रविवार, 22 सितंबर 2013

दुरितानि परासुव

बडभागी जो मानुष तन पावा 



' दुरितानि परासुव ' का अर्थ है कि हम अपने दुर्गुणों को दूर कर दें . मनुष्य के भाव उचित होने चाहियें . दुःख की बात है कि मनुष्य दुष्प्रवृत्तियों की कामना के कारण रोगी होता जा रहा है . वासनाएं जीर्ण नहीं होती , अपितु हम ही जीर्ण हो जाते हैं _ ' वासानि न जीर्णा: वयमेव हि जीर्णा: ' .

भक्त और भगवान की स्थिति भी अत्यंत विचित्र है . भक्त कहता है कि प्रभु उसे स्वीकार करें ; पर भगवान कहता है कि भक्त अपनी दुष्प्रवृत्तियों का त्याग कर दे . मनुष्य योनि में जन्म लेना बहुत ही सौभाग्य की बात है . तुलसीदास जी ने कहा है _ ' बडभागी जो मानुष तन पावा ' . मनुष्य योनि न जाने कितने जन्मों का परिणाम होती है . अनेक जन्मों में घूमने के बाद यह तन प्राप्त होता है . 84 लाख योनियों के बाद ही यह शरीर मिलता है . हमें सदैव सत्कर्म करते रहना चाहिए .

संसार का कोई पतित से भी पतित मनुष्य भी ऐसा न मिलेगा , जिसमें सब दुर्गुण ही दुर्गुण हों और कोई भी सद्गुण न हों . इसी प्रकार विरल ही महापुरुष होंगे जिनमें मात्र गुण ही हों और कोई दुर्गुण न हों . देवों का ही जीवन ' सत्यं वै देवा: ' का पूंजीभूत रूप होता है . मनुष्य को तो ' असतो मा सद्गमय ' का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए .

मनुष्य को सत्य संकल्प को धारण करना चाहिए , उसकी चिन्तन की दिशा सही होनी चाहिए . जब सत्य-संकल्प होंगे तो विचार भी शुद्ध होंगे और शुद्ध विचार शुद्ध-बुद्ध आचरण का सम्बल बनता है . साथ ही मनुष्य का जीवन दोष-रहित होना चाहिए . साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को सद उपदेश का पालन एवं प्रचार भी करना चाहिए . इससे अपने साथ -साथ दूसरों का मन भी निर्मल एवं पवित्र बनता है .


मनुष्य एक विचाशील प्राणी है . उस पर अच्छे -बुरे संस्कारों का प्रभाव अवश्य ही पड़ता है . संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है कि वह शुभ विचारों का संदेश दूसरों को देता रहे . अस्तु कहा गया है कि मनुष्य चिन्तना के साथ सदैव आगे बढ़ता रहे और यही सच्ची प्रगति है . वास्तव में ' दुरितानि परासुव ' की भूमिका के बाद ही ' भद्रं तन्न आसुव ' की स्थिति प्रारम्भ होती है .&&&&&&&&



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