गुरुवार, 26 सितंबर 2013

दश-धर्म कल्प-वृक्ष जिस की जड़ क्षमा

 क्षमा के लिए बहुत उदार हृदय चाहिए 





दश-धर्म एक कल्प-वृक्ष  है। क्षमा जिसकी जड़ है, मृदुता स्कन्ध है, आर्जव शाखाएँ हैं ,उसको सिंचित करने वाला शौचधर्म जल है, सत्यधर्म पत्ते हैं, संयमतप और त्याग रूप पुष्प खिल रहे हैं, आकिंचन और ब्रह्मचर्य धर्म-रूप सुंदर मंजरियाँ निकल आई हैं।




 ऐसा यह धर्मरूप कल्पवृक्ष स्वर्ग और मोक्ष रूप फल को देता है। हे! धर्म कल्पतरु हम आप से प्रार्थना करते हैं कि हमें ज्ञानवती लक्ष्मी से युक्त कर मुक्तिरूप सर्वोत्कृष्ट फल प्रदान कीजिए। आर्यों ने क्रोध को अग्नि की उपमा दी है , उसे शांत करने के लिए क्षमा जल ही समर्थ है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है वैसे ही आत्मा का स्वभाव शांति है। जैसे अग्नि से संतप्त जल भी जला देता है, वैसे ही क्रोध से संतप्त आत्मा से धर्मरूपी सार जलकर ख़ाक हो जाता है। क्रोध से अँधा हुवा मनुष्य पहले अपने आप को जला देता है , इसके बाद दूसरों को जला सके या नहीं भी।


 क्षमा के लिए बहुत उदार हृदय चाहिए , चन्दन घिसने पर सुगंधि देता है , काटने वाले कुठार को भी सुगन्धित करता है और गन्ना पिलने पर रस देता है। उसी प्रकार से सज्जन भी घिसने-पिलने से अर्थात संघर्ष और तप से चमकते हैं। स्पष्टत: अग्निमय स्थान टिकता नहीं , अपितु जलकर ख़ाक हो जाता है , किन्तु जलमय स्थान टिके रहते हैं तभी तो असंख्य समुद्र और नदियाँ जहाँ की तहां स्थिर हैं। 




क्या क्रोध से शांति हो सकती है ? क्या वैर से वैर का नाश हो सकता है ? क्या खून से रंगा हुवा वस्त्र खून से साफ़ हो सकता है ? यदि अपकार करने वाले पर क्रोध आता है तो फिर हम क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करते ? क्योंकि यह क्रोध तो हमारे दोनों लोकों को विनष्ट करने वाला महाशत्रु है। हम निश्चय करें कि द्रव्य और भाव इन दोनों प्रकार के क्रोध को हम अपने आत्म-चिन्तन के बल से भेदन कर उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चित रूप से प्राप्त करेंगे।

शरणागत शत्रु भी हो वह भी क्षमा के योग्य है। महाभारत में बताया गया है कि युद्ध के समय जो कौरव-पांडवों में शर्तें हुयीं थीं , उसमें एक यह भी थी कि सूर्यास्त के समय युद्ध बंद हो जाए और एक यह थी कि युद्ध बंद होने के बाद दोनों पक्ष के लोग आपस में मिलें। आपस में राजा लोग युद्ध में लड़ते थे और अनन्तर दोनों एक-दूसरे से सौहार्द स्थापित करते थे। क्षमा और अक्रोध का इससे अच्छा अन्य कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। यह यमराज कभी भी आकर हमें अपना ग्रास बना सकता है। 



इसलिए क्षमाधर्म के लिए आजकल की प्रतीक्षा हमें नहीं करनी चाहिए। हमें जिससे भी कषाय और कल्मष हो उसको प्रेम-भाव से क्षमा कर देना चाहिए, साथ ही दूसरे से भी क्षमा करवाने का प्रयास करना चाहिए। यही इस क्षमा-धर्म का मूल सार है। क्षमा में बहुत ही निराकुलता और आत्मशांति बनी रहती है।


क्रोध से संचित हुयी शक्ति आत्मा को जला देती है, जैसे की आतिशी शीशा से छनकर सूर्य की किरणें केन्द्रित होकर वस्त्र में अग्नि लगा देती है तथा क्षमा-रूप शक्ति आध्यात्मिक रिद्धियों एवं आत्मिक तेज को प्रकट करती है। अत: जो हमें अच्छा लगे उसे अपनाना चाहिए। शास्त्रों के स्वाध्याय और महामंत्र स्मरण के बल से क्रोध को सहज ही जीता जा सकता है। आज से भाई-भाई में कलह, बाप-बेटे में कलह, माँ- बेटी में वैर, पति-पत्नी में अलगाव तथा सम्बन्धों में संवेदन-हीनता का भाव आदि यह सब असहनशीलता के ही परिणाम हैं।

 यदि आपस में छोटी-छोटी बातों को सहन करना सीख लें और आपस में क्षमा-भाव धारण करना सीख लें तो परस्पर में स्नेह का पूरा प्रवाह सदैव बहता रहे ओए सबका हृदय आनन्द रस से प्लावित रहे। इसलिए छोटी-छोटी बातों में क्रोध करने की आदत छोड़कर प्रेम का वातावरण निर्मित करके समाज,देश ओ घर में शांति स्थापित करनी चाहिए। आज के इस संघर्षमयी राष्ट्र में सहनशीलता की एवं क्षमा की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इस धर्म के बल से ही देश में सुख-शांति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


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