गुरुवार, 19 सितंबर 2013

गर्म लोहे को गर्म लोहे से नहीं , ठंडे लोहे ही काटना सम्भव

बाह्य-जगत की बुराइयों को सुधारने के लिए भी अपनी उत्कृष्टता आवश्यक 

मनुष्य की आत्मा में एक ऐसा दिव्य प्रकाश है , जो यदि आलोकित होने लगे तो वह अपने प्रकाश-क्षेत्र को स्वर्गीय बना सकता है। स्वर्ग और नरक का कोई नहीं , अपितु यह एक दृष्टिकोण मात्र ही है। वैसे यह दुनिया तीन गुणों से बनी है। इसमें भला-बुरा सभी कुछ है। पाप और पुण्य का , देवत्व और असुरता का , दुःख और सुख का, उचित और अनुचित का अस्तित्व यहीं है , फिर भी व्यक्ति अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ही परिस्थितियाँ प्राप्त कर लेता है। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में फंसी रहती है। हम भी अपनी परिस्थितियों की सृष्टि आप करते हैं और उसी में सुख-दुःख का अनुभव करते हुवे जीवन को हंसते- रोते व्यतीत करते रहते हैं।

हमारी मान्यता यह होती है कि हम स्वयं निर्दोष हैं , हम न तो गलती करते हैं और न गलत सोचते हैं , हमारे अंदर न दोष हैं , न दुर्गुण, न हमें अपने को सुधारने की आवश्यकता है और न सम्भालने की। जो कुछ खराबी है वह सब बाहर वालों में है। वे ही सब कठिनाइयों के जिम्मेदार हो सकते हैं। इस मान्यता के स्थिर होते ही कुशाग्र बुद्धि वाले वकील की तरह मन अपना काम करना आरम्भ कर देता है और मुकदमा चाहे झूठा ही क्यों न हो उसे विजयी बनाने के लिए अत्यधिक कल्पना करने लगता है। देखते-देखते इतने तर्क, इतने प्रमाण, इतने कारण सामने प्रस्तुत हो जाते हैं कि मनुष्य उन्हें ही सत्य मानने लगता है। और किसी प्रकार अपनी निर्दोषता पर आत्म-संतोष करता हुवा थोडा चैन पा लेता है। अनेकों व्यक्ति सोचते हैं कि उन्हें सताया गया है। सताने वाले जो व्यक्ति समझ में आते हैं , उनके प्रति द्वेष और प्रतिहिंसा के भाव उठाना स्वाभाविक ही है। यह एक नई जलन अपने कष्टों के साथ और जुड़ जाती है।

कहते हैं कि ईश्वर उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता अपने आप करते हैं। पुरुषार्थी के आत्म-विश्वासी कदम जी राह पर बढ़ते हैं , उसकी बाधाएं दूर हो ही जाती हैं। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सारे संसार को सुधार लेना या इच्छा के अनकूल बना लेना सम्भव नहीं है। सारी पृथ्वी पर फैले कांटे नहीं बीने जा सकते , पर अपने पैरों में जूते अवश्य ही पहने जा सकते हैं , जिससे काँटों का प्रभाव समाप्त हो जाए। अपना सुधार करना , अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित करना , जूते पहन कर काँटों से निश्चिन्त होने के समान ही है। बाह्य-जगत की बुराइयों को सुधारने के लिए भी अपनी उत्कृष्टता आवश्यक है। गर्म लोहे को गर्म लोहे से नहीं , ठंडे लोहे से काटा जा सकता है। कीचड़ को कीचड़ से नहीं , शुद्ध जल से ही धोया जा सकता है। क्रोध को क्रोध से नहीं अपितु शान्ति से परास्त किया जा सकता है। यदि हम स्वयं मलिन होंगे और बुराइयों से सने होंगे तो दूसरो को सुधारना कैसे सम्भव है ? यदि हमारे भीतर उलझनों का जाला बुना हुवा है तो बाहर की समस्याओं का समाधान सर्वथा कठिन ही होगा

अपने को सुधारना , अपने को बनाना और अपने को बढ़ाना ही वह उपाय है जिससे दुनिया सुधर सकती है। अपनी आकांक्षाओं की दुनिया साकार हो सकती है और उन्नति के उस शिखर पर पहुंचा जा सकता है , जहाँ पूर्णता ही पूर्णता है , जहाँ अभाव का , शोक का , भय का और दुःख का एक कण भी शेष नहीं रहता।*******

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