मंगलवार, 17 सितंबर 2013

शाब्दिकता कागज पर बना सुंदर दीपक

 कूप-मंडूकता में कैद सुनना और पढ़ना तो जानते हैं, किन्तु समझ नहीं सकते 


ज्ञान की उपलब्धि के लिए व्यक्ति कि अन्तरंग पात्रता बहुत महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान की गत्यात्मकता उसका आत्म-विकास करती है। वह प्रतिबद्ध नहीं होता है। प्रतिबद्ध होने का तात्पर्य है रुक जाना। जो रुका हुवा है , वह गतिहीन है और अकर्मण्य है। ऐसे व्यक्ति से सुना हुवा ज्ञान केवल स्मृति में रहता है। वैसे ही जैसे किसी पुस्तकालय की अलमारी में कोई पुस्तक रखी हुयी हो। वह चाहे जब उस जानकारी को अंश में या सम्पूर्णता में उगल सकता है। किसी भी बड़ी सभा में या बातचीत करते समय उसका प्रयोग कर सकता है; बस यही उसके ज्ञान की सार्थकता है। यह शाब्दिकता कागज पर बना सुंदर दीपक है , जिसमें तेल और बाती लगी हुयी है , जलता हुवा दिखता है , लेकिन प्रकाश नहीं देता , क्योंकि चित्र है। मात्र आकार की अनुकृति है।

प्रतिबद्ध व्यक्ति भी इसी प्रकार का है। उसका ज्ञान केवल शब्द -ध्वनि की अनुमति मात्र है। वह जागृत कोटि का ज्ञान नहीं है ; जड़ है। आचार्य यास्क के अनुसार _ ' जो केवल स्मृति में वेद-मन्त्रों को ढ़ो रहा है ; मंत्रार्थ और तत्त्व को नहीं जानता , वह खर के समान भार-वाहक है। प्रतिबद्ध होने का अर्थ है ज्ञान की असीमता को अस्वीकार करना ; कल्पना के छोटे से दायरे में सत्य की समग्रता को ग्रहण करना। मत-मतान्तर और विभिन्न गुरुडम केवल मात्र दायरे हैं।

सम्प्रदायवाद ने ईश्वर- निष्ठा को मिटा कर व्यक्ति-निष्ठा स्थापित की। इतिहास का मध्य-युग धार्मिक उन्माद से गढ़े हुवे युद्धों का लेखा-जोखा है। एक हाथ में तलवार और दूसरे में कुरान लेकर अरब और मध्य एशिया से निकलने वाली अरब और मुगलों की बर्बर टोलियों ने स्पेन से लेकर कन्याकुमारी तक विस्तृत तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति की ईंट से ईंट बजाई। नालंदा के विशाल पुस्तकालय की पुस्तकें जला-जला कर हमाम गर्म किए गये। अगर यह पुस्तक कुरान के अनुकूल है , तो कुरान हमारे पास है, अत: इनकी आवश्यकता नहीं; और अगर कुरान के प्रतिकूल हैं , तो इन्हें जला ही देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दोनों ही स्थितियों में इनकी आवश्यकता नहीं । ऐसा कहकर सारी किताबें जला दी गयीं। ज्ञान-विकास का विकास इन सम्प्रदायों को रुचिकर नहीं था। विज्ञान को उस सीमा तक मानने को तैयार थे , जहाँ तक इनकी धर्म-पुस्तक अनुमति प्रदान करती है। इस लिए विश्व-ब्रह्माण्ड कई नवीन व्याख्या करने वाले वैज्ञानिकों को मध्य-युग के यूरोप में बहुत सताया गया।

आज जबकि विज्ञान का वर्चस्व स्थापित हो चुका है और प्रकृति के दुर्भेद्य रहस्य खुलते जा रहे हैं , विश्व-ब्रह्माण्ड की नई व्याख्याएं स्वीकार ली गयीं हैं, फिर भी ये व्यक्तिवादी लोग साम्प्रदायिक स्तर पर सत्य को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। यह मानसिक जड़ता ज्ञान-मार्ग का सबसे बड़ा व्यवधान है। जन्म से मिलने वाली आस्था और विचार इतने गहरे होते हैं कि जिनमें स्वतंत्र चिन्तन की क्षमता नष्ट हो जाती है। ऐसे प्रतिबद्ध व्यक्ति लेबिल लगे हुवे _ कूप-मंडूकता में कैद सुनना और पढ़ना तो जानते हैं, किन्तु समझ नहीं सकते।

अप्रतिबद्ध होकर ज्ञान के प्रति समर्पित होना चाहिए ; मानस सत्य के स्वागत के लिए सर्वदा खुला रहे। अन्ततोगत्वा जीवन का परम उद्देश्य सत्यान्वेषण है और कर्म की सार्थकता सत्य में परिसमाप्ति है। अत: वेद कहता है कि ज्ञान के इच्छुक को अप्रतिबद्ध होने के लिए मल-विक्षेप आवरण से मुक्त होना चाहिए। योग-साधना की प्रथम और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि चित्त का निर्मलीकरण है। अत: ज्ञान के लिए इस प्रकार की विशिष्ट मन:स्थिति का होना आवश्यक है। ज्ञान केवल भाषा तक ही सीमित होकर समाप्त नहीं होना चाहिए ; यह केवल यांत्रिक क्रिया ही नहीं , अपितु एक तकनीकी है, जिसके बिना यथार्थ का बोध नहीं हो सकता। &&&&&&

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