गुरुवार, 19 सितंबर 2013

जीवन में संस्कृति को चरितार्थ करने की पद्धति है

हिन्दू समाज की रग-रग में यह ऊंच-नीच का भाव जातीय दम्भ बनकर समा गया



व्यक्ति से समाज बनता है। समाज कोई स्थूल सत्ता नहीं है, अपितु एक बौद्धिक धारणा है। जिसका आधार संस्कृति ही होती है। सामाजिक आत्म-विस्मृति का अर्थ है , सांस्कृतिक धरातल से गिर जाना। संस्कृति कल्पना नहीं है और न कोई भाव-प्रवणता। संस्कृति आत्मा के समान दिव्य है और जीवन की समग्रता की अवधारणा है। सभ्यता जीवन में संस्कृति को चरितार्थ करने की पद्धति है। सभ्यता जीवन को संस्कृति से जोडती है। परिणामस्वरूप जीवन सुन्दर और दिव्य होता है और जब सभ्यता संस्कृति से टूट जाती है तब रूढ़िवादिता जन्मलेती है। समाज की गत्यात्मकता और परिवर्तनशीलता समाप्त हो जाती है। परिवर्तनशीलता से हमारा तात्पर्य उस शक्ति से है जो परिवेश और परिस्थिति के अनकूल अस्तित्व के लिए समाज को बदला करती है। इस ग्रहणयुक्त शक्ति के कुंठित हो जाने पर समाज जड़ हो जाता है।
प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जिस देश के पास गीता, उपनिषद जैसे आत्म-ज्ञान के ग्रन्थ हैं , वह विदेशियों का गुलाम कैसे बन गया ? इसका एक ही उत्तर है कि हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का परस्पर सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया था। परिणामत: रूढ़िवाद जड़ता ने सारे जीवन को जकड़ लिया। महाभारत के युद्ध के पश्चात से अंध-विश्वास और जड़ता का 'ग्रहण' इस देश को लगा वह आज तक नहीं उतर सका है। इस समाज ने आज तक इतिहास से कुछ नहीं सीखा है। हमारे पराभव और दुर्भाग्य का कारण रूढ़िवाद था, जो आज तक जो आज तक सुरक्षित ही नहीं है, अपितु पहले से भी अधिक प्रभावशाली और व्यापक है। विदेशी आक्रमण से सुरक्षा के लिए सारा देश कुछ थोड़े क्षत्रियों पर ही आश्रित और क्षत्रियत्व का आधार जन्म था न कि स्वभाव और कर्म। जातिवाद की रूढ़ि में ग्रसित राजपूत किसी अन्य जाति के व्यक्ति का सेनापतित्व स्वीकार नहीं करते थे। चाहे वह व्यक्ति कितना ही वीर और योग्य क्यों न हो। जातिवाद ने राष्ट्र को योग्य व्यक्तियों का लाभ नहीं लेने दिया देश-रक्षा का कार्य केवल राजपूत क्षत्रियों का धर्म है ऐसी मान्यता बन गयी। संकट में सारा राष्ट्र शस्त्र-सज्जित होना चाहिए , यह कल्पना में भी नहीं रहा। इस जड़ता ने राष्ट्र में वीरता और देश-प्रेम की भावना को पनपने का अवसर ही नहीं दिया। कुछ थोड़े से राजपूत सेना के परास्त होने से लाख-

क्षत्रिय वर्ण धर्म था। वर्ण अर्थात जो वरण किया जाए , जो गुण-कर्म-स्वभाव पर आश्रित है, न कि जन्म पर। यह देश की संस्कृति का केन्द्रीय तत्त्व था किन्तु जब सभ्यता संस्कृति से कट कर दूर हुयी तब वर्ण-व्यवस्था जातिवाद में बदल गयी।जातिवाद में योग्यता के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन नहीं होता। अत: सद्गुणों का आकर्षण नष्ट हो जाता है, जीवन में संकीर्णता और जड़ता आ जाती है, यह दुर्गुण ऊंच-नीच की कुत्सित भावना पैदा करता है। हिन्दू समाज की रग-रग में यह ऊंच-नीच का भाव जातीय दम्भ बनकर समा गया है। आश्चर्य और दुःख होता है कि जब हम देखते हैं कि पशु-पक्षी के स्पर्श हो जाने पर स्नान की आवश्यकता नहीं पडती किन्तु आदमी के आदमी के छू जाने पर पवित्र होने के लिए स्नान की आवश्यकता है। जो जीवन का दर्शन या धर्म आदमी को आदमी से नहीं जोड़ सकता वह आदमी को परमात्मा से कैसे जोड़ सकता है ?
जातिवाद ने हिन्दू राष्ट्र की सामाजिकता को पनपने ही नहीं दिया। हिन्दू समाज केवल विभिन्न जातियों का समूह बन कर रह गया , जिनमें परस्पर केवल घृणा और ऊंच-नीच का संघर्ष था। समाज में आई जातिवाद की रूढ़ि ने जो भयंकर परिणाम उत्पन्न किये , इतिहास उसका साक्षी है। आज बंगाल का जो भाग कट कर अलग देश के रूप में है उसका कारण भी जातिवाद है। कालीचरण और ढ़ाका के नवाब की लडकी की प्रेम-कथा आपने सुनी होगी। ब्राह्मण -वर्ग ने उनके प्रेम को स्वीकार नहीं किया। तत्कालीन जड़बुद्धि यह सोच भी नहीं सकती थी कि एक मुसलमान-कन्या किसी आधार पर ब्राह्मण की पत्नी स्वीकार की जा सकती है। कालीचरण और नवाब -पुत्री के साथ क्रूर अमानवीय व्यवहार किया। कालीचरण को जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। समाज से प्रताड़ित कालीचरण ने हार कर इस्लाम स्वीकार कर लिया। कालीचरण चट्टोपाध्याय से वह नवाब काला खान अर्थात काला पहाड़ बन गया। काला पहाड़ ने ताकत से पूर्वी बंगाल में इस्लाम का पाठ पढ़ाया। परिणामस्वरूप बंगाल के उस भाग में मुसलमानों का बहुमत हो गया। देश के राजनैतिक बंटवारे के समय बंगाल का वह भाग पूर्वी पाकिस्तान बना। ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं कि किस प्रकार रूढ़िवाद की वेदी पर सत्य की हत्या की गयी तथा अमानवीय अत्याचार किए गये।
जयदेव के पश्चात संस्कृत के गीतिकाव्य साहित्य में उल्लेखनीय नाम पंडितराज जगन्नाथ का है। ये तेलंगन ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम पेरूभट्ट था। युवावस्था में वे दिल्ली गये। दिल्ली के सिंहासन पर उस समय शाहजहाँ था। शाहजहाँ ने जगन्नाथ की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें 'पंडित राज ' की पदवी से विभूषितकिया। मुग़ल दरबार में शायद वे कुछ दिन ही रहे थे।एक दिन एक यवन युवती इन पर आसक्त हो गयी। वह स्वयं भी कवि-हृदय थी। धीरे-धीरे आसक्ति प्रेम और फिर वह परिणय में बदल गयी। जब दोनों काशी में आये तो पंडितों ने उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया। इस अपमान और दुर्व्यवहार को पंडित राज सहन नहीं कर पाए। उन्होंने गंगा में आत्म-हत्या करने का निश्चय किया। गंगा में उतरने के लिए घाट की प्रत्येक सीढ़ी पर खड़े होकर उन्होंने स्तवन किया। गंगा-स्तवन के ये श्लोक संस्कृत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। कहा जाता है कि उनके छंदों से प्रसन्न होकर स्वयं गंगा ने आगे बढ़कर उन्हें अपने अंक में समा लिया। वस्तुत: पंडितराज गंगा में नहीं डूबे थे, समाज की जड़ता में डूबे थे। गंगा तो एक स्थूल चीज थी, उसमें तो उनका शरीर ही विसर्जित हुवा था। समाज की इस जड़ता ने , झूठे दम्भ और अभिमान की राक्षसी वृत्ति ने सरल-ह्रदय कवि की हत्या कर दी। 
जातियां विभिन्न द्वीप-खण्डों के समान हो गयीं। हर जाति ने एक अलग द्वीप की भांति अपने चारों ओर , अपनी मान्यताओं और अपनी रूढ़ियों की खायी खोद ली , ऐसी खायी जिसे पार कर एक जाति का दूसरी जाति से सम्प्रेषण (कम्युनिकेशन) समाप्त हो गया। परिणामत: राष्ट्र की वह तेजस्विता नष्ट हो गयी। जड़ता ने सामाजिक विकास को रोक दिया और आज तक इसने अपनी जड़ता को नहीं त्यागा है। जब समाज अपने सांस्कृतिक स्वरूप को भूल जाता है , तब अपने मूल से कट जाता है तब वह मर जाता है। जैसे मृत व्यक्ति के अतीत को याद किया जाता है , वैसे ही समाज के लोग केवल अतीत के राग ही अलापते हैं। स्पष्टत: हम मर चुके हैं और अब कुछ कहने को नहीं है। संस्कृति से कटे हुवे समाज की विवेक-बुद्धि साधन और साध्य का अंतर नहीं जानती। साध्य अपरिवर्तनशील होता है और साधन परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैयही परिवर्तन विकास कहलाता है , जो जीवित समाज का मुख्य लक्षण है। संस्कृति कोई स्वयम्भू सत्ता नहीं , अपितु जीवन अवधारणा की अभिव्यक्ति है। किसी राष्ट्र को नष्ट करना हो तो उसकी भाषा और उसके इतिहास को बदल दो।********************

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