गुरुवार, 19 सितंबर 2013

वैवस्वत यम ने नचिकेता को आत्मसाधना पर प्रकाश

कठोपनिषद में वैवस्वत यम ने नचिकेता को आत्मसाधना पर प्रकाश डालते हुवे कहा


कठोपनिषद में वैवस्वत यम ने नचिकेता को आत्मसाधना पर प्रकाश डालते हुवे कहा है _ ' हे शिष्य ! जिसने अपना चरित्र शुद्ध नहीं किया , जिसकी इन्द्रियां शांत नहीं , जिसका चित्त स्थिर नहीं रहता और जिसका मन सदैव अशांत रहता है , वह केवल ब्रह्म-ज्ञान के आधार पर आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। ' चरित्र या कर्म अपना फल किस प्रकार देते हैं , यह जानने की बात है ? बीज के अनुरूप ही फल होता है, पाप से आत्मा की पराधीनता दृढ़ होती है और पुण्य आत्मा को मुक्त अवस्था की ओर अग्रसर करता है। यही पाप और पुण्य का रहस्य है। अत: राग-द्वेष सभी अस्वाभाविक हैं। इनके रहते हुवे आत्मस्थिरता या आत्मा के सुखों में एकाग्रता नहीं हो पाती और आत्मस्थित हुवे बिना उसका ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं

अध्यात्म योग की आधारशिला की व्याख्या करते हुवे आदिगुरु शंकराचार्य ने भी इस़ी तथ्य का प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है _ ' चित्त को विषयों से हटाकर आत्मा में समावेश करना ही अध्यात्म-योग है। ' जैन-धर्म में प्राणी-हिंसा करना , झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार, परिग्रह _ इन पांच पापों को छोड़ना ही व्रत है। बौद्धदर्शन में निवृत्ति के मार्ग की चर्चा की जाती है। वह वस्तुत: आत्मोद्धार का ही पर्याय है। इसके लिए जिन साधनों का विस्तार किया गया है वे भी उपनिषदों के आत्मशोधन एवं जैन-दर्शन के व्रतों के समान ही हैं। बौद्ध- भिक्षु आत्म-कल्याण के लिए निवृत्ति - पक्ष का अनुसरण करता है.


किन्तु मनुष्य का शरीर दुःख भोगने के लिए नहीं मिला। यह आत्म -कल्याण के लिए मुख्यत: कर्म-साधन है। इसलिए अपनी प्रवृत्ति भी आत्म-कल्याण या सुख प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति में होना चाहिए और इसके लिए बुरे स्वभाव एवं बुरे कर्मों से बचना भी आवश्यक हो जाता है। विकास-कर्म भी इसी तरह चलता है। साधनों को प्राप्त कर यदि आत्मा विवेक का उपयोग करता है, सदुपयोग करता है और उसे अच्छे कर्मों में लगाता है तो आत्मा अपनी शक्तियों को बढ़ाता हुवा अनुकूल साधनों को भी बनाता रहता है और अंत में प्रारब्द्ध से स्वाधीन होकर अपनी पूर्ण उन्नति कर लेता है।

' हिरण्यमय पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं ' सत्य का मुख ढ़का हुवा है। हे सत्यशोधक ! यदि तू उसे प्राप्त करना चाहता है तो तुझे उस ढ़क्कन को खोलना होगा , जिससे सत्य ढ़क गया है। यदि तू उसे नहीं छोड़ सकता तू सत्य ही तुझे छोड़ देगा। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। आत्म ज्ञान को बुरे कर्मों ने भी इसी तरह ढ़क लिया है, उसे प्राप्त करने के लिए इस अशुद्ध अवस्था का परित्याग करना ही पड़ता है। सांसारिक विषय-वासनाओं की इच्छाओं पर विजय करनी ही पड़ती है।**********

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें