शनिवार, 28 सितंबर 2013

संतान-लाभ एक दुर्लभ वस्तु

आज के पुत्र के हाथ में कर्म नहीं अपितु मात्र कर्म- कांड ही रह गया है 





संतान-लाभ एक दुर्लभ वस्तु मानी गयी है। आत्माभिव्यक्ति और आत्मोपलब्धि के साथ ही आत्मविस्तार का रहस्य भी संतान की इच्छा में निहित है। विकासोन्मुख प्रकृति के भीतर ही ऐसा कारण है कि जीव मात्र अपनी परम्परा को आगे बढाना चाहता है ; स्वयं को इस रूप में देखने के लिए संघर्ष करता रहता है। सभी प्राणियों में संतान की इच्छा का पूर्ण वेग देखा जाता है।


 नारी जाति में तो मातृत्व की दुर्दमनीय कामना भरी ही होती है। कीट - पतंगों , पशु - पक्षियों में भी संतान के प्रति मोह किसी न- इसी रूप में रहता ही है। यह सभी ज्ञान - सापेक्ष है , किन्तु संतान प्राप्त करने के बाद उसके पालन - पोषण का ज्ञान निरपेक्ष है। कैसे सही तरीके से संतान का पालन - पोषण किया जाये यह ज्ञान जीवों में मानव को छोड़ कर सहज रूप से ही उत्पन्न होता है। मानव पूर्ण विकसित होने के कारण अपने व्यवहार और तरीकों को अपने अनुभव और शिक्षा से पुष्ट करना चाहता है।


 मानव संतान की आवश्यकता एवं उसकी लालसाओं का पूरा ध्यान करता है। अपनी इच्छाओं को पूर्ण रूप से पुष्ट करने की क्षमता मानव में है। मानव यह मानकर नहीं चलता कि जैसा वह ठीक है , अपितु वह 'जैसा चाहता है वैसा ही हो ' इसके लिए कर्म एवं सघर्ष - रत रहता है। संतान के विषय में भी मानव की यही इच्छा पूर्ण शक्ति से काम करती है।


 मानव पुरुष और प्रकृति दोनों को चुनौती देता हुवा सदा आगे बड़ना चाहता है। अथर्ववेद के अनुसार आत्मवान और उपजाऊ नारी को संतान की उत्पत्ति के लिए प्रेरित किया गया है। ऋग्वेद में भी संतान की कामना को बलवती रूप में देखा जा सकता है। इसके लिए अनेक देवताओं से प्रार्थना की गयी है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि संसार में पुत्र - हीन के लिए कल्याण नहीं है-- ' नापुत्रस्य लोकोसि ' । 


पुत्र - लाभ के लिए अथर्ववेद में उपचार भी बतलाया गया है , जैसे शमी वृक्ष पर पीपल ऊग आया हो उसकी जड़ को गर्भाधान के दिन से यदि दो - तीन मास तक गर्भवती को दिया जाये तो निश्चय ही पुत्र की प्राप्ति होगी। दुग्ध - पान के विषय में वेद में इसके महत्त्व को प्रस्तुत किया है। सूर्य - अग्नितत्त्व और चन्द्र - सोमतत्त्व ये दोनों बालक की रक्षा करें। 

मन- प्राण - वाक हमारे भीतर तीन अग्नियाँ हैं। प्राण - व्यान - अपान और अग्नि - वायु - और सूर्य भी तीन अग्नियाँ हैं। चन्द्र सोमतत्त्व है। अग्नि के आघात से सोम ही प्रज्वलित होता है। प्रत्येक पदार्थ में बाहर से सोम आता है और वह अग्नि रूप होकर निकलता है। सोम बल प्रदान करता है , अग्नि से बुद्धि प्राप्त होती है। औषधि में सोम का निवास है , सोम - प्रधान अन्न-फल आदि को औषधि कहते हैं।


 औषधि वही है जो जो फल देकर पौधा तो नष्ट हो जाये पर फल बहुत काल तक बना रहे - फलपाकान्ता:' । गेहूँ , चावल , चना आदि सोम- प्रधान औषधि हैं। वनस्पति वह है जिसका पौधा टिकाऊ हो मगर फल जल्दी नष्ट हो जाएँ -- आम , अमरूद , जामुन , केला, आदि। वनस्पतियाँ अग्नि प्रधान हैं। अत: सोम बल देने वाला माना गया है और अग्नि बुद्धि को देने वाली अर्थात प्रखर बनाने वाली है। 

पुत्र बिना किसी प्रयोजन के ही प्रिय होता है , क्योंकि पिता स्वयं पुत्र के रूप में आता है। पुत्र किसी प्रयोजन के लिए नहीं , अपितु अपने ही प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय होते हैं। पुत्र का प्रयोजन युगानुसार बदलता रहा । वृद्धावस्था में माता - पिता का पालन करना ही प्रधान नहीं रहा , अपितु मरने के बाद नरक - यन्त्रणा से छुटकारा दिलाने का उत्तरदायित्व भी पुत्र पर ही आगया। 

' पु ' नामक नरक से पितरों का उद्धार करने वाला पुत्र हैइसीलिए ब्रह्मा जी ने संतान को पुत्र ही कहा है-- मनु के अनुसार -- ' तस्मात्पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयंभुवा '। आज जो समाज हमारे सामने है , वह धर्म - सूत्रों द्वारा रचित है , पुरोहितों द्वारा आरोपित है, वैदिक ऋषियों द्वारा नहीं है। यही कारण है कि संतान - पुत्र , जो कभी शत्रु - हन्ता था, वह पुत्र आज हाथ में पिंड, तिल , कुश आदि लेकर ' पु ' नरक की रक्षा का कारण बन गया है। आज के पुत्र के हाथ में कर्म नहीं अपितु मात्र कर्म- कांड ही रह गया है । सत से संत फिर संतान बनने का स्वरूप कहीं खो - सा गया है , मूल उद्देश्य ही भटक गया है। तथा रह गया है लोक से नहीं अपितु पर - लोक के भय से मुक्ति मात्र ही । vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv

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