रविवार, 29 सितंबर 2013

मनुष्य का परिचय उसके शिष्टाचार से

शिष्टाचार और सहृदयता का परस्पर बहुत अधिक सम्बन्ध 



एक प्राचीन कहावत है कि मनुष्य का परिचय उसके शिष्टाचार से मिलता है। उसका उठना, बैठना, चलना, फिरना, बातचीत करना, दूसों के घर जाना, रास्ते में परिचितों से मिलना आदि ऐसे प्रत्येक कार्य एक अनुभवी को यह बतलाने के लिए पर्याप्त हैं कि वास्तव में व्यक्ति किस सीमा तक सामाजिक, शिष्ट एवं शालीन है। सभ्यता और शिष्टाचार का पारस्पारिक सम्बन्ध अत्यधिक घनिष्ठ है। इतना कि एक के बिना दूसरे को प्राप्त कर सकने का विचार निरर्थक है। जो सभ्य होगा वह अवश्य ही शिष्ट होगा और जी शिष्टाचार का पालन करता है , उसे सब कोई सभ्य बतलायेंगे। ऐसा व्यक्ति सदैव ऐसी बातों से बच कर रहता है, जिससे किसी के मन को कष्ट पहुंचे या किसी प्रकार के अपमान का बोध हो। ऐसे व्यक्ति अपने विचारों को नम्रतापूर्वक प्रकट करते हैं और दूसरों के कथन को भी आदर के साथ सुनते हैं। ऐसा व्यक्ति आत्म-प्रशंसा के दुर्गुण से दूर रहता है। वह अच्छी तरह जानता है कि अपने मुख से अपनी तारीफ़ करना ओछे व्यक्तियों का लक्षण है। कहा भी गया है---" बड़े बढ़ाई न करे बड़े न बोले बोल। हीरा मुख से कब कहे मेरा लाख टका है मोल॥"


शिष्टाचार में ऐसी शक्ति है कि मनुष्य किसी को बिना कुछ दिए-लिए अपने और परायों का श्रद्धा-भाजन और आदर का पात्र बन जाता है। इस समय हमारे देश में से शिष्टाचार की प्राचीन भावना का ह्रास हो रहा है। आज के पढ़े -लिखे युवक प्राय: शिष्टाचार स्वच्छंदता कालेज और स्वच्छन्दता को आश्रय दे रहे हैं। कालेज और स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी रास्ते में और विद्यालय में भी आपस की बातचीत में अकारण ही गलियों का का प्रयोग करते हैं, अश्लील भाषा का प्रयोग करते हैं और धक्का-मुक्की करते दिखाई देते हैं। इन सबके उठने -बैठने का तरीका भी सभ्य नहीं कहा जा सकता। हमारे आचरण और व्यवहार में तथा रहन-सहन में और भी ऐसी अनेक छोटी-बड़ी खराब आदतें शामिल हो गयीं हैं, जो अभ्यासवश हमको बुरी नहीं जान पड़ती , पर एक बाहरी आदमी को वे असभ्यता ही जान पड़ेंगी। उदाहरण के लिए किसी से कोई चीज उधार लेकर लौटाने का पूरा ध्यान न रखना , मांगी चीजों को लापरवाही से रखना और खराब करके वापिस करना। बाजार से उधार वस्तु खरीदकर दाम चुकाने का ध्यान न रखना , किसी व्यक्ति को वायदा करके घर बुलाना और स्वयं बाहर चले जाना। पत्रों का समय पर उत्तर न देना , अपने कार्यालय में हमेशा देर से आना। इस प्रकार की सैकड़ों बातें हैं , जिनसे मनुष्य की प्रतिष्ठा में अंतर पड़ता है और वह दूसरी की आँखों में हल्के दर्जे का प्रतीत होने लगता है।


जहाँ अन्य देशों की सभ्यता और शिष्टाचार में बाह्य नियमों और कार्यों पर अधिक जोर दिया गया है , जबकि भारतीय संस्कृति शिक्षा देती है कि हम अपने परिचितों के प्रति शिष्टाचार के बाहरी नियमों का पालन करते हुवे उनके प्रति हृदय में सद्भावना और सहृदयता भी रखें। इन आंतरिक भावनाओं से ही हमारे व्यवहार में वह वास्तविकता उत्पन्न होती है , जिसकी तरफ सच्चे व्यक्ति आकर्षित होते हैं। शिष्टाचार और सहृदयता का परस्पर बहुत अधिक सम्बन्ध है। जिसकी विचारधारा और मानसिक वृत्तियाँ शुष्क, नीरस और कठोर हो गयी हैं , वह किसी के साथ हार्दिक शिष्टाचार का व्यवहार नहीं कर सकता ओए न ही किसी से प्रेमपूर्वक मिल सकता है। इसका परिणाम यह होगा कि दूसरे लोग भी उससे उपेक्षा तथा पृथकता का व्यवहार करेंगे और वह संसा में अकेला ही अपने जीवन को व्यर्थ में खोता रहेगा। सहृदयता एक ऐसा गुण है , जिससे एक साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी अनेक लोगों का प्यारा मित्र, घनिष्ठ सखा बन जाता है और साधारण साधनों वाला होता हुवा भी आनन्दमय जीवन व्यतीत कर लेता है।


चार के इन नियमों में सबसे पहले यही शिक्षा दी गयी है कि अपने यहाँ जो आये उसका आदर केवल ऊपर से नहीं , अपितु मन, नेत्र, मुख और वाणी से अर्थात सब तरह से करें। सबसे पहली बात यह है कि हम अपने मन में निश्चय रखें कि किसी आगन्तुक का सत्कार -सेवा करना हमारा मानवीय कर्त्तव्य है। शिष्टाचार के धार्मिक , नैतिक और चारित्रिक आधार होते हैं। धार्मिक शिष्टाचार--- प्रत्येक धर्म का सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है। किसी के धार्मिक रीतिरिवाजों में हस्तक्षेप करना अमानवीयता है। किसी की भी ईश्वर-उपासना में विघ्न नहीं डालना चाहिए। प्रात:काल उठने से स्वास्थ्य के साथ-साथ मनुष्य की मानसिक और आध्यात्मिक वृत्तियाँ भी उच्च बनती हैं। जूते पहन कर किसी भी धार्मिक स्थल में प्रवेश नहीं करना चाहिए।



सामाजिक शिष्टाचार--- आगन्तुक सम्माननीय व्यक्तियों के सामने घर के किसी व्यक्ति या नौकर पर क्रोध प्रकट करना अथवा गाली आदि देना अनुचित है। अपने से बड़े या सम्मानित व्यक्ति के सामने उच्च आसन पर नहीं बैठना चाहिए। पड़ोसियों के प्रति सदा प्रेम और शिष्टाचार का व्यवहार रखिये। यदि किसी रोगी के पास जाएँ तो उसके सामने कभी निराशापूर्ण बातें न करें। रास्ते में अनजान स्त्री के पीछे इस प्रकार नहीं चलना चाहिए कि उसे संकोच हो। किसी भी स्त्री को बार-बार गर्दन घुमाकर महीम देखना चाहिए। स्वास्थ्य-शिष्टाचार --- भोजन करने के स्थान को स्वच्छ और उसका सुरुचिपूर्ण होना आवश्यक है। भोजन करते समय खाने और पीने में चप-चप का शब्द करना अशिष्टता है। दाहिने हाथ से ही खाना चाहिए। उँगलियों को ऊपर तक साग,दाल से भर लेना और उन्हें चाटना भी सभ्यता के विरुद्ध है। पानी आदि पेय पदार्थ खड़े होकर पीना ठीक नहीं और स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं। भोजन करते समय किसी भी ऐसी वस्तु का नाम नहीं लेना चाहिए , जिससे घृणा का भाव उत्पन्न हो। भोजन पूरी निश्चिन्तता के साथ और शांति से करना चाहिए। चलते-फिरते , घूमते-टहलते हुवे खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हानिकारक है ही , सभ्यता के भी विपरीत है। खाने-पीने के समान को लांघना नहीं चाहिए।


बातचीत का शिष्टाचार --- जहाँ दो -चार व्यक्ति बैठ कर बातचीत कर रहें हों, वहां जहाँ जाकर बैठना अनुचित है। बातचीत करते समय यदि कोई अनुचित बात मुंह से निकल जाए , तो तुरंत क्षमा-प्रार्थना कर लेनी चाहिए। बातचीत करते समय केवल स्वयं न बोलते रहना चाहिए, अपितु दूसरों को भी मौका दीजिए। कठोर उत्तर देकर शीघ्र ही उसे झगड़े का रूप दे देना मूर्खता है। कठोर उत्तर के स्थान पर विनम्र शब्दों में ही कहाँ चाहिए -- ' मेरी राय में आप भूल रहे हैं।' या ' आपको ठीक सूचना नहीं मिली ' आदि। मुंह से सदैव जरा-जरा सी बात पर गाली या अश्लील शब्द निकालते रहना , सभ्यता के विपरीत है। जब किसी से वायदा करो उसे यथा-शक्ति पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए।

सद्व्यहारसदाचार आदि शिष्टाचार के ही अंग हैं। शिष्टाचारी मन, वचन, कर्म से किसी को हानि नहीं पहुंचाता,वह दुर्वचन कभी नहीं बोलता न मन से किसी का बुरा चाहता है। जिससे किसी का दिल दुखे, ऐसा कार्य कभी नहीं करता। विनय और मधुरता-युक्त व्यवहार ही उसके जीवन का अंग होता है। किसी प्रकार के अभिमान की शिष्टाचार में सम्भावना नहीं रहती। नम्रता, विनयशीलता आदि गुण शिष्टाचार के आधार हैं। इतना ही नहीं शिष्टाचार की सम्पदा, समृद्धि बढ़ने के साथ उसकी निरभिमानता, नम्रता, विनयशीलता भी बढ़ती जाती है। जिस तरह फलों के बोझ से वृक्ष नीचे झुक जाता है, उसी तरह ऐसे व्यक्तयों की लौकिक सम्पदाएँ , ऐश्वर्य के बढ़ने पर भी नम्रता, विनयशीलता बढ़ जाती है।


 शिष्टाचार एक ऐसा सद्गुण हैजिसे अभ्यास और आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए किन्हीं विशेष परिस्थितियों या उच्च कुल की आवश्यकता नहीं। किसी भी स्थिति का व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक शिष्टाचार का अभ्यास जीवन में डाल सकता है। इसके लिए संवेदनशील हृदय की कोमलता आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति का अपनर व्यवहार और जीवन-क्रम में छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान रहता है, जिससे दूसरों को कोई दुःख न हो। शिष्टाचार में दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखना आवश्यक है।


सच्चाई तो वही है , जो हमारे अंत:करण में छिपी है। अपना गुप्तचर आप बनकर ही हम उसका अनुसंधान कर सकते हैं। यह आत्म-परीक्षा ही हमें, हमारे चरित्र सत्य-स्वरूप को हमारे सामने प्रकट करेगी और तभी हम चरित्र में सुधार कर सकेंगे। हमारा व्यवहार ही हमारे चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है। हमें अपने को ज्ञान से नहीं , अपितु अपने व्यवहार से परखना चाहिए। सद्व्यवहार का ही नाम ही शिष्टाचार एवं सदाचार है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&



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