मंगलवार, 17 सितंबर 2013

जीवन का सत्य के साथ संयुक्त होना अध्यात्म

अध्यात्म-चिन्तन के लिए उच्चतम सूक्ष्म बुद्धि चाहिए 


अध्यात्म का सम्बन्ध जीवन की अवधारणा से है। यह जीवन और ब्रह्मांड को उसकी समग्रता में समझने से होती है। जीवन का अस्तित्व के के रंग-मन्च पर क्या महत्त्व है ? और ब्रह्मांड के साथ क्या सम्बन्ध है ? यह समझ कर जीवन की जो पद्धति बनाई जाती है, वह अध्यात्म है। अध्यात्म की मान्यता है कि हम ब्रह्मांड के अंश में हैं, इसलिए अंश-अंशी में पूर्ण सामंजस्य हो जाना आवश्यक है। सामंजस्य का होने का अपूर्णता और अपूर्णता का परिणाम त्रिविध ताप और असंतुलन है। हमारा असंतुलित व्यवहार समरसता को भंग करके जीवन को उलझा रहा है। वर्त्तमान जीवन की सारी वेदना , राजनैतिक उत्पीड़न सामजिक अन्याय और आर्थिक शोषण का मुख्य कारण आध्यात्मिकता का अभाव है। ब्रह्मांड व्यापी दृष्टिकोण के अभाव में क्षुद्र अहं उन्माद ग्रसित हो गया।
विराट की उपासना विराट बनती है। जो अनंत और विराट का वरण करता है , वह भी अनंत और विराट हो जाता है। संकीर्ण और सीमित की संगति संकीर्णता और क्षुद्रता ही होती है। सीमित ससीम है, और विराट ससीम की। ससीम की उपासना ने मानव- चेतना को इतना संकुचित कर दिया है कि वह देह और इन्द्रिय से परे न तो कुछ सोच पाता है और न कुछ देख पता है। वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में जितना भी तनाव है , उसका कारण संकीर्णता है। द्युलोक और अन्तरिक्ष से जब शांति उतरती है , तब पृथ्वी पर उसकी स्थापना होती है। एक ऋत तत्त्व का ही विस्तार ब्रह्माण्ड की विभिन्नता के मूल में एक अभिन्न ऋत तत्व है। ऋषि की ऋतम्भरा प्रज्ञा ने अस्तित्व को खोल कर देखा तो अनुभव किया कि वह स्वयं भी वही है। एकत्व दर्शन मोह-शोक को नष्ट करता है।

अभिन्नता अपनापन उत्पन्न करती है। सब की उन्नति में अपनी उन्नति की उदात्त भावना का संचार करती है।श्री अरविन्द के शब्दों में _ ' अभिन्नता व्यष्टि का समष्टि में अर्थात व्यक्ति का समाज में पूर्ण लय होना है; जैसे वर्षा की बूंद सागर में मिलकर तदाकार हो जाती है। ' इस प्रकार की अनुभूति अध्यात्म-भाव पैदा करती है। अभिमान अहंकार को नष्ट करके चरित्र में उदात्त गुणों का उदय करता है।विश्व-ब्रह्माण्ड की विराटता का अनुभव अहं को नष्ट करता है। परिणाम स्वरूप इच्छा , कर्म और जीवन की प्रणाली बदल जाती है। जीवन का दृष्टिकोण नितांत भिन्न हो जाता है। वस्तुत: अध्यात्म से प्रयोजन भी यही है कि क्षुद्र की सीमा से निकल कर विराट में प्रवेश करें तथा नश्वरता से निकल कर अनश्वरता में गति प्राप्त करें। जो अनश्वर है , वह शाश्वत है और वही सत्य है। जीवन का सत्य के साथ संयुक्त होना अध्यात्म का प्रयोजन है।&&&&amp

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