मंगलवार, 24 सितंबर 2013

जीवन के सम्बन्ध में बाबूजी जागरूक रहे

शब्द -ब्रह्म में निष्णात अर्थात निपुण व्यक्ति ही परम - ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है



शब्द -ब्रह्म में निष्णात अर्थात निपुण व्यक्ति ही परम - ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ; वह सर्वथा मुक्त हो कर ब्रह्म- लीन हो जाता है। मेरी अपने बाबूजी के विषय में यही धारणा है । जीवन के सम्बन्ध में बाबूजी सदैव जागरूक रहे । उनहोंने जीवन को विकल्प नहीं माना । उन्होंने वस्तु से अधिक शब्द के मर्म को पहचाना उनका जीवन परिनिष्ठित बुद्धि- प्रसूत एक सत्य- संकल्प था , जिसमें अनुशासन था , प्रगति का वेग था और अंतर्दृष्टि - युक्त श्रेयात्मक चिंतन का स्पंदन था । इस संसार में भूख , प्यास , शोक , मोह , जरा आदि जो भयानक विकार हैं , उनसे यथा- सम्भव दूर रह कर साहित्य - साधना में वे स्वयं को विस्मृत करना चाहते थे । परम को लक्ष्य मानकर उन्होंने अपने जीवन को उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन बनाया , किन्तु धरती के प्रति उनका जो कर्तव्य था , उसे वे भूले नहीं। उन्होंने पूर्णत: परिवार के, समाज के जीव रहते हुवे अपने जीवन - व्यापार को अनुशासित किया , संयमित किया और शील - प्रधान बनाया ; जिससे लक्ष्य की बढ़ते जाने के प्रयास को बाह्य सुविधाएँ और आंतरिक प्रेरणायुक्त शक्ति मिलती रहे । "ॐ अग्ने नय सुपथा राये " मंत्र में जो प्रार्थना की गयी है , उसको बाबूजी ने अक्षरश: पालन किया। बाबूजी अंत समय तक ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' की साक्षात् प्रतिमूर्ति बने रहे । कर्म - प्रधान जीवन ही बाबूजी का जीवन था। ' तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ' के आराधक बाबूजी का मन उत्तम विचारों एवं संस्कारों से युक्त था। बाबूजी की दृष्टि में जीवन का महत्त्व इसी में है कि उसका प्रत्येक क्षण उत्तम कर्म का प्रतीक बन जाये। कर्म की शक्ति अजेय होती है , उसका उपयोग श्रद्धा , निष्ठां , योग्यता , उत्साह और अनासक्त भाव से किया जाये। ईश्वर कर्म करने के लिए ही धरती पर भेजता है। ईश्वरीय कृपा उसी पर होती है, जो कर्मशील एवं उद्योगशील होता है। यही ईश्वर की सच्ची पूजा एवं प्रार्थना है। मैं बाबूजी के पुनर्जन्म के वुष्य में सोचता ही नहीं हूँ , क्योंकि मैं तो उन्हें पूर्णकाम मानता हूँ। जो व्यक्ति काम रहित है, निष्काम है, जिसके काम शांत हो गये हैं , जो स्वयं आत्मकाम व स्वयं अपनी इच्छा है , उसके प्राण कहीं ओर नहीं जाते। वह स्वयं ब्रह्म होने के कारण ब्रह्मलीन हो जाता है। बिना शब्द- ब्रह्म कों जाने पर- ब्रह्म को जानना असम्भव है। बाबूजी ने जितना शब्द- ब्रह्म की जाना था , उतना कौन जान सकता था ? यह उक्ति उनके लिए सार्थक एवं चरितार्थ होती है -- " शब्दब्रह्मणि निष्णात: परंब्रह्माधिगच्छति "

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