सोमवार, 30 दिसंबर 2013

अनुप्रेक्षा या अभ्यास

अनुप्रेक्षा या अभ्यास के द्वारा भी व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है।



अनुप्रेक्षा प्रेक्षा की अग्रिम स्थिति है। प्रेक्षा ध्यान के अभ्यास क्रम में अनुप्रेक्षा को इसलिए संयुक्त किया गया कि बदलने के लिए केवल प्रेक्षा ही पर्याप्त नहीं है , उसके साथ अनुप्रेक्षा का प्रयोग चले तो साधक अपेक्षाकृत जल्दी सफलता प्राप्त क़र सकता है। प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा --ये दो प्रणालियाँ हैं। ये दोनों प्रयोग साथ- साथ चलते हैं। ध्यान का अर्थ है -- देखना अर्थात प्रेक्षा करना। उसकी समाप्ति के पश्चात मन कि मूर्च्छा को तोड़ने वाले विषयों की अनुचिंतना अनुप्रेक्षा है।


 जिस विषय का अनुचिंतन या अभ्यास बार- बार किया जाता है , उससे मन प्रभावित होता है। इसलिए इस चिन्तन या अभ्यास भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा या अभ्यास के द्वारा भी व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है।


 प्रेक्षा का काम अपने आप को जानना और स्वयं को देखना है। जबकि अनुप्रेक्षा का काम है -- प्रेक्षा के द्वारा जो सच्चाईयां उपलब्ध हुई हैं , उनका बार-बार अनु- चिंतन करना। अपनी स्मृति , विषय ,निर्णय और अनुचिंतन को वहां तक ले जाना , जहाँ तक सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए।**************************



रविवार, 29 दिसंबर 2013

प्रिय दिशिता को इस शानदार ट्रॉफी को प्राप्त करने पर बहुत-बहुत बधाई। हमें यह देखकर बहुत ही ख़ुशी हुयी। इसके लिए तुम्हारे पापा और मम्मी को भी बहुत-बहुत बधाई। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

अशांत- मानस कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं

चेतना की अन्तर्मुखता 



प्रेक्षा-ध्यान का सामान्य अर्थ है--देखना , किन्तु देखने की भी एक पद्धति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में प्रेक्षा का अर्थ आँखों से देखना नहीं है। उसका अर्थ है--अनुभव करना। राग और द्वेष रहित शुद्ध चेतना की प्रेक्षा करना।


 प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास अपने आप को जानने और देखने का अभ्यास है। यह पद्धति स्वयंके साथ होने की पद्धति है, स्वयं को जानने की और देखने की पद्धति है। इससे संस्कारों का परिष्करण या विलयन हो जाता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने का अर्थ है--दर्पण के सामने दूसरा दर्पण रख देना। प्रेक्षा - ध्यान का प्रयोजन चित्त का निर्मलीकरण और परिकष्करण है। 


अशांत- मानस कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं होता। आनंद के अंकुर शांत मन की उर्वरा में ही प्रस्फुटित होते हैं। प्रेक्षा-ध्यान साधना का मूल प्रयोजन भावनात्मक परिवर्तन है। फलस्वरूप व्यक्ति अनेक रोगों से आक्रांत हो जाता है। 


रोग मुख्यत:तीन प्रकार के होते हैं-- शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक अथवा भावात्मक । वाट, पित्त और कफ की विषमता या धातु -संक्षोभ से उत्पन्न होने वाले रोग शरीरिक रोग हैं। चिंता , संत्रास ,तनाव , घुटन, विक्षिप्तता आदि ये मानसिक रोग हैं। उत्तेजना, अहं , छलना , ईर्ष्या ,वासना आदि ये आध्यात्मिक अथवा भावनात्मक रोग हैं।


प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया में धर्म और विज्ञानं का सुन्दर समन्वय परिलक्षित होता है। यह साधना पद्धति ऐसी है कि इसमें वृतियों का दमन नहीं होता , अपितु उनका परिष्कार होता है। त्रिगुप्ति की साधना ही प्रेक्षाध्यान का आधारभूत तत्त्व है। ध्यान का प्रयोजन चेतना की अन्तर्मुखता है। चेतना को अन्तर्मुखी बनाने के लिए शरीर, मन, वाणी, और श्वास को साधना अत्यंत आवश्यक है। यही प्रेक्षाध्यान का मूल भाव है।*****






शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

जैसा बीज वैसा ही फल

धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या।


अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या।


  प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या । शील का अर्थ है __ सदाचार। शील के अंतर्गत सम्यक वाणी ,सम्यक कर्म और सम्यक आजीविका आती है।


 हर कर्म का प्रारम्भ मन से होता है ,फिर वाणी पर उतरता है और इसके बाद शरीर को वश में कर लेता है। अत: शरीर का प्रत्येक कर्म शुद्ध एवं पवित्र होना चाहिए। सम्यक आजीविका से तात्पर्य ईमानदारी से व्यवसाय करना है।


 धर्म का दूसरा क्षेत्र है- समाधि। मन के विकार को दूर करने के लिए, मन की निर्भरता को दूर करने के लिए मन का व्यायाम आवश्यक है। मन के व्यायाम में मन का निरीक्षण भली भांति करना चाहिए। मन के निरीक्षण में जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है। 



स्मृति से तात्पर्य जागरूकता है। जागरूकता वर्तमान क्षण के प्रति होनी चाहिए इसे ही सम्यक स्मृति कहा गया है। सम्यक समाधि का तात्पर्य है चित की एकाग्रता। हमारा चित एकाग्र तथा सतत जागरूक होना चाहिए। जागरूकता वर्तमान क्षण के प्रति होती है। जो सांस के ध्यान पर प्राप्त की जा सकती है। इसे ही शुद्ध एवं निर्मल समाधि कहते हैं।



साँस देखते -देखते , सत्य प्रकटता जाये। सत्य देखते-देखते परम सत्य दिख जाये॥ इति ++




कलर- थेरेपी

सूर्य-प्रकाश की किरणें आरोग्य प्रदान करने वाली


शरीर के मध्य का सम्पर्क - सूत्र है। रंगों के आधार पर लेश्या के छ: प्रकार हैं-- कृष्ण , नील, कपोत, तेजस , पद्म और शुक्ल । इनमें प्रथम तीन अशुभ और अंतिम तीन शुभ हैं। कृष्ण, नील , और कपोत --ये तीनों लेश्याएँ बदलती हैं; तब तेजस, पद्म और शुक्ल लेश्याओं का अवतरण होता है और यहीं से परिवर्तन का क्रम प्रारम्भ होता है।


 लेश्या परिवर्तन से ही अध्यात्म की यात्रा आगे बढ़ती है। लेश्या परिवर्तन से ही धर्म सिद्ध होता है। अध्यात्म की यात्रा का प्रारम्भ तेजस लाश्य से होता है। तेजस लेश्या का रंग लाल अर्थात बाल-सूर्य जैसा अरुण होता है। रंगों का मनोविज्ञान बताता है कि अध्यात्म कि यात्रा लाल रंग से ही शुरू होती है। प्रेक्षा-ध्यान शिविरों में श्वास-प्रेक्षा और चैतन्य-केंद्र प्रेक्षा के सोपानों को पार करने के बाद साधकों को लेश्या- ध्यान कराया जाता है।




 लेश्या - ध्यान के अभ्यास से ही शिविर- साधना में रसानुभूति होने लगती है। पश्चिम में कलर- थेरेपी कलर - meditation कि विधि बहुत विकसित और प्रचलित हो रही है। कलर- थेरेपी के आधार पर ही क्रोमो- थेरेपी अर्थात सूर्य-किरण-चिकित्सा का विकास हुवा है। 



सूर्य-प्रकाश की किरणें आरोग्य प्रदान करने वाली होती हैं। शीशे की बोतलों में पानी भरकर धूप में रखने से वह पानी सूर्य - रश्मियों से चार्ज होकर दवा बन जाता है। लेश्या-ध्यान में विभिन्न प्रकार के रंगों पर ध्यान कराकर साधना करायी जाती है। इस साधना में हल्के रंगों का प्रभाव जहाँ अनुकूल होता है , वहां गहरे रंगों का प्रभाव प्रतिकूल भी हो सकता है। इसका ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।******************************



गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

लाभ व्यवहार से


लोक -मंगल में अपना मंगल 


समर्पण भाव हो तो काम अच्छा होता है । जो व्यक्ति केवल बौध्दिक स्तर पर अथवा भावावेश के स्तर स्वीकार करके रह नहीं जाता , अपितु वास्तविकता एवं के स्तर पर स्वीकार करता है। अर्थात उसे धारण करता है। उसे जीवन का अंग बना लेता है। तथा वह जीवन भर के लिए धर्म की शरण आ जाता है। शांति -पूर्वक , सुख -पूर्वक एवं जिसमें हमारा तथा अन्यों का भी मंगल हो तो यही धर्म का वास्तव में व्यावहारिक पक्ष है।


वास्तव में लाभ व्यवहार से ही होता है। व्यवहारिक पक्ष शील- सदाचार है। मन को वश में करना समाधि है। चित्त को राग- द्वेष विहीन बनाने का काम प्रज्ञा का है। यह ही मन को निर्मल बनाती है। धर्म पलायन के लिए नहीं है। अभिमुख होकर जीने के लिए है।आधा मन यहाँ ,आधा मन वहां ; न यह होगा न वह होगा। इसलिए जब कोई काम करें ,यो सारा ध्यान उस काम में रखें । वह काम बहुत कुशलता से सम्पन्न होगा। कभी धर्म का दिखावा न करें। सारे मंगल , सारे सुख भीतर ही समाये हुवे हैं। अभ्यास करते जाएँ , धर्म को पूर्ण प्राप्त कर मंगल भाव को ग्रहण करें। अपने मंगल में लोक-मंगल समाया हुवा है।


लोक -मंगल में अपना मंगल समाया हुवा है। धर्म का जितना-जितना संवर्धन होगा उतना-उतना अधिक मंगल सधेगा। धर्म में सब का मंगल समाविष्ट है।--" मेरे अर्जित पुण्य में , भाग सभी का होय। मेरे सुख में शांति में, भाग सभी का होय। । सबका मंगल ,सबका मंगल सबका मंगल होय रे। । तेरा मंगल , तेरा मंगल , तेरा मंगल होय रे। ।*************************************************************


मन के चार बढ़े दुश्मन

प्रज्ञा के पुष्ट होते-होते स्थित-प्रज्ञ 


स्थित-प्रज्ञ ही प्रज्ञा में होता है। प्रज्ञा का अर्थ --प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। मन और शरीर का गहरा सम्बन्ध है। ये  शरीर और चित्त दोनों से उत्पन्न होते हैं। यदि चित्त पर क्रोध आया तो शरीर में अग्नि-प्रधान परमाणु बनते हैं। भय आया तो सारा शरीर प्रकम्पित होता है ,अत:वायु प्रधान परमाणु उत्पन्न होते हैं। चित्त पर जैसे संस्कार ढ़लते हैं , वैसे ही परमाणु बनते हैं।



 शरीर में जो परमाणु बन रहे हैं, वे चाहे भोजन के कारण हों , बाह्य वातावरण के कारण हों या पुराने हों, यदि उन्हें द्रष्टा -भाव एवं तटस्थ -भाव से देखने लगेंगे तो नये संस्कार नहीं बनेंगे और साथ ही पुराने भी दूर हो जाएँगे। इस प्रकार प्रज्ञा के पुष्ट होते-होते स्थित-प्रज्ञ हो ही जायेंगे। जीवन्मुक्त हो ही जायेंगे। समता में स्थिर होने पर क्रिया तो करेंगे पर प्रतिक्रिया नहीं होगी। क्रिया सदा रचनात्मक होती है, विधेयात्मक होती है एवं कल्याणकारिणी होती है। हमारे मन के चार बढ़े दुश्मन हैं , उनसे सजग रहने की आवश्यकता है। यें राग,द्वेष, आलस्य, बेचैनी एवं आलस्य हैं।^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ 



रविवार, 22 दिसंबर 2013

ऋत- ऋतु

ऋत अटल एवं निश्चल एवं ऋतु की स्थिति काल-विशेष पर आधारित 




ऋतु की स्थिति काल-विशेष पर आधारित होती है। एक रूप से ऋत का ही सार्वकालिक रूप ऋतु है। ऋतु प्राकृतिक एवं सतत गतिशील स्थिति का परिचायक है। ऋत भी अटल एवं निश्चल है। ऋत सदा - सदा के लिए सत्य ही रहता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। 





 सूर्य का एक चक्र वर्ष -भर का होता है, अर्थात वर्ष -भर में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा पूर्ण करती है। वर्ष-भर में छ: ऋतुएँ होती हैं। प्रत्येक वर्ष में दो-दो मास प्रत्येक ऋतु के होते हैं। यहाँ गणना हिंदी के मास से की गयी है। साथ लगभग गणना के लिए अंग्रेजी महीनों का भी संकेत भी दे दिया गया है। मार्गशीर्ष -पौष (दिसम्बर-जनवरी )में हेमंत ;माघ-फाल्गुन (फरवरी-मार्च)में शिशिर ;चैत्र-वैशाख (अप्रेल-मई)में वसंत ;ज्येष्ठ-आषाढ़ (जून-जुलाई )में ग्रीष्म ;श्रावण एवं भांदों में वर्षा (अगस्त-सितम्बर ); आश्विन -कार्तिक (अक्टूबर -नवम्बर) में शरद ऋतु होती है । इस प्रकार ऋतु -चक्र चलता रहता है ।




 प्रत्येक ऋतु अपने समय पर आती -जाती हैं । प्रत्येक ऋतु का अपना शील होता है । प्रत्येक ऋतु अपना प्राकृतिक परिवेश विशेष रूप से रखती है । यह प्राकृतिक परिवेश ही धरा को शश्य-श्यामल बना देता है । ऋतु- परिवर्तन भारत की अपनी निजी विशेषता है ;परिणामत: यह देव - भूमि है । इस देव-भूमि को कोटिश: प्रणाम।**************************************************************************



शोर एक मृत्यु का धीमा कारक

ध्वनि - प्रदूषण के कारण अनेक लोग रोग- ग्रस्त 



मूलत: भाषा - प्रयोग सामाजिक सम्पर्क का सूत्र था , विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम था , किन्तु आज वह समूचे पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक चुनौती बन गया है। शब्द से ही सृष्टि का उद्भव मानने वालों के लिए शब्द ब्रह्म है। ध्वनि वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया है कि अधिक कोलाहल मनुष्य के ज्ञान - तन्तुओं को क्षतिग्रस्त करता है।


 हमारे श्वास कि आवाज १० desibals है। हमारे कानों कि संरचना ही ऐसी है कि ३०- ९० desibals वाली आवाज जब होती है, तो दो स्नायु सिकुड़ते हैं और वे भीतर की श्रवण - इन्द्रिय को संदेश पहुंचाते हैं। हमारा शरीर और मन दोनों एक नाजुक लय के साथ गतिशील रहते हैं। ध्वनि - प्रदूषण के कारण अनेक लोग रोग- ग्रस्त हो रहे हैं।


 वास्तव में शोर एक मृत्यु का धीमा कारक है, इस जानलेवा शोर के आतंक में आज अधिकांश आबादी जी रही है। ध्वनि- प्रदूषण को रोकने के लिए बोलना तो बंद नहीं किया जा सकता ; पर उसपर संयम अवश्य ही रखा जा सकता है। भगवान महावीर का सम्यक- वाणी का सिद्धांत इस सन्दर्भ में अवश्य ही उपयोगी हो सकता है।


 इसके अनुसार अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए। बोलना अपेक्षित हो तो विवेक पूर्वक बोलो। रात्रि के मध्यवर्ती दो प्रहरों में ऊंचे स्वर से मत बोलो , क्योंकि यह समय प्राय; विश्राम एवं नींद का होता है। सामान्य व्यवहार में भी कटु और कर्कश शब्दों का प्रयोग मत करो तथा मितभाषी बनने का प्रयास करना चाहिए ।


 शब्द मन के टुकड़े-टुकड़े भी कर देता है और टूटे मन के तारों को भी जोड़ देता है। यह सब शब्दों के संयोग , उच्चारण , लय, ताल और आरोह- अवरोह पर अधिक निर्भर करता है। आवाजें जहाँ हानिप्रद होती हैं , वहां मधुर धीमी , और सुरीली आवाजें लाभप्रद भी हैं। ध्वनि- वैज्ञानिकों के अनुसार जितनी प्राकृतिक ध्वनियाँ हैं , वे सब बहुत लाभकारी होती हैं।


 जैसे-- वर्षा होना , वृक्षों से टकराकर हवा का बहना , पक्षियों का गाना , समुद्र का उफनना , झरनों का कल-कल करना आदि ; इनकी आवाजें स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करती हैं। अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि धीमी और मधुर ध्वनियों की तरंगों से ज्ञान- तन्तुओं का दबाव और तनाव कम होता है। 



अनावश्यक नहीं बोलना , धीमे स्वर से बोलना , वाहनों की ऊंची आवाजों को नियंत्रित करना , लाउड-स्पीकर का कम से कम प्रयोग आदि के साथ- साथ मधुर एवं सहज संगीत सुखदायी होता है। मंत्रोच्चारण के माध्यम से वातावरण में विशिष्ट प्रकार की ध्वनि- तरंगों को उत्पन्न कर ध्वनि-प्रदूषण के कुप्रभाव को रोका जा सकता है। उत्तम ही कथन है-- " भूल गये भाषा अदृश्य की , अकथ कथा कहने की । बकते- बकते भूल गये हम , महिमा चुप रहने की ॥ "***************************************