सोमवार, 23 सितंबर 2013

हिम्मत नहीं हारनी चाहिए


संकल्प के साथ शक्ति को संयुक्त करना एक कला 


संकल्प के साथ शक्ति को संयुक्त करना एक कला है। इसका कारण है , परिश्रम और प्रयासों के प्रति निरपेक्ष बने रहना। सच्चाई यही है कि केवल वे इच्छाएँ पूरी होती हैं , जिनके साथ सशक्त प्रयास भी जुड़े हों। यहाँ शक्ति का अर्थ उद्देश्य के प्रति दृढ़ निष्ठा , उसे पूरा करने के लिए आवश्यक बाधाओं से संघर्ष का मनोबल और साहस है। उपयुक्त और उच्च स्तर के साधन जुटाने के लिए लोग इंतजार करते रहते हैं और महत्त्वपूर्ण कार्य आरम्भ करने के लिए सोचते रहते हैं कि जब आवश्यक साधन जुट जायेंगे , तब उसे प्रारम्भ करेंगे। समुचित साधन जुटने की प्रतीक्षा में बैठे रहना , इस सम्भावना का ही आभास देता है कि शायद यह कार्य कभी भी प्रारम्भ  हो सकेगा। सोचते रहने के स्थान पर आवश्यकता उस जुट पड़ने की रहती है। स्वल्प साधनों से भी प्रबल साहस के सहारे बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किए जा सकते हैं। इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

१८ वर्षीय कोलम्बस की कल्पना अमेरिका तक जा पहुंची थी, परेशानियों में बुद्धिमत्तापूर्ण हल निकलते हुवे कोलम्बस ने अमेरिका खोज निकाला। उदाहरण बताते हैं कि वाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे डाकू संत बने। किसी समय का क्रूर निर्दयी शासक अशोक जब बदला तो उसने धर्म-चक्र के प्रवर्तन में मूर्धन्य भूमिका का निर्वाह किया। किसी समय अनेकों को भरमाने एवं गिराने वाली नगरवधू आम्रपाली व्रत लेकर परम साध्वी बनी और ऋषि-तुल्य उसकी सराहना हुयी। मनस्वी हारते नहीं , वे हर असफलता के बाद दूने साहस और चौगुने उत्साह के साथ अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। अब्राहम लिंकन चुनावों में १७ बार पराजित होने के कारण भी हारे नहीं , अपितु १८वीं बार राष्ट्रपति बने। निर्धन परिवार में जन्म होने के कारण उन्हें हर प्रकार की कठिनायियाँ सहनी पड़ी थीं , फिर भी वे कभी भी निराश नहीं हुवे। बाधाओं के उपरांत भी संघर्ष करते हुवे आगे ही बढ़ते गये। जार्ज वाशिंगटन अमेरिका के श्रद्धापात्र राष्ट्रपति माने जाते हैं , वे जन्म से ही घोर गरीबी में रहे और प्रौढ़ बनने तक अपने ही पुरुषार्थ के सहारे क्रमिक विकास करने में संलग्न रह सके। स्वयं अपने आप के अतिरिक्त और किसी का महत्त्वपूर्ण सहारा उन्हें मिल ही नहीं सका।

भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया और उसे बिना किसी कठिनाई के पूरा कर दिखाया। गिरता शरीर नहीं मन है। भगीरथ को गंगा-अवतरण अभीष्ट था। वे इसके लिए सतत प्रयत्नशील रहे और गहन तप से सफल सिद्ध हुवे। शीरी का प्रेमी फरहाद भी ऊंचा पहाड़ खोदकर लम्बी नहर खोद निकाल लाने में सफल हो गया था। जगतगुरु आदि शंकराचार्य की आरम्भिक परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थीं , जिनमें उनके द्वारा किसी बड़े उपक्रम की आशा की जा सके , किन्तु वे अपनी प्रचंड प्रतिभा को समझते हुवे जब किसी महान प्रयोजन में जुटे तो उनके द्वारा किए गये महान कृत्यों में संस्कृति को एक नवीन दिशा-धारा का लाभ मिल सका। वस्तुत: संकल्प ही अपने प्रत्यक्ष जीवन का ऐसा देवता है जिसके वरदान का लाभ उठा सकना किसी ले लिए भी सम्भव हो सकता है।

नर हो या नारी, बालक हो या वृद्ध , स्वस्थ हो रुग्ण, धनी हो या निर्धन परिस्थतियों से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। प्रश्न संकल्प-शक्ति का है। मनस्वी व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाने में सफल होते हैं। समय कितना लगा और श्रम कितना पड़ा उसमें अंतर हो सकता है। वंश-परम्परा या पारिवारिक परिस्थितियों की हीनता किसी की प्रगति में चिर स्थायी अवरोध उत्पन्न नही सकी है। इस प्रकार की अडचनें अधिक संघर्ष करने के लिए चुनौती देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकतीं। सत्यकाम जाबाल वेश्या-पुत्र थे। उनकी माता यह नहीं बता सकीं थी कि उस बालक का पिता कौन था ? ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऋषि ऐतरेय -- इतरा रखैल के पुत्र थे। महर्षि वसिष्ठ , मातंगी आदि के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है। रैदास , कबीर आदि का जन्म भी छोटे कहे जाने वाले परिवारों में ही हुवा था , पर इससे इन्हें महानता के उच्च पद तक पहुंचने में कोई स्थायी अवरोध उत्पन्न नहीं हुवा। मनुष्य की संकल्प-शक्ति और हिम्मत इतनी बड़ी है कि वह अग्रगमन के मार्ग में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक बाधा को पैरों तले रौंदती हुयी आगे बढ़ सकती है।

मनचाही सफलताएँ किसे मिली हैं ? मनोकामनाओं को सदा पूरी करते रहने वाला कल्पवृक्ष किसके आंगन में उगा है ? ऐसे तूफान आते ही रहते हैं जो संजोयी हुयी घास के घोंसले को उड़ाकर कहीं से कहीं फेंक दे और एक-एक तिनका बीन कर बननाए गये घरोंदे का अस्तित्व ही आकाश में छितरा दे, ऐसे अवसर पर दुर्बल मन:स्थिति के लोग टूट जाते हैं। नियति-क्रम से हर वस्तु का , हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहाँ होते हैं ? सब यह अपने-अपने ढंग से चलता रहे , पर मनुष्य भीतर से टूटने न पाए, इसी में उसका गौरव है। समुद्र-तट पर जमी हुयी चट्टानें चिर-अतीत से अपने स्थान पर जमी अड़ी बैठी हैं। हिलोरों ने अपना टकराना बंद नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहाँ गलत है कि चट्टान ने हार नहीं मानी है।  हमें टूटना चाहिए और  हार नहीं माननी चाहिए। नियति की चुनौती स्वीकार करना और उससे दो-दो हाथ करना ही मानवीय गौरव को स्थिर रख सकने वाला गौरवमय आचरण है। अत: हिम्मत नहीं हारनी चाहिए पर राम को भी नहीं बिसारना चाहिए। राम ही रमण करने वाली अंतर्शक्ति का प्रतीक एवं स्वरूप है। यही अंतर्शक्ति जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती है।********



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें