शनिवार, 21 सितंबर 2013

बुरे लोग भोग-सामग्री पाकर भी उपभोग नहीं करते

अपने चित्त से जो कुछ करता है वही साथ जाता है 



मध्याह्न काल था। श्रावस्ती में भगवान बुद्ध थे। कोसलराज प्रसेनजित भगवान के पास आये और अभिवादन एवं वन्दना करने के उपरांत एक ओर बैठ गये। भगवान ने पूछा , " इस मध्याह्न काल में आप कैसे पधारे " "भन्ते ! श्रावस्ती के श्रेष्ठ गृहपति का देहावसान हो गया है। वह नि:सन्तान था।"
भगवान बुद्ध ने पूछा -- "उसके धन का क्या हुवा ?"
" भन्ते ! उसकी सब सम्पत्ति राज-भवन में भेज कर आ रहा हूँ। " राजा ने कहा।
" उसके पास क्या था ?"
"उसके पास अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राएँ थीं। रुपयों की गणना करना बहुत कठिन था। "
" अच्छा। " भगवान बुद्ध ने कहा।
"भन्ते ! यह महान शक्तिशाली क्या खाता था ? आप जरा विस्तार से बताइए। "


भगवान बुद्ध ने कहा---" राजन! वह घोर मट्ठा के साथ चावल की खुद्दी का भात खाता था। उसका वस्त्र विचित्र था। तीन जुटे हुवे टाट पहनता था। उसका रथ दर्शनीय था , वह जरा-जीर्ण मनुष्य की काया के समान लगता था तथा वह रथ तृण और पत्तों से छाया हुवा था। वस्तुत: यह बात ठीक ही है। बुरे लोग अत्यंत भोग-सामग्री पाकर भी उसका उपभोग नहीं करते । वे स्त्री, माता-पिता और सेवक एवं परिचारकों को भी सुख नहीं देते । 

इस प्रकार के प्राप्त धन का परिणाम यही होता है । राजा उन्हें ले जाता है , अग्नि उन्हें जला देती है तथा पानी उसे बहा ले जाता है । वह धन अप्रिय जनों के हाथ लग जाता है । बिना भोग किए धन व्यर्थ चला जाता है। राजन कल्पना कीजिए कि निर्जन स्थान में एक वापी है। उसका जल स्वच्छ एवं शीतल है। वह जल उत्तम घाटों से युक्त तथा रमणीय है। स्वास्थ्यकर होते हुवे भी उसमें कोई स्नान नहीं करता। वह जल न किसी के उपयोग में आता है और बिना उपयोग वह निर्मल पेय नष्ट हो जाता है। राजन ! सज्जन गण धन पाकर उससे स्वयं सुख प्राप्त करते हैं माता-पिता को सुख पहुंचाकर दान देते हैं। इस प्रकार भोग हुवा धन न तो राजकोष में जाता है और न उसे चोर ले जाते हैं तथा न वह नष्ट होता है। अत: यह धन ही सफल होता है। "


" राजन! यदि किसी जन-स्थान के समीप वापी है। उसके जल का उपयोग होता है। निस्संदेह उसका जल सफल होता है, शुद्ध होता रहता है। बंधा हुवा होकर भी वह जल नष्ट नहीं होता।" भगवान ने उस श्रेष्ठपति का पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनाते हुवे कहा --- " इसने भिक्षुओं को भिक्षा दिलवाई थी। वह कहता था कि श्रमण को भिक्षा दो और कहकर उठ जाता एवं चला जाता था। इसके बाद उसे घोर पश्चाताप होता था। सोचता था कि नौकर - चाकर बिना भिक्षा को दिए ही अन्न को खा जाते तो अच्छा था। "

" विचित्र बात है। " राजा ने चकित होकर कहा।
भगवान ने कहा--- " यही नहीं राजन ! उसने भाई के एकमात्र पुत्र को भी धन के लालच में मरवा दिया।परिणामत: उसने जो भिक्षा दी थी , उसके कारण सातवें स्वर्ग में जन्म लेकर सुगति पायी थी। वहां से पतित होने पर सात बार श्रावस्ती में श्रेष्ठी हुवा। उसने दान का पश्चाताप किया था। वही कारण था कि धन होने पर भी उसका उपभोग नहीं कर सका। भतीजे की हत्या के कारण वह निस्संतान हुवा "


" साथ में धन, धान्य, नौकर- चाकर कोई नहीं जाता। सब यहीं छूट जाते हैं। अपने शरीर से, अपने वचन से , अपने चित्त से जो कुछ करता है वही साथ जाता है राजन! वही उसका अपना होता है। उसी को लेकर जाता है और वही उसके पीछे छाया-तुल्य जाता है । परलोक में पुण्य ही प्राणियों का आधार होता है।"********


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