बुधवार, 18 सितंबर 2013

सत्य को पुस्तक में नहीं, जीवन की पाठशाला में ही

सत्य को पुस्तक में नहीं खोजा जा सकता। जीवन की पाठशाला में इन मूल्यों को ग्रहण किया जा सकता है।




एक युवक एक महात्मा के पास पहुंचा , उसने प्रार्थना की कि _ " महाराज ! मुझे प्रवज्या प्रदान कीजिए " महात्मा ने उससे पूछा , " क्या कारण है कि तुम संसार के सुख-भोग छोड़ना चाहते हो ?" युवक ने कहा _ " महाराज ! मैंने संसार को देख-परख लिया है। यह संसार छलना और दुखपूर्ण है। इस मिथ्या संसार में जीने का कोई कारण दिखाई नहीं देता।" महात्मा में गम्भीरता से सुनते रहे। जब युवक अपनी कह चुका तो उन्होंने पूछा _ " बेटा , अगर संसार ऐसा ही है तो ये हजारों मनुष्य कैसे जीते हैं ? " युवक ने कहा _ " महाराज , मैं यह नही जानता। किन्तु इतना समझ पाया हूँ कि यह संसार जीने के योग्य नहीं है। आप मुझे दीक्षा दें। मैं संसार में जीना नहीं चाहता। " अनुभवी महात्मा ने उससे कहा _ " जाओ , और यह मालूम करो कि वह क्या कारण है , जिसके लिए संसार में लोग जीते हैं ? जब तुम इस सत्य को खोज लाओगे तो तुम्हें प्रवज्या प्रदान कर दी जाएगी। " वह जिज्ञासु युवक सत्य की खोज में चल पड़ा। जंगल से नगर में आया। उस समय प्रात: काल था। बाजार खुल रहा था। वह एक दुकान के आगे रुक गया। सोचा पहले इस दूकानदार से ही क्यों न पूछ लूँ। इस संसार में वह क्यों जी रहा है ?


वह युवक दुकान पर पहुंचा और " एक सवाल है " कह कर उसने आवाज लगाई। दूकानदार बौखला गया और उसने कहा _ " अरे बाबा अभी बोहनी न बट्टा तुम सवाल लेकर आ गये। जाओ बाद में आना। " जिज्ञासु युवक ने नम्रता से कहा _ " सेठ जी रोटी-पैसे का सवाल नहीं है। एक बात पूछना चाहता हूँ। " दूकानदार ने पूछा _ " कहिए क्या चाहते हैं ? " जिज्ञासु ने पूछा _ " कृपया यह बता दीजिए कि आप क्यों जी रहे हैं। " अर्थापत्ति से इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि आप तत्काल मर क्यों नहीं जाते। अनपेक्षित प्रश्न से लाला सिहर गये। लाला ने सोचा प्रात:काल का समय है , गलत उत्तर दे दिया तो कहीं , वैसा ही न हो जाए ? अस्तु सच बोलना चाहिए। उसने सीधा-सा उत्तर दिया _ " महाराज ! मैं तो धन के लिए जी रहा हूँ। धन के अतिरिक्त मुझे और कुछ प्रिय नहीं है। पुत्र और पत्नी भी तभी तक प्रिय हैं , जब तक वे मेरे धन का संरक्षण करते हैं। " दूकानदार ने सच्चाई से मन की बात प्रकट कर दी। उत्तर से संतुष्ट होकर युवक और आगे बढ़ गया ।

उसने एक द्वार पर शहनाई बजती हुयी सुनी। पता चला कि एक युवक अभी ही विवाह कर अपनी पत्नी को लेकर घर पहुंचा है। उसने सोचा कि इस नव-विवाहित युवक से ही इस प्रश्न का उत्तर ले लिया जाए। उसने उस नव-विवाहित युवक से पूछना चाहा तो तुरंत ही वह युवक बोला _ " क्या आदेश है ? महाराज , भोजन-वस्त्र जो कहो सेवा में प्रस्तुत करूं ? " इस पर जिज्ञासु ने कहा _ " नहीं मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं केवल एक जानकारी लेना चाहता हूँ। बेटा , यह बताओ कि तुम क्यों जी रहे हो ?" प्रश्न सुनकर युवक कुछ क्षण मौन रह उसने आवाज दी और पत्नी को बुलाया एवं पत्नी को महाराज को प्रणाम करने को कहा। पत्नी के द्वारा प्रणाम करने के बाद युवक ने कहा _ " महाराज ! मैं इसके लिए ही जी रहा हूँ। इससे अधिक मुझे कोई प्रिय नहीं यह मेरी जिन्दगी है। " प्रश्न का उत्तर सुन जिज्ञासु आगे बढ़ गया।

मार्ग में नदी पड़ी। घाट पर एक महिला वस्त्र धो रही थी। जिज्ञासु ने सोचा कि क्यों न इससे भी यह प्रश्न पूछ लिया जाए। यह स्त्री भी तो नारी-वर्ग की प्रतिनिधि है। वह उसके पास गया और उसने प्रश्न पूछा। महिला ने विस्मित होकर उसकी ओर देखते हुवे बोली _ " देखते नहीं हो ? मेरी सूनी मांग , विधवा हूँ। यह एक पुत्र ही मेरा सहारा है और यही मेरा प्राण है।" उसने घाट पर खेल रहे एक 6 वर्ष के बच्चे की तरफ इशारा करते हुवे कहा _ " इस बच्चे के कारण ही मैं जी रही हूँ। " यह सुन जिज्ञासु वन की ओर चला गया। उसने जान लिया था कि संसार के लोग किसी-न-किसी कारण से जी रहे हैं। दूकानदार धन के लिए , युवक पत्नी के लिए और महिला अपनी सन्तान के लिए संघर्ष करते हुवे दुःख-रूपी संसार में जी रही है। प्रश्न का उत्तर उसने लगभग खोज ही निकाला था। महाराज जी को उत्तर देकर वह प्रवज्या ले ही लेगा ऐसा सोचता हुवा वह कुटिया पर पहुंचा। महात्मा ने पूछा _ " आ गये पुत्र , कहो क्या सत्य तुमने देखा ? " उसने कहा _ " महाराज संसार के लोग विभिन्न कारणों से जी रहे हैं। कोई धन के लिए , तो कोई पत्नी के लिए और कोई सन्तान के लिए जी रहा है। " नहीं -नहीं जीने के लिए इतने सारे कारण नहीं हो सकते। यह सत्य नहीं है। पुत्र सत्य एक है उस सत्य को तलाश करो। जब तक वह एक सत्य, जो परम सत्य है , नहीं खोज लोगे , प्रवज्या नहीं मिलेगी। " महात्मा ने कहा और उसे पुन: लौटा दिया।

जिज्ञासु पुन: दूकान के आगे पहुंचा, अब दृश्य बदल गया था। दूकान जल रही थी और दूकानदार चीख रहा था। चारों ओर एकत्रित लोग पानी-मिट्टी फेंक कर आग बुझाने में सहायता कर रहे थे। तेज वायु आग को बढ़ाती जा रही थी। बुझने की संभावना भीं दिखती थी, रोते हुवे दूकानदार ने कहा _ " अरे भई, कोई अंदर से मेरी पेटी निकाल लाओ। मैं रूपये में दस पैसे का हिस्सा दूंगा।" लाला ने भीड़ की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा, किन्तु कोई भी आग में घुसने को तैयार नहीं हुवा। ज्यों-ज्यों अग्नि की लपटें बढ़ती गयीं सेठ का आफर बढ़ता गया। आखिर वह इस सीमा पर आ गया कि आधा-आधा बाँट लिया जाए, पर अंदर से पेटी को बाहर कोई निकाल लाये। जिज्ञासु सब कुछ सुन रहा था, किन्तु समझ न सका कि आखिर लाला अपने प्रिय धन को क्यों आधा बाँट देने की बात कर रहा है। स्वयं ही अंदर से पेटी क्यों नहीं निकाल लाता। अस्तु जिज्ञासु ने लाला को सुझाया _ " क्या पागल हो गये हो ? स्वयं क्यों नहीं निकाल लाते। " किंकर्त्तव्य मूढ़ लाला ने फटी-फटी आँखों से जिज्ञासु की ओर देखा। कहने लगा _ " देखते नहीं हो आग बढ़ी हुयी है , लपटें उठ रहीं हैं। शहतीरें तड़क रही हैं , अंदर कैसे जा सकता हूँ ? " ओर फिर वह धाड़ मारकर रोने लगा। तब जिज्ञासु ने कहा _ " आखिर तुम धन के लिए तो जी रहे थे। मर जाओगे तो क्या होगा ? धन नष्ट हो जाने पर तुम किसके लिए जिओगे ? " " न बाबा धन जले या बचे मैं अंदर नहीं जा सकता। " सेठ निर्णयात्मक स्वर में बोला। जिज्ञासु ने पूछा _ " अरे तुम तो कहते थे कि मैं धन के लिए जीता हूँ। क्या उस दिन झूठ बोला था ? " जिज्ञासु ने अनुभव किया कि कोई ऐसी चीज भी है इस आदमी के पास , जिसके लिए वह धन छोड़ सकता है। क्या हो सकती है वह चीज ? जीवन, जीवन ही तत्त्व है , जो किसी भी मूल्य पर नहीं छोड़ा जा सकता। जीवन अर्थात चैतन्य या आत्मतत्त्व। यह लाला धन छोड़कर जीवन को बचा रहा है। ओह ! यह सब झूठ है कि कुछ लोग बस धन को ही प्यार करते हैं और धन के लिए ही जीते हैं । सत्य तो यह है कि आत्मा के लिए धन छोड़ा जा रहा है। अत: प्यार धन को नहीं केवल आत्मा के लिए ही है। धन के लिए धन प्यारा नहीं होता है। आत्मा के लिए धन प्यारा होता है, धन के लिए जीवन नहीं है , बल्कि जीवन के लिए धन होता है।


इस छोटी-सी घटना में जिज्ञासु ने जीवन का सत्य देखा। सत्य का अनुभव किया कि सर्वप्रिय केवल आत्म-तत्त्व है धन साध्य नहीं अपितु साधन है, यह अनुभूति भोग हुवा यथार्थ है। जिससे निकलने वाला सत्य विश्वसनीय और जीवन बदलने वाला होता है, प्राणवंत होता है। सत्य को पुस्तक में नहीं खोजा जा सकता। जीवन की पाठशाला में इन मूल्यों को ग्रहण किया जा सकता है।%%%%%%%

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