गुरुवार, 26 सितंबर 2013

अश्लील साहित्य अध:पतन का कारण

अश्लील साहित्य अध:पतन का कारण 

चरित्र हमारी बहुमूल्य सम्पत्ति है। सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता को ही चरित्र कहा जाता है। जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं , उन्हीं को चरित्रवान कहा जाता है।संयत इच्छा-शक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। यह प्रसिद्ध कथन है कि जब धन चला गया तो कुछ भी नहीं गया , जब स्वास्थ्य चला गया तो कुछ चला गया, पर चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया

 समस्त मानव जीवन का कुछ सार है, तो वह है -- मनुष्य का चरित्र। स्वेट मार्टेन ने लिखा है -- ' संसार में ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है , जो धन के लिए अपने आपको बेचते नहीं , जिनके रोम-रोम में ईमानदारी भरी हुयी है, जिनके भीतर सत्य का दीपक प्रकाशित है, जिनकी अंतरात्मा दिग-दर्शक यंत्र की सूईं के समान एक उज्ज्वल नक्षत्र की ओर देखा करती है, जो सत्य को प्रकट करने में क्रूर राक्षस का सामना करने से भी नहीं डरते हैं; जो कठिन कार्यों को देखकर हिचकिचाते नहीं , जो अपने आप का ढिंढोरा पीटे बिना ही साहस पूर्वक कार्य करते जाते हैं , मेरी दृष्टि में वे ही चरित्रवान आदमी हैं।



उत्कृष्ट चरित्र ही मानव जीवन की कसौटी है। यों तो धन, विद्या, कला, शक्ति आदि का भी मनुष्य के जीवन में अपना स्थान एवं महत्त्व है, किन्तु धर्म-बुद्धि द्वारा यदि इनका नियन्त्रण नहीं होता , तो विपरीत ही सब मनुष्य और समाज के लिए अहितकर सिद्ध हो जाते हैं। मनुष्य निर्धन हो , अधिक विद्वान् , शक्ति-प्रभुता सम्पन्न न भी हो तो भी जीवन की उपयोगिता और महत्ता में कोई कमी नहीं आती। इसके विपरीत व्यक्ति इन सबसे सम्पन्न है, लेकिन चरित्रवान नहीं है , तो वह सबसे दीन-हीन  मलिन है। इससे न अपना भला हो सकेगा और न समाज का। उत्तम विचार वाला व्यक्ति समाज के लिए एक बहुत बड़ी सम्पत्ति है।



 विश्वकवि टैगोर के शब्दों में प्रतिभा से भी उच्च चरित्र का स्थान है। स्माइल्स के कथन के अनुसार -- " चरित्र एक सम्पत्ति है, अन्य संपत्तियों से भी महान। अन्य सम्पत्तियां अस्थायी हैं , परन्तु चरित्र की सम्पत्ति मानव जीवन की स्थायी निधि है। " जीवन की स्थायी सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है, इस आधार के बिना जैसे-तैसे सफलता प्राप्त कर भी ली जाए तो वह अधिक देर तक स्थायी नहीं हो सकती। व्यक्ति, राष्ट्र , परिवार आदि की स्थायी समृद्धि और विकास हमारे चारित्रिक स्तर पर ही निर्भर करता है। चारित्रिक हीनता से ही शक्ति, समृद्धि और विकास का विघटन होता है। हमारे विचारइच्छाएँ , आकांक्षाएं और आचरण जैसे हैं , उन्हीं के अनुरूप हमारे चरित्र का गठन होता है। साथ ही जैसा हमारा चरित्र होता है वैसी ही हमारी दुनिया बनती है। हमारा जीवन, हमारा संसार सबकुछ हमारे चरित्र की ही देन है।


हम धनवानों की जी हजूरी करते हैं , नेताओं का मुंह तकते हैं , पंडितों की वाह-वाह करते हैं , किन्तु चरित्रवान सदाचारी व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं देता। यह बहुत बड़ी सामाजिक विकृति है। इससे लोगों में चरित्र से विमुख होकर बाह्य सफलताएँ अर्जित करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। जबतक हम अपने चरित्र के प्रति जागरूक नहीं होंगे तथा चरित्र को सर्वोपरि नहीं मानेंगे , तबतक हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विषमताएं दूर नहीं होंगी।



 साथ ही हमारी समस्याओं का समाधान भी नहीं होगा। जिन देशों में स्त्री-पुरुषों के बीच शील मर्यादाएं निश्चित नहीं , वहां भारी सामाजिक पतन उत्पन्न हुवा पाया जाता है। पाश्चात्य देश इस कुटिल मानसिकता और सामाजिकता में ग्रसित होने के कारण अपना श्रेय खो चुके हैं। पाश्चात्य सिद्धांतों पर आधारित इस घृणित दुष्प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति और समाज कम अस्त-व्यस्त नहीं हुवा। इस विषैली कामुकता की दुर्भाग्यपूर्ण स्वच्छन्दता ने आज सारे सामाजिक ढांचे को खोखला कर दिया है।




प्राचीन काल में हमारा भारत विश्वगुरु होने का गौरव प्राप्त कर सका था। उसका कारण भी उसकी सतचरित्रता और महान मानवीय नैतिक मूल्यों की रक्षा कर पाने का ही सामर्थ्य ही था। सच तो यह है कि चारित्रिक ह्रास ही क्रमशहमारे देश के पतन और पराधीनता का कारण बना। उसके बाद इस सत्य को समझ कर जब देश में नैतिक मूल्यों और चरित्र की रक्षा का प्रयास प्रारम्भ किया , तो उसे वह शक्ति प्राप्त हो सकी, जिसके बल पर एक बार फिर अपने देश को पराधीनता से स्वतंत्र कराया जा सका। चरित्रनिर्माण में साहित्य का बड़ा महत्त्व है। महापुरुषों की जीवन-कथाएँ पढ़ने से स्वयं भी वैसा बनने की इच्छा होती है। विचारों की दृढ़ता व शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्मनिर्माण में बड़ा योगदान करता है। इससे आंतरिक विशेषताएँ जाग्रत होती हैं। अच्छी पुस्तकों से प्राप्त प्रेरणा सच्चे मित्र का कार्य करती हैं। इससे जीवन की सही दिशा का ज्ञान होता है। इसके विपरीत अश्लील साहित्य अध:पतन का कारण बनता है।


चरित्र-रक्षा प्रत्येक मूल्य पर की जानी चाहिए। इसलिए छोटे-छोटे कार्यों की भी उपेक्षा करना ठीक नहीं। हमारी वेश-भूषा , खानपान, उठाना, बैठना, वार्तालाप, मनोरंजन आदि के समय भी मर्यादाओं का पालन होना चाहिए। वेशभूषा और आहार की सात्विकता,सरलता और सादगी से विचार भी वैसे ही बनते हैं। मादक और उत्तेजक पदार्थों से चरित्र-बल क्षीण होता है और पशु-वृत्ति जाग्रत होती है।

चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति तथा सम्पदा है। संसार की अनंत सम्पदाओं का स्वामी होने पर भी यदि कोई चरित्र-हीन है तो वह हर अर्थ में विपन्न ही माना जाएगा। आज समूची व्यवस्था इस प्रकार से और इस सीमा तक भ्रष्ट हो चुकी है कि चाह कर भी किसी व्यक्ति के लिए सच्चरित्र एवं सभी तरह के नैतिक मूल्यों से सम्पन्न बनकर रह पाना सम्भव नहीं रह गया है। इसी कारण आज चारों ओर मूल्यहीनता, आचार-विचार की भ्रष्टता आदि का साम्राज्य स्थित है। कहीं भी उसका अंत -किनारा नहीं दिखाई दे रहा है। एक बार फिर से सहज मानवीय भावनाओं , मूल्यों और चरित्र को जगाकर ही आज के अराजकतापूर्ण वातावरण से छुटकारा पाया जा सकता है।

जन-नेतृत्व करने अथवा समाज कि गति परिवर्तित कर देने की शक्ति केवल चरित्र से ही प्राप्त हो सकती है। चरित्र-बल संसार में सब बलों से श्रेष्ठ और सारी संपत्तियों में मूल्यवान सम्पत्ति है। इस नश्वर मानव-जीवन में चरित्र ही अमर उपलब्द्धि है। यह मनुष्य को नर से नारायण बना सकती है। अस्तु, आज के समय में चरित्र के पीछे छिपी हितकारी भावना को भी देखना आवश्यक है। सत्य जीवन एवं चरित्र का भी अहं रूप है। धर्म और नीति में अंतर होता है। कई बार धर्म की स्थिति के साथ सामंजस्य करना पड़ता है। नीति की भावना से कार्य करना होता है। अत: नीति के अनुसार सत्य-धर्म को अस्वीकार करके प्रिय -सत्य को ही स्वीकार करना श्रेयस्कर होता है। इसलिए नीति-शास्त्र में सत्य के स्थान पर प्रिय बोलने पर बल दिया गया है। फलत: सामंजस्य को स्वीकार करना अच्छा है। चरित्र तो अच्छा है ही पर सामंजस्य उससे भी अच्छा कहा जा सका है। कट्टरता कहीं भी अच्छी नहीं कही जा सकती, चाहे वह चरित्र के स्तर पर ही क्यों न हो।


चरित्र हमारी बहुमूल्य सम्पत्ति है। सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता को ही चरित्र क


हा जाता है। जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं , उन्हीं को चरित्रवान कहा जाता है।संयत इच्छा-शक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। यह प्रसिद्ध कथन है कि जब धन चला गया तो कुछ भी नहीं गया , जब स्वास्थ्य चला गया तो कुछ चला गया, पर चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया

समस्त मानव जीवन का कुछ सार है, तो वह है -- मनुष्य का चरित्र। स्वेट मार्टेन ने लिखा है -- ' संसार में ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है , जो धन के लिए अपने आपको बेचते नहीं , जिनके रोम-रोम में ईमानदारी भरी हुयी है, जिनके भीतर सत्य का दीपक प्रकाशित है, जिनकी अंतरात्मा दिग-दर्शक यंत्र की सूईं के समान एक उज्ज्वल नक्षत्र की ओर देखा करती है, जो सत्य को प्रकट करने में क्रूर राक्षस का सामना करने से भी नहीं डरते हैं; जो कठिन कार्यों को देखकर हिचकिचाते नहीं , जो अपने आप का ढिंढोरा पीटे बिना ही साहस पूर्वक कार्य करते जाते हैं , मेरी दृष्टि में वे ही चरित्रवान आदमी हैं।

उत्कृष्ट चरित्र ही मानव जीवन की कसौटी है। यों तो धन, विद्या, कला, शक्ति आदि का भी मनुष्य के जीवन में अपना स्थान एवं महत्त्व है, किन्तु धर्म-बुद्धि द्वारा यदि इनका नियन्त्रण नहीं होता , तो विपरीत ही सब मनुष्य और समाज के लिए अहितकर सिद्ध हो जाते हैं। मनुष्य निर्धन हो , अधिक विद्वान् , शक्ति-प्रभुता सम्पन्न न भी हो तो भी जीवन की उपयोगिता और महत्ता में कोई कमी नहीं आती। इसके विपरीत व्यक्ति इन सबसे सम्पन्न है, लेकिन चरित्रवान नहीं है , तो वह सबसे दीन-हीन  मलिन है। इससे न अपना भला हो सकेगा और न समाज का। उत्तम विचार वाला व्यक्ति समाज के लिए एक बहुत बड़ी सम्पत्ति है। विश्वकवि टैगोर के शब्दों में प्रतिभा से भी उच्च चरित्र का स्थान है। स्माइल्स के कथन के अनुसार -- " चरित्र एक सम्पत्ति है, अन्य संपत्तियों से भी महान। अन्य सम्पत्तियां अस्थायी हैं , परन्तु चरित्र की सम्पत्ति मानव जीवन की स्थायी निधि है। " जीवन की स्थायी सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है, इस आधार के बिना जैसे-तैसे सफलता प्राप्त कर भी ली जाए तो वह अधिक देर तक स्थायी नहीं हो सकती। व्यक्ति, राष्ट्र , परिवार आदि की स्थायी समृद्धि और विकास हमारे चारित्रिक स्तर पर ही निर्भर करता है। चारित्रिक हीनता से ही शक्ति, समृद्धि और विकास का विघटन होता है। हमारे विचारइच्छाएँ , आकांक्षाएं और आचरण जैसे हैं , उन्हीं के अनुरूप हमारे चरित्र का गठन होता है। साथ ही जैसा हमारा चरित्र होता है वैसी ही हमारी दुनिया बनती है। हमारा जीवन, हमारा संसार सबकुछ हमारे चरित्र की ही देन है।

 सत्य जीवन एवं चरित्र का भी अहं रूप है। धर्म और नीति में अंतर होता है। कई बार धर्म की स्थिति के साथ सामंजस्य करना पड़ता है। नीति की भावना से कार्य करना होता है। अत: नीति के अनुसार सत्य-धर्म को अस्वीकार करके प्रिय -सत्य को ही स्वीकार करना श्रेयस्कर होता है। इसलिए नीति-शास्त्र में सत्य के स्थान पर प्रिय बोलने पर बल दिया गया है। फलत: सामंजस्य को स्वीकार करना अच्छा है। चरित्र तो अच्छा है ही पर सामंजस्य उससे भी अच्छा कहा जा सका है। कट्टरता कहीं भी अच्छी नहीं कही जा सकती, चाहे वह चरित्र के स्तर पर ही क्यों न हो।%%%%%%%%%%%%%%

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