रविवार, 22 सितंबर 2013

जीवन को वरदान की तरह ही जीना

जीवन-साधना का अर्थ है-- अपने अनगढ़ व्यक्तित्व को सुगढ़ता प्रदान करना 


दार्शनिक दृष्टि से देखें या वैज्ञानिक दृष्टि से , मानव-जीवन को एक अमूल्य सम्पदा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षेत्र में ऐसी-ऐसी अद्भुत क्षमताएं भरी पड़ीं हैं कि सामान्य बुद्धि से उनकी कल्पना भी नहीं कई जा सकती। यदि उन्हें विकसित करने की विधा अपनाई जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके तो जीवन में लौकिक एवं अलौकिक सम्पदाओं और विभूतियों के ढेर लग सकते हैं। मनुष्य को मानवोचित ही नहीं देवोचित जीवन जी सकने योग्य साधन भी प्राप्त हैं , फिर भी उसे पशु-तुल्य , दीन-हीन जीवन इसलिए जीना पड़ता है कि वह जीवन को परिपूर्ण बनाने के लिए मूल तथ्यों को पर न तो ध्यान ही देता है और न उनका अभ्यास ही करता है। जीवन को सही ढंग से जीने की कला जानना तथा कलात्मक ढंग से जीवन जीने को कला कहते हैं।

जीवन-साधना का अर्थ है-- अपने अनगढ़ व्यक्तित्व को सुगढ़ता प्रदान करना प्रत्येक व्यक्ति में महान बनने की सम्भावना बीज रूप में विद्यमान है। प्रशिक्षण और अभ्यास द्वारा उनका विकास किया जा सकता है। जीवन-साधना में जीवन-साधक को एक प्रक्रिया सम्पन्न करनी पडती है। इस प्रक्रिया को आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के माध्यम से पूरा किया जाता है।अपनी समीक्षा करना आत्म-चिंतन है। दूसरे के गुण-अवगुण देखने में ही हर किसी की रूचि होती है और प्रत्येक व्यक्ति उसमें प्रवीण भी होता है। ऐसा अवसर कदाचित ही आता है कि अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकार किया जा सके। कोई हमारा दोष बताता है तो वह शत्रु जैसा प्रतीत होता है। जिस कार्य को कभी क्या ही न हो , वह सरलता से अभ्यास में नहीं आता। इस प्रकार का सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण स्वयं हमें करना चाहिए।



दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने और कुसंस्कारों को नष्ट करने के लिए आत्म-सुधार का क्रम अपनाना पड़ता है। इसके लिए अभ्यास और विचार-संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करने होते हैं। पुराने अभ्यास को नये अभ्यास बना कर तोडा जाए और कुसंस्कार को विचार-संघर्ष द्वारा नष्ट किया जाए मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना होगा अन्यथा सत्साहस जुटाने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना ही मिलती है। इसके लिए पहले छोटी-छोटी बुरी आदतों से संघर्ष प्रारम्भ कर देना चाहिए। उन्हें जब हरा दिया जाएगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा। जीवन-साधना का तीसरा चरण आत्म-निर्माण है। इसका अर्थ है -- अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और सुसंस्कृत बनाने के लिए योजना-बद्ध प्रयत्न। दुर्गुणों को निरस्त करने के बाद सद्गुणों की प्रतिष्ठापना भी तो होनी चाहिए। उसके बाद दुर्गुणों को निरस्त करने के बाद सद्गुणों की सम्पदा एकत्रित करना भी अत्यंत आवश्यक है। सद्विचार और सत्कर्म की समग्र जीवन-पद्धति अपनाने से ही व्यक्तित्व का सुसंस्कृत बनना सम्भव होता है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श बनाना है तो इसके लिए व्यक्ति में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्द्धन करना ही पड़ेगा। इसमें संकल्पनिष्ठ , धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल होते हैं।


जीवन-साधना की अंतिम स्थिति आत्म-विकास है। आत्मविकास अर्थात आत्मीयता का विकास करना। सामान्यत: लोगों का चिन्तन और क्रियाकलाप अपने शरीर , मन तथा अपने परिवार की सुविधाओं तक ही सीमित रहता है। मानव-जीवन के रूप में हमें जो अमूल्य अवसर मिला है , उसे मूर्खों की भांति व्यर्थ न जाने न दें। अपितु हमें अपने में लोकमंगल और जनकल्याण की सेवा-साधना की योजनाएं बनानी चाहिए। इस स्थिति में पहुंचा व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन लता है और उसका कार्य-क्षेत्र भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का संवर्धक बन जाता है। सामाजिक जीवन में जिन व्यक्तियों को उच्च सम्मान मिलता है , संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है , वे आत्मविकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुवे महानता के उच्च- शिखर तक पहुंच सके हैं। जीवन-साधना के इन चार चरणों का सम्मिलित प्रयोग व्यक्ति को उत्कृष्ट व्यक्तित्व तथा उज्ज्वल चरित्र प्रदान करता है। जीवन-साधना वास्तव में कल्प-वृक्ष है। उसकी छाया में मनुष्य जीवन की महानतम उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। इसमें किंचित भी शंका की आवश्यकता नहीं है।

असुरों से सभी घृणा करते हैं , क्योंकि उनकी भावनाओं में स्वार्थ-परता और भग-लालसा इतनी प्रबल होती है कि वे इसके लिए दूसरों के अधिकार , सुख और सुविधाएँ छीन लेते हैं। उनके पास रहने वाले भी दुखी रहते हैं और व्यक्तिगत बुराइयों के कारण उनका निज जीवन तो अशांत होता ही है। हम सुख भोगने के लिए इस संसार में आये हैं। दुखों से हमें घृणा है , पर सुख के सही स्वरूप को भी समझना चाहिए। इन्द्रियों के बहकावे में आकर जीवन -पथ से भटक जाना , मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी के लिए श्रेयस्कर नहीं लगता। इसमें हमारी शक्तियाँ पतित होती हैं। अशक्त होकर भी क्या कभी सुख की कल्पना की जा सकती है ? भौतिक शक्तियों से सम्पन्न व्यक्ति का इतना सम्मान होता है कि सभी लोग उसके लिए छटपटाते हैं, फिर आध्यात्मिक शक्तियों के चमत्कारों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। देवताओं के सम्मुख सभी नतमस्तक होते हैं , क्योंकि उनके पास शक्ति का अक्षय-कोष माना जाता है। हम अपने देवत्व को जागृत करें, तो वैसी ही शक्ति की प्राप्ति हमें भी हो सकती है। तब हम सच्चे सुख की अनुभूति भी प्राप्त कर सकेंगे और हमारा मानव-जीवन सार्थक होगा। हमें असुरों की तरह नहीं, देवताओं की तरह जीना चाहिए। देवत्व ही इस जीवन का सर्वोत्तम वरदान है , हमें इस जीवन को वरदान की तरह ही जीना चाहिए।&&&&&&&&&&&

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