शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

धन के प्रति आसक्ति विनाश का ही कारण

चाहत की आसक्ति उसे शांत ही नहीं रहने देती 



आत्म - ज्ञान की पहली शर्त है कि मन में किसी वस्तु की छोटी - से - छोटी इच्छा भी नहीं होनी चाहिए।इच्छा होने पर शांति हाथ नहीं  सकती , क्योंकि किसी प्रकार की इच्छा होना ही अशांति का कारण है।इच्छा , कामना,चाह , तृष्णा ,वासना आदि ये सभी पर्याय हैं। वासनाओं के कारण ही मन चंचल होता है।



साधक को प्रयत्न पूर्वक अपना मन परमात्मा के साथ जोड़ना चाहिए।



 अवसर मिलते ही मन भागने लगता है। मन को बांध कर रखना चाहिए। मन को कर्म की रस्सी , भक्ति की रस्सी या ज्ञान की रस्सी से बांध कर रखना चाहिए। यदि मन को स्वतंत्र छोड़ दिया जाये तो वह बड़ा अनर्थ कर सकता है । मन विषयों कि ओर दौड़ता है ,विषय तो विष मिले शहद के समान हैं। वह खाने में मीठा होता है , पर उसका परिणाम बड़ा हानिकारक होता है विषयों में दोष - दृष्टि अपनाने से ही वैराग्य -भाव उत्पन्न हो सकता है



 धन तो जड़ है वह भला किसको सुख दे सकता है ? जो व्यक्ति परम सुख चाहता है , उसे धन की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहिए। यदि धन की ओर मन दौड़ता है , तो धन में भी सब तरह से दुःख ही दुःख दिखाई देता है। कमाने में दुःख , रखरखाव में दुःख तथा खाने -खर्चने में दुःख। परन्तु बिना धन के गृहस्थ धर्म का पालन भी नहीं हो सकता। धन कमाना आवश्यक है , पर धन के प्रति अतिआसक्ति उचित नहीं है। 



धन अर्थात अर्थ का सही उपार्जन हो, धर्मानुसार धन का अर्जन एवं धर्मानुसार ही इसका उपयोग भी होना चाहिए। चार पुरुषार्थों -- धर्म , अर्थ , काम ओर मोक्ष में अर्थ का विशेष महत्त्व है, बिना अर्थ के न ही कामना पूरी हो सकती हैं और न ही धर्म तथा मोक्ष में गति हो सकती है। अर्थ साधन तक ही सीमित रहना चाहिए उसे साध्य नहीं बना देना चाहिए। धन के प्रति अति आसक्ति विनाश का कारण बन जाती है। नाव में पानी और घर में दाम अर्थात धन यदि आ जाता है तो दोनों हाथ से बाहर फेंकना ही सयाना काम गुणियों ने बताया है। धन विकास का कारण हो सकता है पर धन के प्रति आसक्ति विनाश का ही कारण है। 


वास्तव में चाहत कोई भी हो वह दुःख का कारण ही बनती है। बचपन से ही व्यक्ति या जन्म से ही बच्चा चाहिए से ही दुखी रहा है , वह पैदा होते ही रोता है। नहीं रोता तो सब को चिंता हो जाती है। जन्म ही रोने से शुरू होता है। कभी उसे यह चाहिए तो कभी उसे वह चाहिए जीवन भर वह रोता ही रहता है। रोना ही उसकी जिंदगी बन जाता है। चाहत की आसक्ति उसे शांत ही नहीं रहने देती , सदा उसे अशांत बनाये रखती है। चाहत एक तृष्णा है जो कभी भी तृप्त ही नहीं होती , वह जीवन भर अतृप्त ही बना रहता है। वासनाएँ और कामनाएँ कभी भी शांत ही नहीं होती , अपितु यह शरीर ही नष्ट हो जाता है। हमें अपनी चाहत पर नियंत्रण करना होगा , अन्यथा शांति प्राप्त करना नितांत कठिन होगा। चाहत का संवरण करने से ही शांति प्राप्त हो सकती है।
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