मंगलवार, 17 सितंबर 2013

मूरख ह्रदय न चेत जो गुरु मिले विरंच सम

फूलें फले न बेत जदपि सुधा बरसे जलद। मूरख ह्रदय न चेत जो गुरु मिले विरंच सम ॥ '



जिसका अंत:करण उत्तेजना से सर्वथा शांत न हो गया हो , उसे अध्यात्म का उपदेश नहीं देना चाहिए। अशांत उत्तेजित मानस का व्यक्ति श्रुति आदि को या तो समझेगा ही नहीं या उसका अन्यथा अर्थ निकालकर स्वयं के अज्ञान की सीमा और बढ़ा लेगा। अशांत उत्तेजित व्यक्ति के लिए महा कवि तुलसी की यह उक्ति उचित ही है _ ' फूलें फले न बेत जदपि सुधा बरसे जलद। मूरख ह्रदय न चेत जो गुरु मिले विरंच सम ॥ '

भोग एवं इच्छाओं की तीव्रता और अमर्यादित आचरण मन को अशांत बनाते हैं। परिणाम स्वरूप वृत्ति अंतत: अप्रासंगिक चंचलता से मुक्त हो जाती है। चंचल वृत्ति सुने हुवे को ग्रहण नहीं करती; अगर कुछ ग्रहण कर लेती है तो अर्थ का अनर्थ बनाती है। वृत्ति की चंचलता सदैव निम्न धरातल पर रहती है। कहने का अर्थ है कि जब तक वृत्ति देह धरातल पर रहती है , चंचल बनी रहती है। भोग-प्रवणता वृत्ति की ऊर्ध्वगामिनी ऊर्जा का क्षय कर देती है। उसमे इतनी शक्ति भी नहीं रहती कि श्रुत को उच्चतर बुद्धि तक पंहुचा सके। परिणाम स्वरूप सुना हुवा ज्ञान स्थूल बुद्धि पर रुक जाता है। सामान्यत: स्थूल बुद्धि का सम्बन्ध केवल भौतिक क्रिया-कलाप से है। यह स्थूल बुद्धि कभी भी भोग-चिन्तन की सीमाओं से परे के विषय को सोच नहीं सकती। जड़ात्मक तमोगुणी भौतिक बुद्धि सुने हुवे ज्ञान को विकृत करके अज्ञान के लिए नेत्र बनती है। ऐसी बुद्धि वाला व्यक्ति भली बात को भी भ्रष्ट करके मनमानी करने लगता है।

एक बार किसी गृहस्थ ने अपने घर कथा बैठाने का विचार किया। उसने महाभारत कभी नहीं सुना था ; सत्संग -प्रवचन में महाभारत की छोटी-छोटी कथाएं उसने सुनी थीं , जो उसे शिक्षा-प्रद लगीं। उसने पंडित से महाभारत की कथा का आयोजन करवाया। कथा के अनन्तर उस गृहपति ने अपने पुत्र को बुलाया और पूछा _ ' बेटा
तुमने महाभारत से क्या सीखा ? ' बड़ी गंभीरता से पुत्र ने उत्तर दिया _ ' पिताजी पत्नी को दांव पर लगा कर भी युधिष्ठिर धर्म-भ्रष्ट नहीं हुवा , अपितु धर्मराज रहा। तो मैं भी यदि कठिनाई में कुछ हजार का जुवा खेल लूँ तो मेरा धर्म-भ्रष्ट कैसे हो सकता है ?' पुत्र का उत्तर सुनकर पिता ने उसे कहा कि _ ' जा अपनी बहन को भेज दे। ' लड़की से भी पिता ने वही प्रश्न किया तो बेटी ने उत्तर दिया _ ' पिताजी , कुंती ने विवाह से पहले पुत्र उत्पन्न किया फिर भी वह पंच-कन्याओं में आती है। यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगी। पिता ने सुनकर कहा , ' अच्छा ,अब अपनी माँ को भेज दे ' गृहपति ने पत्नी से भी यही प्रश्न किया। पत्नी बोली _ ' पांच पति होने के उपरांत द्रौपदी सती बनी रही , मुझे उसका यह सतीत्व बहुत ही अच्छा लगा। अब तक तीन तो मैं कर चुकी हूँ। दो और कर लूंगी तो मेरा सतीत्व पूरा हो जायेगा। '

चंचल मानस वाले व्यक्ति उस मक्खी की तरह हैं , जिसका भोजन केवल गंदगी है। उत्तेजित मन:स्थिति में ज्ञान के ग्रहण की स्थिति नहीं होती और श्रुत को विवेक पूर्वक समझने कि क्षमता नहीं होती है। अत: शांत मन:स्थिति से अप्रतिबद्ध होकर सत्य के प्रति समर्पित होना चाहिए।

 किसी भी के प्रवचन के माध्यम से सत्य को खोजने का प्रयास करना चाहिए। अप्रतिबद्ध होकर सत्य का अन्वेषक बनना चाहिए। अपने मनन और चिन्तन को तथ्य पर परखिए।ज्ञान का जन्म इन तथ्यों से होता है। चिन्तन जब तथ्य पर आधारित होता है, तब व्यक्तिवाद को कोई स्थान नहीं मिलता। मानसिक और बौद्धिक स्वतन्त्रता तथ्यों का ज्ञान के लिए प्रयोग करती है। अध्यात्म ज्ञान का व्याहारिक स्वरूप है। आध्यात्मिक होने का अर्थ जीवन में ज्ञान की अभिव्यक्ति है।^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


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