गुरुवार, 26 सितंबर 2013

भोजन भजन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण

आहार को प्रभु का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाए 


कभी-कभी भगवान के भक्त द्वार-द्वार जाते हैं। उनकी नीति होती है कि वे भिक्षुक रूप में जाएँ। इसलिए भारत में भिक्षुकों का तथा संन्यासियों का अत्यंत आदर किया जाता है। यदि कोई संन्यासी भिक्षा के लिए किसी के घर जाता है तो उसका अच्छी तरह आदर- सत्कार किया जाता है। भक्त - भिक्षुक भिक्षा में किसी विशेष वस्तु की मांग नहीं करता। भिक्षा में जो कुछ भी मिल जाए उसे वह स्वीकार कर लेता है। जो अपने द्वार पर आने वाले भक्त भिक्षुक को भिक्षा प्रदान करता है, वह आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध हो जाता है। जब कोई आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत हो जाता है तब भक्तों को जितना हो सके उतना उत्तम स्वागत करता है। वैदिक- भावना के अनुसार यदि हमारा शत्रु भी हमारे घर आए तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए कि हम भूल जाएँ कि वह हमारा शत्रु है। भगवान के लिए सर्वस्व त्याग करने वाले शुद्ध भक्त के आदर - सत्कार की यह सामान्य रीति है।


भिक्षा संयम की प्रवृत्ति का भी द्योतक है, भिक्षा में भक्त इच्छित वस्तु की अभिलाषा नहीं करता। अपितु जो भी भिक्षा मिलती है उसे ही स्वीकार करता है। भिक्षा से पूर्व भोजन के विषय में जानकारी होना आवश्यक है। भोजन भजन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। भोजन भी भजन के समान ही उपासना है। भजन के माध्यम से व्यक्ति अपने उपास्य का ध्यान करता है, जबकि भोजन के माध्यम से वह अपने शरीर में स्थित उपास्य का पोषण करता है। अपने उपास्य का पोषण करना ही उसकी सर्वप्रमुख एवं प्रथम सिद्धि है। भोजन सर्व- ग्राह्य और सात्विक होना चाहिए। भोजन में शरीर, कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ और मन का पूर्ण योगदान होना चाहिए। इन सब की समाहित स्थिति ही भोजन की पूर्णता है।

भोजन में कर्मेन्द्रियों का महत्त्व यह है कि भोजन शुद्ध वातावरण में ग्रहण करना चाहिए। सर्वप्रथम शौच आदि नित्य-कर्मों से निवृत्त होना चाहिए। अर्थात भोजन करने से पूर्व पेट रिक्त होना चाहिए। सब प्रकार की शंकाओं का समाधान पहले हो जाना चाहिए। दीर्घ और लघु - शंका से निवृत्त होकर ही भोजन करना चाहिए। इसके बाद स्वच्छ एवं शीतल जल से हाथ, पैर और मुंह धोना चाहिए। मुंह धोने से आँख, नाक, जिह्वा ,कान और समस्त स्पर्श इन्द्रिय का शोधन हो जाता है। शरीर का तापमान सम हो जाता है और भोजन सहज एवं सरल रूप में सुपाच्य हो जाता है। भोजन उचित आसन पर और सुखासन में बैठ कर करना चाहिए। इससे शरीर और भोजन की ऊर्जा शक्ति का सही समन्वय हो जाता है और भोजन शीघ्र ही पूर्ण रस में परिवर्तित हो जाता है।

भोजन में ज्ञानेन्द्रियों का भी विशेष महत्त्व है। भोजन का सबसे पहले चाक्षुष सम्बन्ध होता है। पहले भोजन को देखा जाता है फिर इसके बाद ग्रहण किया जाता है। भोजन को अच्छी तरह देख के ही ग्रहण करना चाहिए। इसके बाद उसकी गंध का आस्वादन लेना चाहिए। प्रत्येक खाद्य पदार्थ की अपनी एक निजी गंध होती है, हम मिर्च- मसालों के अधिक प्रयोग से उसकी वास्तविक गंध को नष्ट कर देते हैं। सुगन्धित पदार्थ ही पुष्टिवर्धक होता है। महामृत्युंजय मंत्र में " सुगंधिं पुष्टिवर्धनं " इसीलिए कहा गया है। भोजन करते समय सब प्रकार के रसों का आस्वादन भी जिह्वा पर ग्रहण करना चाहिए। साथ ही भोजन करते समय होने वाली ध्वनि को भी ध्यान पूर्वक सुनने का भी प्रयास करना चाहिए, इससे स्थिरता आती है और बहुत लाभ मिलता है। प्रत्येक ग्रास का स्पर्श अनुभूत होना चाहिए।


भोजन में पञ्च महाभूत का विशेष ही महत्त्व है। पृथ्वी, जल , अग्नि, वायु और आकाश से मिल कर यह भौतिक शरीर बना है। निश्चित रूप से इनका पोषण भी इन्हीं तत्त्वों से ही होगा। पर ये सभी तत्त्व क्रमश: सूक्ष्म होते गये हैं। स्थूल से सूक्ष्म तत्त्व अधिक पुष्टि कारक होते हैं। भोजन में पृथ्वी तत्त्व आदि ठोस आहार के साथ अधिक जलीय रसों का प्रयोग लाभकारी है। सात्विक सुपाच्य अग्निवर्धक पदार्थों को लेना चाहिए। गरिष्ठ, तले - भुने और मिर्च- मसालों से परहेज करना चाहिए , ये अग्नि को मंद करते हैं और देर से हजम होते हैं। वायु और आकाश तत्व के लिए भी स्थान रिक्त रखना चाहिए। इस प्रकार भोजन सात्विक और सुपाच्य होना चाहिए। ऐसे ही भोजन को आहार की संज्ञा दी गयी है।

आहार का अपना ही महत्त्व है, आहरण से ही आहार बना है। आहार सम्पूर्ण शरीर से होता है। केवल मुंह से आहार नहीं होता। मुख का आहार तो भौतिक पदार्थ ही होता है। आहरण प्रक्रिया तो पूरे शरीर से ही सतत होती रहती है। दुर्गन्ध - स्थल पर आहरण दुखदायी हो जाता है , जबकि सुगन्धित- स्थल पर वह सुखदाई हो जाता है। खुले आकाश और सुन्दर प्रदेश में वायु- सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद ही होता है। अत: भोजन से आहार ही उत्तम और श्रेष्ठ है। उस आहार को प्रभु का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाए तो अतिउत्तम है। आहार करते समय मन की एकाग्रता का सर्वाधिक महत्त्व है। शरीर और मन का साथ- साथ रहना बहुत ही आवश्यक एवं अनिवार्य है। जिसप्रकार भजन मन की एकाग्रता से शीघ्र ही फलीभूत होता है , उसी प्रकार भोजन भी मन की एकाग्रता से अतिशीघ्र ही फलीभूत हो जाता है।


अब बात है भिक्षा की। भिक्षा आहार से भी श्रेष्ठ है ऐसा क्यों ? भिक्षा पूर्ण रूप से शुद्ध और सात्विक होती है। भिक्षा देने और लेने की यहाँ समृद्ध परम्परा रही है। यदि भिक्षा देनी भी सम्भव नहीं होती थी तो ऐसी स्थिति को ' दुर्भिक्ष' या अकाल कहा जाता था। जहाँ भिक्षा देने भी सम्भव न हो उस काल को अकाल ही कहा जाता था। हर सद- गृहस्थ भिक्षा देने की तत्पर ही नहीं व्याकुल रहता था। यहाँ तक प्रभु से प्रार्थना की जाती थी-- ' साईं इतना दीजिए तामें कुटुंब समाये । मैं भी भूखा ना रहूं और साधू भी भूखा ना जाए॥

 ' यह तो भिक्षा देने की रही पर भिक्षा लेने का क्या महत्त्व है ? भिक्षा - ग्रहण करने वाला भक्त पहले तो उसका सबसे अधिक ईश्वर पर विश्वास होता है; वह सोचता है की जब पैदा ही क्या तो वह प्रभु खाने को भी देगा। दूसरा उसमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होती , वह सच्चे अर्थों में अपरिग्रही होता है। तीसरा उसमें संतोष सर्वाधिक होता है , जो मिल जाता है उसमें ही संतुष्ट रहता है। चौथा उसमें किसी भी प्रकार की रागात्मकता नहीं होती , उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं, उसका अपना कोई चुनाव नहीं। पता नहीं क्या मिले, कैसे मिले , कैसा मिले; मिले तो मिले ना भी मिले। उसका कोई रस या आस्वाद यंत्र नहीं बन पाता। जिह्वा का कोई स्वाद नहीं , एकरस हो जीवन का आनंद लेता है। भीषा संयम का सजीव उदाहरण है। हम घर में घुसते ही पहले ही पूछते हैं, की बनाया ? बिना खाए ही उसका आनंद लेने लगते हैं, उसके प्रति अपनी रागात्मकता जगा लेते हैं। भिक्षा में तो यह सम्भव नहीं हो पाता, अत: भिक्षा आहार से भी श्रेष्ठ है।<<<<<<<<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>


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