रविवार, 29 सितंबर 2013

त्याग हमारा धर्म है

त्याग हमारा धर्म है 


त्याग-धर्म--- त्याग भी धर्म का अंग है। अत्यंत पवित्र पात्र के लिए अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक त्याग-दान देना चाहिए। त्याग-दान से अवगुणों का समूह दूर हो जाता है। त्याग से निर्मल कीर्ति फैलती है। त्याग से शत्रु भी चरणों में प्रणाम करता है। विनय पूर्वक बड़े प्रेम से शुभ वचन बोलकर नित्य ही त्याग-दान देना चाहिए। सर्वप्रथम अभय-दान देना चाहिए, जिससे पर-भव के दुःख का नाश होता है। पुन: दूसरा शास्त्र-दान देना चाहिए। जिससे निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। रोग को नष्ट करने के लिए औषधि-दान देना चाहिए, जिससे कभी भी व्याधियों की स्थिति नहीं होती है। आहार-दान से धन और ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। यह चार प्रकार का दान सनातन परम्परा से चला आ रहा है। दुखी जनों को दान देना चाहिए, गुणी जनों का मान-सम्मान करना चाहिए। निर्बल एवं निर्धन के प्रति के मन में दया-भावना रहनी चाहिए। मन में सदैव सम्यक-दर्शन का चिन्तन करनी चाहिए।

भोजन-मात्र प्रदान करने के लिए तपस्वियों की क्या परीक्षा करना। वे सद्गुणों से युक्त सज्जन हों या न हों , किन्तु गृहस्थ तो दान से शुद्ध हो ही जायेगा। साधुओं को नमस्कार करने से कल्याण होता है। उनको दान देने से भोग मिलते हैं। उनकी उपासना से पूजा का फल प्राप्त होता है एवं सम्मान मिलता है। उनकी भक्ति से सुंदर रूप अर्थात स्वास्थ्य एवं स्वरूप भी उपलब्ध होता है। पूज्यों की स्तुति करने से कीर्ति का लाभ मिलता है। दान से ही संसार में गौरव प्राप्त होता है। स्पष्टदेने वाले मेघ ऊपर रहते हैं और संग्रह करने वाले समुद्र नीचे रहते हैं। बड़े कष्ट से कमाई गयी सम्पत्ति को यदि आप अपने साथ ले जाना चाहते हैंतो खूब दान कीजिए। यह असंख्य गुणा होकर फल प्रदान करेगी, किन्तु खायी गयी अथवा संग्रह कर रखी गयी सम्पत्ति व्यर्थ ही है। परोपकार में खर्चा गया धन ही परलोक में नवनिधि ऋद्धि के रूप में फलीभूत होता है।

दीन,दुखी, अंधे,लंगड़े, अपंग आदि को भोजन एवं वस्त्र आदि देना करुणा-दान है, यह भी करुणा-बुद्धि से करना चाहिए। थोड़े में थोड़ा तथा उसमें भी थोड़ा-थोड़ा दान देते ही रहना चाहिए। बहुत धन होगा जब दान देंगे, ऐसी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इच्छानुसार शक्ति एवं चाहना किसकी कब हुयी है ? लखपति करोडपति बनना चाहता है। करोडपति अरबों-खरबों को पाकर भी तृप्त नहीं हो सकताहै, क्या कभी ईंधन से अग्नि की तृप्ति हुयी है ? नहीं, बिलकुल भी नहीं। अत: यदि सम्पत्ति का सर्वश्रेष्ठ रूप करने की इच्छा हो तो दान देते रहना चाहिए। कुंएं से जल निकालने से जल बढ़ता हैवैसे ही धन दान देने से धन बढ़ता है

आकिंचन्य -धर्म --- सर्व परिग्रह से निवृत्त होना आकिंचन्य व्रत है , शुभ ध्यान करने की शक्ति का होना आकिंचन्य व्रत है। व्रत का अर्थ संकल्प है। ममत्व से रहित होना भी आकिंचन्य धर्म है। आकिंचन्य धर्म के द्वारा इन्द्रिय रूपी वन में दौड़ने वाले मन को आकुंचित एवं नियंत्रित किया जाता है। देह से भी ममत्व एवं मोह के भाव को छोड़ना आकिंचन्य धर्म है। साथ ही संसार के सुख से विरक्त होना भी आकिंचन्य व्रत एवं धर्म है।  मे किंचन अकिंचन: " , मेरा कुछ भी नहीं है , अत: मैं अकिंचन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंत गुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा पर-द्रव्य से भिन्न हूँ और तीनों लोकों का अधिपति महान हूँ। जब काया से भी निर्मम हो जाता है, तब लोक के अग्र- भाग में विराजमान हो जाता है।

ब्रह्मचर्य-धर्म --- यह कामदेव चित्तरूपी भूमि में उत्पन्न होता है, उससे पीड़ित होकर यह जीव न करने योग्य कार्य को भी कर डालता है। वह मूढ़ होता हुवा अपनी तथा परायी स्त्री में भी भेद नहीं करता है। बाहर से इन्द्रियजन्य स्पर्श-सुख से अपनी रक्षा करनी चाहिए और हृदय में परम ब्रह्म का अवलोकन करते रहना चाहिए।आत्मा ही ब्रह्म हैउस ब्रह्मस्वरूप आत्मा एवं परमात्मा में चर्या क्ररना ही ब्रह्मचर्य है। बिना ब्रह्मचर्य के आज तक किसी ने मुक्ति को प्राप्त नहीं किया हेओर न ही कर सकते है, ऐसा समझते हुवे ब्रह्मचर्य-धर्म की एक दृढ़ व्रत के रूप में उपासना करनी चाहिए। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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