सोमवार, 30 सितंबर 2013

साधारण क्रोध_ दूध के जैसा।

 साधारण क्रोध क्षणिक एवं अल्पकालिक होता है , दूध के जैसा। 




मनुष्य अनेक स्तरों का जीवन जीता है। उसमें मुख्य हैं --- वृत्तियों का स्तर , विवेक का स्तर और प्रज्ञा का स्तर मनोविज्ञान जिस अभिप्रेरणा कों वृत्ति कहता है, उन्हें अध्यात्म कि भाषा में संज्ञा कहा जाता है। संज्ञा मोह से आवृत्त चेतना है। प्रज्ञा मोह से परे शुद्ध चेतना है। विवेक वह बिंदु है, जिसका सहारा लेकर संज्ञा से परे चेतना का विकास करते - करते प्रज्ञा के शिखर कों छुवा जा सकता है।


 क्रोध कदाचित हमारी चित्त- चेतना में सबसे ऊपर रहता है। इसीलिए वह अन्य वृत्तियों की अपेक्षा जल्दी बाहर जाता है। उसे दबाया जा सकता है, पर उसके प्रभावों कों छिपाया नहीं जा सकता है। क्रोध कों मानस शास्त्रियों ने दो वर्गों में -- साइलेंट और वायलेंट में विभाजित किया है। पहला गुस्सा शांत होता है। इसके प्रभाव से व्यक्ति गुमसुम , हताश , निराश एवं अवसादग्रस्त रहने लगता है। दूसरा गुस्सा आक्रामक होता है, उसका परिणाम है -- शोर- शराबा , बक-झक लड़ाई-झगडा और मार- पीट।

 साइलेंट क्रोध अन्तर्मुखी होता है और वायलेंट क्रोध बहिर्मुखी होता है। वायलेंट क्रोध भी दो प्रकार का होता है। साधारण और असाधारण ; साधारण क्रोध क्षणिक एवं अल्पकालिक होता है , दूध के जैसा। वह तेज आंच सह नहीं पाता तत्काल ऊफन उठता है। पर पानी के छींटे मिले कि शांत। उसकी प्रतिक्रिया लम्बे समय तक नहीं रहती। असाधारण क्रोध तीव्र और देर तक रहने वाला आवेश की स्थिति है। यह आवेश की आंच में शराब की भांति ऊबाला जाता है। यह बहुत ही घातक एवं उग्र होता है। इससे से व्यक्तित्व खंडित होता है। कार्य करने की शक्ति क्षीण होती है। क्रोध की वृत्ति एक और रूप अनेक होते हैं। मूलत: क्रोध एक मनोकायिक रोग है, इसे मस्तिष्क का ज्वर कहा जा सकता है।


 कहा जाता है कि ज्वर से एक दिन की शक्ति नष्ट होती है जबकि क्रोध के कारण छ: माह की संचित शक्ति क्षीण हो जाती है। क्रोध निरंतर सुलगने वाली आग है।क्रोध वह आग है , जिसमें तन भी जलता है और मन भी जलता है। एवं साथ ही आस- पास का सारा वातावरण भी तापमय हो जाता है। जो व्यक्ति कों अपने सहज स्वभाव से विचलित कर दे , उसे कोप कहा जाता है।यथा ---"क्रोध हरे सुख - शांति कों , अंतर प्रगटे आग । नैन , बैन , मुख बिगड़े , पड़े शील पर दाग ॥


 "चित्त में क्रोध का लम्बा प्रवास ही रोष बन जाता है। क्रोध से आपसी व्यवहार दूषित होते हैं, अत: वह दोष है। द्वेष यह राग का प्रतिपक्षी तत्त्व है , अध्यात्म की दृष्टि से ये दोनों ही काम्य नहीं होते। पर सामाजिक सम्बन्धों में कुछ प्रतिबद्धताएं भी होती हैं । अक्षमा असहिष्णुता है, क्रोध असहिष्णुता की प्रतिक्रिया है ।



 परनिंदा और पर -विवाद कों मंडन या आरोपण कहा जाता है। क्रोध बुरे विचारों का समग्र रूप है। क्रोध के निमित्त कारण हैं -- अहं पर चोट लगना , सुख में बाधा आना , दूसरों कों नहीं सहना , तामसिक भोजन , स्नायविक दुर्बलता आदि । किसी के क्रोध करने से कोई बदलता नहीं , बदलाव स्वयं के विवेक पर निर्भर है। 



कहावत है कि जो नरमी से पैर रखता है , वह दूर तक जाता है। प्राय: पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों कों क्रोध अधिक आता है। आवेश और उत्तेजना से न केवल चित्त कि निर्मलता और शांति ही नष्ट होती है, अपितु स्वास्थ्य भी क्षीण होता है। यह भी कहा जाता है कि एक बार के प्रबल क्रोध से दो घंटा उम्र कम होती है। विवेक चेतना का जागरण , सहिष्णुता का विकास और उपशम का अभ्यास से क्रोध पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है ।
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