शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

भारत की चौथी धार्मिक क्रांति

विश्व में ऐसे दो ही सम्राट हुवे है _ सार्वभौम मान्धाता और सार्वभौम भरत 

साम्राज्य __ साम्राज्य हमारे धर्म में कोई नई संकल्पना नहीं थी। आरम्भ से ही राजा को धर्म का साम्राज्य स्थापित करने का पाठ पढ़ाया जाता था। इसमें विशेष बात यही थी कि वह धर्म को फ़ैलाने का माध्यम था, अपने स्वार्थ का नहीं। जो राज्य इसमें बाधक होता उस पर विजय प्राप्त की जाती थी। साथ ही उसका उसे लौटाकर कहा जाता था कि वह विजेता को सम्प्रभु मानकर धर्म के अनुसार राज्य करे। फिर अश्वमेध यज्ञ , राजसूय यज्ञ आदि किए जाते थे , जिसमें विजित या मित्र उपहार लेकर सम्मिलित होते थे और विजेता सम्राट की पदवी धारण करता था। कुछ सम्राट ऐसे थे जो उस समय ज्ञात समस्त सभ्य समाज में अपने को धर्म का प्रतिनिधि स्वीकार करा चुके थे। वे सार्वभौम सम्राट कहलाये। विश्व में ऐसे दो ही सम्राट हुवे है _ सार्वभौम मान्धाता और सार्वभौम भरत

तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढ़ते हुवे राम के वंशज कोशल के राजा प्रसेनजित को यह आभास था और इसके लिए वह शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत लौटकर फारसी साम्राज्य से टक्कर लेने के लिए भारतीय साम्राज्य स्थापित करने के विषय में विचार करने लगा। पर वह यह साम्राज्य स्थापित नहीं कर सका। पांडवों के वंशज कौशाम्बी के राजा उदयन ने भी पुरानी संकल्पना के अनुसार इसी साम्राज्य के सपने देखे और एक सीमा तक सफल भी हुवा , क्योंकि उस समय का सबसे प्रतापी राजा अवन्तिराज महासेन उसका ससुर था। कुरु ने गांधार पर आक्रमण कर गान्धारराज को भगा दिया, जिसने उदयन की शरण ली। उदयन ने कुरु को हराकर गांधार से निकाल बाहर किया और लगभग दो सौ वर्ष के लिए भारत की पश्चिमोत्तरी सीमा को निरापद किया

उदयन से सात वर्ष छोटा हर्यंक कुल का राजा बिम्बसार मगध की गद्दी पर बैठा। उसके पुत्र अजातशत्रु ने भी साम्राज्य के सपने देखे। उसी समय सीसर में धर्म के साम्राज्य का भी बिगुल बजा _ भारत में महावीर, बुद्ध आदि अन्य धर्म प्रचारकों ने ईरान तथा चीन धर्म -गुरुओं के साथ धर्म को प्रसारित किया। इस तीसरी धार्मिक क्रांति और धार्मिक साम्राज्य की संकल्पना का परिणाम था अशोक। अशोक ने समस्त भारत को एकसूत्र में बाँधा और धर्म को भेजकर तत्कालीन सारे सभ्य संसार को धर्म का मार्ग सुझाया। आज तक सुदूर साइबेरिया , मंगोलिया आदि में जनता अपने पुत्र का नाम अशोक रखकर उसे स्मरण करते.

भारत की चौथी धार्मिक क्रांति __ भारत कि चौथी धार्मिक क्रांति दक्षिण भारत में उपजी, वह भी भक्ति आन्दोलन के रूप में। बुद्ध और महावीर की क्रांति में कई भाग अछूते रह गये थे एवं उनका सम्पूर्ण ज्ञान नहीं था। मौर्य और गुप्त साम्राज्यों ने पूरे भारत को एक कर दिया। आसाम से लेकर बिलोचिस्तान तक और अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक। पूरी जनता को दक्षिण के आचार्यों ने घूम-घूम कर भक्ति का महत्त्व समझाया। सारी जनजातियों की पूजा को एक कर दिया। भारतीय जन पश्चिम में हिंगलाज देवी को पूजने लगा तो पूर्व में असम की कामाख्या देवी को, उत्तर में जम्मू की वैष्णो देवी को तो दक्षिणी छोर पर कोमरी देवी अर्थात कन्याकुमारी को। असंख्य देवियाँ थीं _ विन्ध्यवासिनी , दुर्गा (मध्य भारत ), काली(बंगाल), चिंतपूर्णी ( होशियारपुर), शाकम्भरी( हिमालय की तराई-सहारनपुर) , ज्वालामुखी ( कांगड़ा ) आदि-आदि जो आज सारे भारत में स्थान-स्थान पर पूजी जाती हैं। इनकी पूजा पार्वती और लक्ष्मी के विभिन्न रूपों में पूजा की जाती है। शिव और विष्णु को सहस्र नाम मिले। असंख्य जनजातियों के देवी-देवताओं को धर्म के देव-मंडल में स्थान मिला। उनकी पूजा करके सत्य मार्ग पर चलो तो जीवन सफल हो जायेगा।


इस जीवन धारण करने की कला - धर्म को पहली बार चौदहवीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के प्रधान-मंत्री हेमाद्रि ने अपने धार्मिक टीका-ग्रन्थ में हिन्दू-धर्म कह कर पुकारा। इससे पहले यह केवल धर्म था _ महावीर का सद्धर्म , बुद्ध का सनातन धर्म या अशोक का धर्म

इस चौथी धार्मिक क्रांति की सन्तान हमारे सामने ही उदित हुयी। उनमें महात्मा गाँधी का विशिष्ट नाम है , उनके सत्य और अहिंसा के मार्ग से जन-जन की आत्मा को प्रभावित किया। साथ ही इस सन्दर्भ में महर्षि दयानंद , स्वामी विवेकानंदस्वामी रामतीर्थ आचार्य श्री राम शर्मा आदि का भी नाम स्मरण क्या जा सकता है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


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