मंगलवार, 17 सितंबर 2013

बौद्धिक चेतना को मात्र पेट के लिए उपयोग मूर्खता

बौद्धिक चेतना को मात्र पेट के लिए उपयोग मूर्खता 



शांति-संतोष आत्मा से स्वयं प्रस्फुटित होने लगते हैं । यह आध्यात्म है। आत्मस्थ होने का अर्थ यह नहीं है कि हम कितनी देर तक आँख मूंद कर जड़ बनकर रह सकते हैं या भाव-विह्वल होकर रो सकते हैं। आध्यात्म का प्रयोजन है _ आत्म-बुद्धि होना। आत्मा का बुद्धि से जुड़ जाना , आनन्दानुभूति का वस्तुपरक न होकर आत्मा-परक हो जाना। गीता का स्थित-प्रज्ञ दर्शन आध्यात्म की स्पष्ट व्याख्या करता है । केवल धारणा और ध्यान को आध्यात्म मानने वाले लोगों को गीता के इस तथ्य को देखना चाहिए । गीता कि स्थित-प्रज्ञता धारणा- ध्यान का खेल नहीं। यह स्वरूप स्थिति की वह चरम अवस्था है , जहाँ कर्त्ता पूर्ण अंतर्मुख स्थिति में कर्म करता है ।


इस प्रसंग को अर्जुन के सन्दर्भ में निम्न प्रकार देखा जा सकता है __ अर्जुन देखा कि गुरु कृष्ण उसे बुद्धि-योग का उपदेश कर रहे हैं तथा अचंचल बुद्धि को उच्चतम स्थान दे रहे हैं _ ' हे अर्जुन ! सकाम कर्म अत्यंत तुच्छ है और फल की वासना वाले होने से अत्यंत दीन हैं। अत: तू बुद्धि की शरण ले। ' अर्जुन संशय में पड़ गया । एक ओर सकाम कर्म की तुच्छता सिद्ध की जा रही है ; दूसरी ओर मुझे युद्ध में , जोकि एक सकाम कर्म है , प्रवृत्त किया जा रहा है । बुद्धि की शरण लेकर सकाम कर्म के त्याग से युद्ध कैसे संभव है ? अर्जुन समझ नहीं पाया कि यह बुद्धि- योग क्या है ? उसे पुन: प्रश्न करना पड़ा _ " स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थ केशव। स्थित धी: किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम॥ "

कर्म कैसे करता है ? कैसे बोलता, चलता और बैठता है ? ' गीता स्थित -प्रज्ञ दर्शन की जो व्याख्या करती है ; वह स्वरूप स्थिति की व्याख्या है। आत्मस्थित , स्थित-प्रज्ञ , बुद्धि -योग लगभग एक सा ही वाच्यार्थ प्रस्तुत करते हैं। स्थित-प्रज्ञ होने का अर्थ है _ विशेष जीवन-दर्शन । सुख-दुःख आसक्ति , भय , क्रोध के प्रति एक भिन्न दृष्टिकोण रखना है। जीवन की वस्तुपरक व्याख्या के स्थान पर आत्मपरक व्याख्या ही स्थित-प्रज्ञ दर्शन है।

आत्म-भाव उत्पन्न हो जाने पर भौतिक इच्छाएं मन से निकल जाती हैं। चित्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है। नश्वर शरीर की कामना और सुख- आसक्ति नहीं रहती , सुख और आनन्द अंदर से मिलने जगता है। आत्म-रमण साधन को संतुष्टि प्रदान करता है। आत्मा से निर्झरितहोने वाला रस समूचे व्यक्तित्व को मधुमय कर देता है। रस-राज सच्चिदानन्द आत्मा में व्यापक है। अत: अन्तर्मुखी होने पर वृत्ति उसका रसपान करने लगती है। जिसे पुष्पों का सारभूत मधु मिल जाये , वह अंगूठा क्यों चूसेगा ? भौतिक जगत की निंदा-स्तुति , हानि -लाभ उसे उद्वेलित न कर सकेंगे ।

आँख बंद करके बैठने से यह अनुभव नहीं होगा ; इसके लिए आँख खोलकर देखना सीखो। अचेत होकर नहीं , सचेत होकर संसार को देखो। हमारे चारों ओर रात -दिन हजारों ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं, जो सत्य का संदेश लाती हैं । हमें इस सत्य स्वागत के लिए मन-बुद्धि के द्वार खोल देने चाहिएं। स्थित-प्रज्ञता और स्वरूप-सिद्धि इसी से होगी। यह भूमा-दर्शन है। इससे भिन्न अवस्था बिखराव है , जो स्वत: नरक है।

गीता में बिखरे हुवे व्यक्तित्व का सजीव चित्रण किया गया है । बिखरा हुवा व्यक्ति सर्वदा देह-धरातल पर रहता है। इन्द्रियों के विषय में ही उसका चिंतन होता है । स्थूल भोग के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं सोच सकता। नश्वर जगत ही उसकी महत्त्वाकांक्षा या जीवन की सार्थकता होती है। समाज, मानवता, उपकार, करुणा-मैत्री , अहिंसा इत्यादि उसकी समझ के बाहर के शब्द हैं। उसके कर्म की सीमा केवल भोग जगत है। भोग-लिप्सा उसे सर्वदा स्नायविक तनाव और उत्तेजना में रखती है। उसकी शरीर -ग्रन्थियां रात -दिन स्राव करते रहने से दुर्बल हो जाती हैं। दिल-दिमाग से उसका नियंत्रण हट जाता है। इच्छाएं अनुभव पर हावी हो जाती हैं। शापेन हावर ने ऐसे लोगों को ' इडियट' की संज्ञा दी है , उसने कहा है कि _ ' मूर्ख वह है , जो अपनी बौद्धिक चेतना को केवल पेट के लिए काम में लेता है। '***************

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