मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अनुभव शब्द को जीवंत और तेजस्वी बनाता

व्यावहारिक उपयोगिता से शून्य अध्यात्म केवल सम्पन्न वर्ग के मनोरंजन का साधन बन गया 


एक परिव्राजक रात्रि व्यतीत करने के लिए मन्दिर में ठहरे। दिन ढ़ल चुका था। हाथ-पैर धोकर पाथेय-आहार ग्रहण किया और सो गये। नियमानुसार ब्रह्म-वेला में उठे , नित्य-कर्म से निवृत्त होकर ध्यान के लिए आसन लगाया। बैठे ही थे कि करुण-स्वर में पुकारे गये ' मुक्ति दो ' , ' मुक्ति दो ' शब्द सुनाई पड़े। परिव्राजक उठकर बाहर निकले चारों ओर देखा वहां कोई नहीं था। आश्चर्य में थे कि फिर वही ध्वनि आयी। देखा आँगन में रखा पिंजरे में तोता बोल रहा था।

संत-ह्रदय नवनीत के समान पघल पड़े ; वह संत भी मुक्ति के इच्छुक थे। मुक्ति की इच्छा ने उन्हें घर-द्वार एवं मित्र-परिवार सबसे छुड़वा दिया था। जीवन का कठोर मार्ग इसी की व्याकुलता के कारण ग्रहण किया था। तोते के प्रति दया ओर सहानुभूति उमड़ आयी। ऐसा होना स्वाभाविक था। विरक्त ने पिंजरा खोला पक्षी फुदक कर बाहर आ गया। पिंजरे पर बैठकर पक्षी पुन: ' मुक्ति दो, मुक्ति दो ' बोला। विरक्त ने उसे वहां से भी उड़ा दिया। तोता कुछ क्षण के लिए आकाश में उड़ा फिर पिंजरे पर आकर बैठ गया और स्वयं ही पिंजरे के अंदर हो गया। पिंजरे में से फिर उसने ' मुक्ति दो , मुक्ति दो ' की रट लगाई। अब बताओ इस तोते को कौन मुक्त कर सकता है ? हजारों वर्षों से इस देश की यही स्थिति है। अज्ञान के पिंजरे में बंद रात-दिन मुक्ति-मुक्ति की रट लगा रखी है।दुखों से मुक्ति तो नहीं मिली पर ज्ञान, सामाजिकता पर शांति से मुक्ति तो ले ली है।

सच बात तो यह है कि हम इन शब्दों के अर्थ भी नहीं जानते और हमने मूर्खता से इन शब्दों का अवमूल्यन भी कर दिया है। शब्द का अर्थ तब तक निर्जीव है , तब तक वह अनुभव में नहीं उतरता। शब्दार्थ की प्रतीति अनुभव से ही होती है। अनुभव शब्द को जीवंत और तेजस्वी बनाता है। अनुभव शब्द को जीने से मिलता है ; तोता-रटंत से नहीं। पिछले हजारों वर्षों से यह जाति अज्ञान और अंध-विश्वास में में ग्रसित होने के कारण आज तक इन शब्दों को जीने का प्रयोग नहीं कर सकी।

 जीवन के स्थान पर आध्यात्मिक चर्चा का प्राधान्य रहा। आध्यात्मिक होने के स्थान पर आध्यात्मविद हो गये। अध्यात्म की चर्चा करना कुछ और है तथा आध्यात्मिक होना कुछ और ; ठीक वैसे ही जैसे ईश्वर की चर्चा कुछ और है तथा ईश्वरानुभव कुछ और। अध्यात्म - दर्शन को बुद्धि-विलास का रूप मिल गया। इसका जीवन के यथार्थ से कोई तालमेल नहीं रहा।

आदर्श और व्यवहार दो समानांतर रेखा बन गये , जो परस्पर कभी नहीं मिलते। व्यावहारिक उपयोगिता से शून्य अध्यात्म केवल सम्पन्न वर्ग के मनोरंजन का साधन बन गया। अन्धविश्वास के साथ इसका संयोग होने से मूर्खतापूर्ण मान्यताओं को जन्म मिला। जीवन की उन्नति के बदले पतन होता गया , जो अब तक नहीं रुक सका है। यथार्थ तो यह है कि अध्यात्म के स्थान पर साम्प्रदायिकता और कर्मकांड को ही बढ़ावा मिलता रहा। कर्मकांड की जटिल प्रक्रिया के विस्तार में ही लोग फंसे रहे। लिंग-योनि पूजन से लेकर नर-बलि तक कर्मकांड का जंजाल फैला।&&&&&&&&&&&&&&&

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