सोमवार, 16 सितंबर 2013

सुंदर एवं सुदर्शन आकृति भी कुरूप

क्रोध बुरा है , पाप है और दोनों का जलाता ताप है 



अग्नि के प्रमुखत: तीन रूप होते हैं _ ये जठराग्नि , कामाग्नि और क्रोधाग्नि के रूप में विद्यमान हैं । जठराग्नि को अन्न द्वारा शांत कर लिया जाता है और कामाग्नि को भी शांत करने के लिए विधाता ने सृष्टि में रूप को स्थापित किया है । पर क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने के उपाय के विषय में कुछ स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं हो पाता । गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि काम के भाव से ही क्रोध का भाव उत्पन्न होता है । और यह काम का भाव व्यापक रूप में कामनाओं की आपूर्ति न होने पर क्रोध के रूप में जन्म लेता है ।


 मुनि नयन सागर जी महाराज ने एक मुक्तक के रूप में स्पष्ट किया है _ ' क्रोध बुरा है , पाप है और दोनों का जलाता ताप है । जहर है , दुःख है क्रोध ; क्रोध आंसू भरा अभिशाप है । ' क्रोध और प्रतिशोध के आवेग अस्थायी होते हैं । ये बहुत देर तक टिक नहीं सकते । अत: शांत चित्त होकर उनका प्रतिकार करना चाहिए । क्रोध चित्त को विक्षुब्द्ध कर देता है । क्रोध का आवेग इतना भयंकर एवं घातक सिद्ध होता है कि मनुष्य अनेक बिमारियों से ग्रस्त हो जाता है और अधिक आवेश में उसकी मृत्यु भी हो सकती है ।




क्रोध कक्रोध का  मद इतना अधिक होता है कि व्यक्ति पागल-सा हो जाता है । वह मूर्छित होकर अनाप-शनाप कृत्य करने लगता है । क्रोधावस्था में व्यक्ति को यह आभास ही रहता कि उस समय वह क्या कर रहा है और बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता । क्रोध एक छिपा शत्रु है , जो उसके ह्रदय में ही सदा विद्यमान रहता है । इसका शारीरिक स्वास्थ्य पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और मनुष्य इसके कारण उत्साह-भंग होने के कारण रोगी हो जाता है । परिणामत: भूख मंद पड़ जाती है तथा व्यक्ति की पाचन-शक्ति पर अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है । क्रोधात्मक आवेश के कारण स्वस्थ , सुंदर एवं सुदर्शन आकृति भी कुरूप बन जाती है ।*******


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