गुरुवार, 26 सितंबर 2013

सुखार्थियों के लिए विद्या नहीं

शरीर, मन और समय रूपी तीन सम्पदाएँ मनुष्य-मात्र को एक समान मिली हैं 




विद्यार्थी-जीवन में ही कुछ सीखने , कुछ जानने तथा कुछ बनने का सतत सार्थक प्रयास इसी समय में होता है। विद्यार्थी के लक्षण इस प्रकार हैं--- काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव । अल्पाहारी , गृहत्यागीविद्यार्थी पञ्च लक्षणं॥ " काकचेष्टा-- अर्थात जिस प्रकार कौवा जमीन पर पड़े हुवे किसी खाद्य पदार्थ को देखकर सहसा ही वहां पहुंच जाता है तथा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार विद्यार्थी भी ज्ञान की प्राप्ति हेतु तीव्र उत्साह के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करता चले। वकोध्यानं --- जिस प्रकार बगुला तालाब या नदी के किनारे एक पैर पर खड़ा होकर ध्यानमग्न रहता है। मछली आने पर तुरंत अपना ग्रास बनाकर पुन: ध्यानस्थ हो जाता है। विद्यार्थी भी विद्या अध्ययन में लगा रहे तथा ज्ञान-विज्ञान की बातों को ग्रहण करते हुवे निरंतर प्रगति-पथ पर बढ़ता रहे। श्वान-निद्रा--- जैसे सोये हुवे कुत्ते के पास से धीरे-से गुजरने पर भी वह जग जाता है, उसी प्रकार विद्यार्थी भी अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में सदैव सावधान व जागरूक रहे। अल्पाहारी--- विद्यार्थी जीवन तपस्या और साधना का जीवन है। एक अध्ययनशील विद्यार्थी सर्वदा सादा और सात्विक एवं अल्प भोजन लेने वाला होता है। गृहत्यागी--- एक आदर्श विद्यार्थी विद्यार्जन हेतु गृह-त्याग में संतोष करता है। उसे एक तपस्वी के समान जीवन व्यतीत करना होता है।विशेषत: कहा गया है कि -- "सुखार्थीनाम कुतो विद्या विद्यार्थिनाम च कुतो सुखम " अर्थात सुखार्थियों के लिए विद्या नहीं और विद्यार्थियों के लिए सुख नहीं है।


एक लड़का सड़क के लैम्प के सहारे पढ़ रहा था। एक परिचित ने कहा , ' इतना कष्ट उठाने से तो नौकरी के लो।' विद्यार्थी बोला , ' महोदय! आप नहीं जानते , यह मेरी साधना का एवं कसौटी का समय है। कठिनाई है तो क्या, बौद्धिक क्षमता अब न बढ़ाई गयी तो फिर ऐसा अवसर कब मिलेगा? ' इस तरह का उत्तर देने वाले महान शिक्षा-शास्त्री ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे। एरिस्ट्रायस की धार्मिक विषयों में बड़ी रूचि थी , अतेव उसके आग्रह पर उसके पिता ने उसे जीनो की पाठशाला भेज दिया। जब वह लौटा , तो पिता ने पूछा --' वहां क्या सीखा ?' उसने उत्तर दिया -- ' बाद में ज्ञात हो जायेगा । ' एक दिन किसी बात पर रुष्ट होकर पिता ने उसे खूब पीटा। उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया, न कोई उत्तर दिया। पिटने के बाद फिर से दत्तचित्त हो अपने काम में लग गया। न आत्महत्या की धमकी दी , न घर से भागने की। पिता का हृदय भर आया, उन्होंने पुत्र से क्षमा मांगी , तब पुत्र एरिस्ट्रायस ने कहा , " पिताजी! मुझे गुरु ने नैतिकता , सदाचार, सहिष्णुता और ध्येय-निष्ठा सिखाई है। मैंने उसी का पालन किया। " पिता का हृदय ऐसे शिक्षक के प्रति कृतज्ञता से भर गया।




पिता इतना गरीब था कि बच्चे की फीस चुकाना भी मुस्किल और लड़का इतना लगनशील और परिश्रमी कि स्कूल में पढ़ने के साथ-साथ उसने क्लर्क की नौकरी भी कर ली प्रतिमास सात रूपये बचाए भी। टोरंटो (कनाडा) के नाई परिवार में जन्मा टाक्सन नामक यही लड़का अपनी लगन , दृढ़ निश्चय और परिश्रम के कारण १२८ समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं , १५ रेडियो व टेलीविजन स्टेशनों, १५० व्यापारिक तकनीकी पत्रिकाओं , २ प्रकाशन संस्थाओं , २ यात्रा-एजंसियों का मालिक बना। मीठे फल खाने की इच्छा से दो मित्र एक बगीचे में गये। माली ने कहा, " इस बगीचे के मालिक की आज्ञानुसार यहाँ एक दिन ही ठहर सकते हो , सो शाम तक जितने फल खा सकते हो खा लो।" दोनों अपनी रूचि के फल खाने चल दिए। एक ने पेट भरकर फल खाए। दूसरा देखता रहा , पौधों के लिए कैसी मिटटी चाहिए ? पानी कैसे लगाया जाए ? शाम तक उसने एक न्य बगीचा लगाने की सारी बातें जान लीं , फल एक भी नहीं खाया। घर जाकर दूसरा बाग़ लगा लिया। यह संसार भी ऐसा ही है। मनुष्य यहाँ एक निश्चित अवधि कि लिए आता है, जी संसारिक आकर्षण में पड़े हैं , वे तो पहले युवक की भांति हैं। समझदार वे हैं , जो दूसरे युवक की तरह परिस्थितियों का अध्ययन कर जीवन का सच्चा लक्ष्य प्राप्त करते हैं।


किसी भी कार्य की सफलता के लिए लगन , निष्ठा , कड़ी मेहनत , दूरदृष्टि , पक्का इरादा और अनुशासन आवश्यक है। जब मनुष्य की सारी शक्तियाँ विचारों की, समय की, शरीर की, साधन की एक ही लक्ष्य की ओर लग जाती हैं , तो सफलता प्राप्ति में कोई संदेह नहीं रहता। अपनी शक्ति को पहचानें। अपने लक्ष्य को चुनौती के रूप में स्वीकारें। संकल्प करें, मैं अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करूंगा। एक बार, दो बार नहीं , हजार बार इस बात की गिरह बांध लीजिए कि शक्ति के बिना सफलता नहीं मिलती। अपने उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो उठिए, अपनी शक्तियों को बढ़ाइए , अपने अंदर लगन , कर्मण्यता ओर आत्मविश्वास पैदा कीजिए। गारफील्ड स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ पुस्तकालय में नौकरी भी करता ओर ज्ञानवर्द्धक साहित्य भी पढ़ता। युवा होते- होते ग्रेजुएट बन गया और दूसरी अच्छी नौकरी भी मिल गयी। बचे हुवे समय में वह समाज-सेवा के अनेक कार्य करता। उसके स्वभाव और चरित्र से उस क्षेत्र के लोग परिचित हो गये थे। प्रगति-पथ की अनेक मंजिलें पार करते हुवे गारफील्ड अमेरिका की राज्य-सभा का सदस्य चुना गया। अगले चुनाव में राष्ट्रपति पद मिला। यह सफलता उसे अपनी योग्यता पर सेवा-साधना के कारण उपलब्द्ध हुई थी।




सफलता के तीन स्वर्णिम सूत्र हैं। शरीर, मन और समय रूपी तीन सम्पदाएँ मनुष्य-मात्र को एक समान मिली हैं। शारीरिक और मस्तिष्कीय संरचना को गढ़ने में परमात्मा ने अपनी ओर से थोडा-सा भी भेद -भाव नहीं रखा है । समाज के अधिकांश व्यक्तियों का जीवन-क्रम लक्ष्य- विहीन होता है। सफल व्यक्तियों को देखकर उनका मन भी वह सौभाग्य प्रप्त करने के लिए ललचाता रहता है। कभी एक दिशा में बढ़ने की सोचते हैं और कभी दूसरी। विद्वान् को देखकर विद्वान् , कलाकार को देखकर कलाकार बनने की ललक उठती है।कभी धनवान होने और कभी बलवान बनने की बात सोचते हैं । अपना कोई एक सुनिश्चत लक्ष्य निधारित नहीं कर पाते। बन्दर की भांति उनका मन भटकता रहता है। फलत: एक दिशा में क्षमताओं का नियोजन नहीं हो पाता। बिखराव के कारण कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता। असफलता ही हाथ लगती है। जिस तरह देशाटन के लिए नक्षा और जहाज चालक को दिशासूचक की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य-जीवन में लक्ष्य का निर्धारण अति आवश्यक है। क्या बनना और क्या करना है, यह बोध निरंतर बने रहने से उसी दिशा में प्रयास चलते हैं। एक कहावत है कि " जो नाविक अपनी यात्रा के अंतिम बन्दरगाह को नहीं जानता , उसके अनुकूल हवा नहीं बहती।" अर्थात समुद्री थपेड़ों के साथ वह निरुद्देश्य भटकता रहता है। लक्ष्य-विहीन व्यक्ति की भी यही दुर्दशा होती है। सफलता का दूसरा सूत्र है-- अभिरुचि का होना। जो लक्ष्य चुना गया है, उसके प्रति उत्साह और उमंग का जगाना एवं मनोयोग से कार्य करना। सफलता अर्जित करने का तीसरा सूत्र है अपनी क्षमताओं का सुनियोजन एवं सदुपयोग। समय, उपलब्ध सम्पदाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर, मन और मस्तिष्क की क्षमता का तथा समयरूपी संपदा का सही उपयोग असामान्य उपलब्धियों का कारण बनता है। हमारे जीवन में प्रयत्न और परिश्रम कि अत्यधिक आवश्यकता है। परिश्रम को हम कल्पवृक्ष की संज्ञा दे सकते हैं, जिस तरह कल्पवृक्ष के निकट जाने पर अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है उसी प्रकार परिश्रम के सहारे हम मनोवांछित फल को प्राप्त कर सकते हैं।


संसार में जहाँ कहीं हम बलबुद्धिविद्या एवं भौतिक सम्पदाएँ देखते हैं , वे सभी परिश्रम की ही देन हैं आध्यात्मिक उपलब्धि भी परिश्रम एवं प्रयत्न से ही आती है। महाकवि तुलसीदास ने अपनी ' रामचरित मानस' में लिखा है--- तप आधार सब सृष्टि भवानी', अर्थात सृष्टि की नींव तप पर आधारित है , वह परिश्रम पर टिकी हुयी है। तभी तो हमारे ऋषियों ने अथक एवं अनवरत परिश्रम पर बल देते हुवे ज्ञान-गंगा की अजस्र धाराएं बहायीं , जिसमें अवगाहन कर हम युग-युग से कृतार्थ होते आ रहे हैं। परिश्रम के दो प्रकार हैं -- शारीरिक परिश्रम एवं मानसिक परिश्रम। जीवन में शरीरिक तथा मानसिक दोनों परिश्रमों की आवश्यकता है



 इन दोनों के समावेश से सम्पूर्ण विकास संभव है। जिस तरह रात-दिन , नर-नारी, व्यक्ति-समाज अन्योन्याश्रित हैं , उसी तरह शारीरिक और मानसिक श्रम एक दूसरे पर आधारित हैं। श्रम एक देवता है। जो इसकी आराधना करता है , वह स्वास्थ्य, आनन्द , सम्पन्नता की उपलब्धियां प्राप्त करता है। अत: विद्यार्थी-जीवन श्रम-साध्य साधना है। इसी में अपना लक्ष्य निर्धारित कर भविष्य को सुरक्षित रखा जा सकता है। शिक्षक यदि युग निर्माता है तो विद्यार्थी स्वयं अपना और राष्ट्र का भाग्य-निर्माता है। >>>><<<<<<\


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