शनिवार, 21 सितंबर 2013

जब देव मन्त्रद्रष्टा हो जाते थे, तब वे ऋषि कहलाते थे

 जब देव मन्त्रद्रष्टा हो जाते थे, तब वे ऋषि कहलाते थे 


प्राचीन काल से अनेक घुमक्कड़ जातियां , कुल, कबीले इस देश में दल बांध कर आते रहे और सबको इस देश की संस्कृति आत्मसात करती रही। उसके देवता को अपनालिया गया, उसके रीतिरिवाज और मत में कोई बाधा नहीं डाली गयी, कोई हस्तक्षेप नहीं हुवा , फिर वे पूर्ण भारतीय बन गये। इसका कारण था भारतीय धर्म-साधना का वैयक्तिक होना प्रत्येक व्यक्ति अपने किए का स्वयं उत्तरदायी है। कोई धर्म -मत श्रेष्ठ नहीं, किसी देव-विशेष की पूजा श्रेष्ठ नहीं, श्रेष्ठ है आचार-शुद्धि और चारित्र्य। आचार-व्यवहार शुद्ध रखना , चरित्र उज्ज्वल रखना , सत्य पर स्थिर रहना --- यही धर्म है, यही भारतीय संस्कृति है।

गहराई में न जाकर ऊपरी तरफ का धर्म बहुदेववाद मालूम पड़ता है, ग्रीक-रोमन धर्मों के समान या अफ्रीका में की आदिम जातियों में पाए गये धर्मों के समान। लेकिन वस्तुत: ऐसा नहीं है। सबसे मैक्समूलर ने इसे गलत बताया था और नया शब्द सुझाया था --- हेनोथीज्म एकैकवाद। इस प्रकार के धर्म में अनेक देवताओं की उपासना होती है। लेकिन जिस देवता की उपासना एक समय कर रहें होते हैं , वही सबसे श्रेष्ठ और ऊंचा मान लिया जाता है। जब इंद्र की उपासना का प्रसंग होगा तो वह देवेन्द्र है और अन्य देवों का स्वामी है। यदि अग्नि की उपासना है तो वह सबसे महान है और अन्य देव उससे से शक्ति प्राप्त करते हैं। यदि और गहराई में जाएँ तो अद्वैतवाद सामने आ जाता है। एक ही देवता है, जो विभिन्न रूपों में अभियक्त हो रहा है। जिस विशिष्ट रूप की पूजा की जाती है , वही सबसे महान और आदि माना जाता है।

वर्ण-व्यवस्था --- ब्राह्मण देव परिवार की ही नहीं , पुराने परिवारों की संस्था है। नाग- गरुड आदि कुलों में पुरोहित राजगुरु होते थे। उनकी देखा-देखी असुरों ने भृगु को पुरोहित बनाया। हिरण्यकशिपू का भार्गव पुरोहित था। जब इंद्र ने देवों को संगठित किया, तब बृहस्पति की मन्त्रद्रष्टा होने के कारण विशेष प्रतिष्ठा बड़ी। तदुपरांत देवों में ऋषि का आविर्भाव हुवा, जिन्हें कोई विशेष अधिकार नहीं था। सब के साथ लड़ना पड़ता था और खेतीबारी करनी पडती थी। जब देव मन्त्रद्रष्टा हो जाते थे, तब वे ऋषि कहलाते थे। आगे चलकर स्वायम्भुव मनु के नेतृत्व में देव भारत की समतल भूमि पर उतरे तब उनके साथ ऋषिकुल भी आये। उनका उत्तरदायित्व था कि वे प्रचीन मन्त्रों और परम्पराओं को याद रखें तथा देवों का उनके मूल स्थान से सम्बन्ध न टूटने दें। उन्हें खेती में अधिक समय न गंवाना न पड़े, इसलिए नई बस्तियों की सबसे अच्छी भूमि छंट कर उन्हें दे दी गयी। राजा वेन ने अकाल के समय इस भूमि की उपज भूख से मरते सब विशवासियों को बाँटनी चाही, तो ऋषियों द्वारा वह मार दिया गया।

पृथु के राजा बनने पर राजन्य वर्ण का प्रारम्भ हुवा उसका पूरा परिवार राजन्य और बाद में क्षत्रिय कहलाया , जिस पर विश अर्थात प्रजा की रक्षा का भार था। पहले सब विशवासी थे, अर्थात सभी वैश्य थे। सहस्रों वर्षों बाद जो ऋषि प्राचीन ब्रह्म-सभा की गाथा याद रखते थे और सुनते थे अर्थात ब्रह्म के मुख बन गये , ब्राह्मण कहलाये। राजा का पद प्रारम्भ होने पर जिसे सुरक्षा का भार सौंपा गया था , उसका परिवार बहुत आगे चलकर राजन्य या क्षत्रिय बन गया। शूद्र तो विजित मनुष्य थे ही और वे भी संकुचित वृत्तों में बनते हुवे नहीं थे। मुसलमानों के आने से पहले तक हम देखते हैं कि शूद्र भी राजा हो गये हैं, वैश्य भी और ब्राह्मण भी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैश्य था। हर्ष वैश्य था और मौर्य भी एक गण के रहने वाले थे, जो व्यापार करते थे। नन्दों का वंश शूद्र था और आंध्र , शुंग, कण्व आदि ब्राह्मण थे। वैवश्वत मनु की पीढ़ियों में कई राजाओं ने अपने वर्ण बदले , कुछ ब्राह्मण हो गये और कुछ वैश्य। भलंदन वैश्य हो गया और विश्वामित्र ब्राह्मण हो गये। ययाति मन्त्रद्रष्टा था। भरत ने भारद्वाज ब्राह्मण को गोद लिया , जो पुरुओं का रजा बनासबसे मुख्य बात यह थी कि कर्म से वर्ण का निश्चय होता था। कंस को मारने के उपरांत कृष्ण को मथुरा का राज्य सौंपा जाने लगा , तो उन्होंने कहा, " मैं वैश्य हूँ, मैंने गोकुल में रहकर गोपालन आदि किया है। मैं इसके लिए उपयुक्त नहीं हूँ। उग्रसेन को राजा बनाओ।" वर्ण के विकास का आभास हमें तैत्तिरीय ब्राह्मण के एक उपाख्यान में मिलता है, जिसमें लिखा है कि सर्वप्रथम ब्रह्मन था , जिनसे सारी सृष्टि का उद्भव हुवा। फिर वह बताता है कि हर वेद ने एक वर्ण दिया। ऋग्वेद से वैश्य निकले, सामवेद से ब्राह्मण तथा यजुर्वेद से क्षत्रीय का उद्भव हुवा।%%%%%

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