह यह समझ ले कि इसका यह फल होता है। दंड कितने समय तक और कितनी मात्रा में मिलना चाहिए इसका माप यह है कि जितने से वह अपना सुधार करले सूक्ष्मशरीर में इन्द्रियां भी होती हैं और मन भी , इसलिए शारीरिक पापों के लिए शारीरिक दंड और मानसिक पापों के लिए मानसिक वेदना प्राप्त होती है। जैसे अधिक खा लेने से अपने आप पेट में पीड़ा होती है , मिर्च के सेवन से अपने आप दाह होता है , वैसे पाप-कर्मों का फल प्राप्त करने की व्यवस्था अंतरात्मा स्वयमेव ही कर लेती है, इसके लिए किसी दूसरे की आवश्यकता नहीं पड़ती।


जो पाप प्रकट हो जाते हैं , उनका फल तो प्राय: जीवित अवस्था में ही मिल जाता है , किन्तु जो पाप भुगत नहीं पाते, उनको परलोक में भुगतना पड़ता है। प्रभु ने ऐसी व्यवस्था की है कि नवीन जीवन धारण करने से पूर्व ही जीव अपने पिछले अधिकांश पापों को भुगत ले और अगले जन्म के लिए पवित्र होकर जाए ताकि अगला जीवन इन पाप-भारों के दुष्परिणाम से मुक्त हो। नरक का केवल इतना ही लाभ नहीं है कि पाप क्षीण हो जाएँ , अपितु यह भी उद्देश्य है कि आगे के लिए बुरी आदतें छूट जाएँ और गलती के परिणाम का स्मरण रहे।%%%%


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