शनिवार, 21 सितंबर 2013

छोटी-सी चोरी भी महा अपराध सिद्ध होती है

छोटी-सी चोरी भी महा अपराध सिद्ध होती है 


इला उस समय सुद्युम्न में परिवर्तित होकर राज्य कर रही थी। उसके राज्य में बाहुदा नदी के किनारे शंख और लिखित नाम के दो ऋषि रहते थे। दोनों भाई थे , परन्तु नदी के तट पर अलग-अलग आश्रम बना कर रहते थे। दोनों के आश्रम फल-फूलों से युक्त बड़े रम्य बने थे। दोनों बड़े सदाचारी एवं तपस्यानिष्ठ ब्राह्मण थे। एक दिन अपने बड़े भाई शंख के आश्रम में गये। आश्रम में पेड़ों पर पके-पके सुस्वादु फल लटक थे। उन्हें देखकर लिखित का मन लालच से भर गया और वे फल तोड़कर खाने लगे। थोड़ी देर में शंख वहां लौट आये। लिखित को फल खाते देखकर उन्होंने पूछा , " भाई, तुमने ये फल जन्हें तुम खा रहे हो कहाँ से प्राप्त किए ? " लिखित ने शंख को नमस्कार कर नम्र स्वर में उत्तर दिया , " भैया, ये फल मैंने आपके इस उपवन में से तोड़ें हैं। " यह सुनकर शंख गम्भीर हो गये और बोले, " लिखित तुमने मेरी अनुपस्थिति में बिना मेरी अनुमति के लिए ये फल तोड़े हैं। यह निश्चित ही चोरी का अपराध है। यदि अपना कल्याण चाहते हो तो राजा के पास जाओ और उनके सामने अपराध को स्वीकार करके समुचित दंड प्राप्त करो। "

शंख की आज्ञा शिरोधार्य करके लिखित तभी राजा सुद्युम्न के दरबार में जा पहुंचे, वहां उन्होंने राजा से कहा, " राजन! मैंने बड़े भाई की आज्ञा के बिना उनके आश्रम में फल तोड़कर खाए हैं। यह मैंने चोरी की है। मैं ऋत से विचलित हो गया, इसलिए आप मुझे दंड दीजिए। " सुद्युम्न यह सुनकर चकित रह गये। उन्होंने मन ही मन अपने पिता मनु की सराहना की, जिनके नियमों के कारण पृथ्वी पर धर्म फ़ैल सका। उन्होंने समझाया, " तपस्वी लिखित! आप अपने अपराध को स्वीकार करके सत्य-धर्म का पालन कर रहें हैं। इससे आपका अपराध क्षम्य हो जाता है। राजा को जहाँ दंड देने का अधिकार है, वहां क्षमा प्रदान करने का भी। मैं आपको क्षमा करता हूँ। " पर लिखित ने आग्रह किया, " राजन! न्यायशील राजा को अपराधी को कभी क्षमा नहीं करना चाहिए, नहीं तो राज्य में उत्पात फैलने का डर रहता है। आप मुझे दंड दें। "

राजा ने बहुत समझाया किन्तु लिखित नहीं माने। अंत में सुद्युम्न बोले, " दंड में चोरी के लिए हाथ काटने का विधान है। फिर भी जिसका तुमने अपराध किया है, उसे तुम्हें क्षमा करने का अधिकार है। तुम एक बार शंख से मिल आओ। " लिखित भाई शंख के आश्रम में पहुंचे और बोले, " भैया, राजा सुद्युम्न ने चोरी के अपराध में मेरे हाथ काटने की आज्ञा दी है। साथ ही यह कहा है कि आप मेरा अपराध क्षमा कर सकते हैं। " शंख ने पीड़ित भाई कि हृदय से लगा लिया, " मैंने तुम पर क्रुद्ध होकर राजा के पास नहीं भेजा था। तुमने अधर्म किया था तथा जिसका प्रायश्चित आवश्यक था अन्यथा यह तुम्हारे चारित्र्य को ग्रस लेता अब तुम बाहुदा नदी में जाकर स्नान करो, सूर्य को अर्घ्य दो और देव-पितरों का तर्पण करो। "

लिखित ने इस दूसरी आज्ञा का भी पालन किया। स्नान करने के उपरांत उन्हें लगा कि उनका मन और हृदय निर्मल हो उठा है। वे भागे-भागे शंख के पास आये। लिखित ने विस्मय से पूछा , " भैया मेरे मन में एक शंका रह गयी है। यदि आप मुझे पवित्र कर सकते तो पहले क्यों नहीं किया ? " शंख ने कहा, " लिखित ! अपराधी को दंड देने का अधकार मुझे नहीं है। धर्म की मर्यादा के अनुसार यह अधिकार केवल राजा को प्राप्त है। इसी कारण मैंने तुम्हें राजा सुद्युम्न के पास भेजा था। " अत: छोटी-सी चोरी भी महा अपराध सिद्ध होती है।******


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