सोमवार, 23 सितंबर 2013

प्रशंसा - प्रोत्साहन एक दिव्य औषधि

हनुमान उठ खड़े हुवे और समुद्र पार करने का असंभव काम कर बैठे 


प्रशंसा और प्रोत्साहन वस्तुत: एक दिव्य औषधि के समान हैं। देखा जाए तो गहन अन्तस्तल में एक चेतन चिंगारी ऐसी है जो अपना सम्मान चाहती है।गौरवास्पद बनाने के लिए आकुल-व्याकुल रहती है। इस तड़पन की तृप्ति जहाँ से होती है , वह उसे प्रिय लगने लगती है। प्रशंसा एक प्रकार का प्रोत्साहन है , एक सन्देश है। जो प्राणी को साफ-साफ बता देता है कि उसे किस रूप में पसंद किया जाता है। खिलाडियों को सिखाते समय जब शिक्षक हाँ या शाबास कहता है तो वह उन्हें प्रोत्साहित करके उनके अंग- चालन प्रक्रिया पर अपनी स्वीकृति वाली मोहर लगा देता है। तथा उसका अधिकाधिक प्रयोग कर खिलाडी दक्ष बनता है। प्रोत्साहित करने का अवसर जब भी मिले उसे व्यक्त करने से चूका न जाए, इससे प्रशंसक की भी प्रतिष्ठा बढती है। इसके अतिरिक्त इसी के बल पर अग्रिम मार्ग-दर्शन एवं दोष-निवारण भी बन हो जाता है। प्रोत्साहन और प्रशंसा शिक्षण-प्रक्रिया का एक अति आवश्यक और व्यावहारिक अंग सिद्ध हुवा है। इससे विद्यार्थियों में प्रेरणा उत्पन्न होती है।

संसार में सर्वथा गुण-विहीन व्यक्ति कोई नहीं है। तलाश करने पर बुरा लगने वाले व्यक्ति में भी कुछ न कुछ गुण मिल सकते हैं। एक नव-विवाहिता के पति और श्वसुर दोनों उस पर हुकुम चलाया करते थे। भोली-भाली बेचारी पत्नी उस पर भी कभी अपनी खीझ भरी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती , किन्तु जब कभी उसके पति अथवा श्वसुर घर के छोटे-मोटे कामों को पूरा करने में उसका सहयोग करते तो पत्नी अपनी प्रसन्नता व्यक्त किए बिना और सम्मान दिए बिना नहीं रहती। इस तरह उसने उन दोनों को अपने अनुरूप करने में सफलता प्राप्त की। प्रशंसा और प्रोत्साहन के माध्यम से आगे बढ़ाना और उत्साहित करना जितना सरल है, उतना किसी अन्य प्रकार से संभव नहीं है। सकारात्मक प्रोत्साहन द्वारा व्यक्ति के वांछित आचरण में सुधार तभी आता है जब उसे कार्य की अवधि में ही दिया जाए। प्रोत्साहन परिवर्तनशील एवं सृजनात्मक होने चाहिएं। एक जैसे प्रोत्साहन अपना महत्त्व शून्य कर देते हैं।

जीवन में हम अपने आप से बड़ी -बड़ी आशाएं रखे रहते हैं । जब वे पूरी होने को हों तब हम उन पर अपने को प्रोत्साहित करें । अस्तु हम अपने को प्रोत्साहित करना भूल जाते हैं। करेन प्रायर के शब्दों में -- ' मैं समझती हूँ कि हमारी चिंता और उदासी का एक कारण प्रोत्साहन से वंचित होना भी है।' उनकी राय में व्यक्ति एक घंटे काम- काज बंद करके , दोस्तों के साथ गप्प लगाकर , आत्मानुमोदन से अपने आप को बेहतर तरीके से प्रोत्साहन दे सकता है। इस सन्दर्भ में अभिनेत्री रूथ गोर्डेन के सुझाव हैं-- ' कलाकार की प्रशंसा होनी ही चाहिए। अगर काफी दिनों तक मेरी प्रशंसा न हो तो मैं स्वयं अपने को बधाई देती हूँ। अपनी तारीफ़ आप करना दूसरों के मुख से तारीफ़ करना जैसा ही होता है। कम से कम इतना तो जानती ही हूँ कि यह तारीफ़ एकदम सही है। '



अपने आप को जानने की , अपने बारे में सोचने-समझने की उपेक्षा लोग- बाग़ किया करते हैं। व्यक्ति कितना ही व्यस्त क्यों न हो , उसे इस निमित्त समय निकालना ही चाहिए। रात्रि में निद्रा में निमग्न होने से पूर्व अपने दिन-भर के कार्यों का विवरण उसे स्वयं लेना चाहिए। जो भी स्तुत्य कृत्य, वचन या व्यवहार श्रेष्ठ जान पड़ें उस हेतु अपनी प्रशंसा स्वयं ही कर देनी चाहिए। निकृष्ट कार्यों पर स्वयं का आलोचन किया जाए तथा उनसे बचने का भी स्वयं को परामर्श देते रहना चाहिए। वास्तव में यही सच्ची पूजा और प्रार्थना है , यही ' असतो मा सद्गमय ' की स्थिति है।



प्रशंसा द्वारा मानव-ह्रदय जितना आकर्षित और आंदोलित होता है , उतना अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। प्रशंसा और प्रोत्साहन का जादू सभी पर प्रभाव डालता है। वानर सीता को खोजने गये तो समुद्र-तट पर जा कर सभी हिम्मत हार बैठे। तब जामवंतजी ने हनुमान को प्रोत्साहित किया , उनके गुणों की प्रशंसा की एवं उनको अपनी शक्ति का स्मरण कराया। कुछ क्षण पहले असमर्थों की पंक्ति में बैठे हनुमान उठ खड़े हुवे और समुद्र पार करने का असंभव काम कर बैठे उद्दंड छोकरे शिवाजी को प्रोत्साहित कर समर्थ गुरु रामदास ने हिन्दू धर्म की लाज रखने वाला बनाया। इतिहास में चमकने वाले अनेक उज्ज्वल रत्नों की उन्नति का श्रेय ऐसे लोगों को है। जिन्होंने उनके गुणों को परख कर उन्हें बढ़ावा दिया और मानव से महामानव बनाया। नरेन्द्र जैसे उद्धत किशोर को परख के भी श्री रामकृष्ण परमहंस ने उसे विश्व-विख्यात विवेकानंद बना दिया।

गुण-ग्राहक व्यक्ति ही औरों में निहित सत्प्रवृत्तियों को पुष्ट कर पाते हैं। वस्तुत: गुण या दोष देखना अपने दृष्टिकोण पर ही निर्भर है। दूसरों की विकृति देखते फिरना अपनी आंतरिक कुरूपता का ही दर्शन है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है , उसे यह विश्व वैसा ही दीखने लगता है। गुण-ग्राहक व्यक्ति सभी जगह से गुण खोज कर उपयोग कर लेना जानता है। आचार्य द्रोण ने शिष्य दुर्योधन को आसपास के गावों में जाकर वहां के गुण-सम्पन्न लोगों की जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा , लौटने पर दुर्योधन ने कहा -- ' कहीं एक भी गुण-संपन्न व्यक्ति नहीं है। सभी में दोष-दुर्गुणों का बोल-बाला है। गुणों का तो वे प्रदर्शन मात्र ही करते हैं।' अब युधिष्ठिर को इसी कार्य के लिए भेजा गया तो उन्होंने लौट कर सभी व्यक्तियों में गुण-गरिमा की बात कही। दोष-विकृतियाँ उन्हें अनुलेख्य ही लगीं। ये भिन्न निष्कर्ष दुर्योधन की दोष-दर्शन वृत्ति तथा युधिष्ठिर की गुण-ग्राहक वृत्ति की भिन्नता के कारण ही निकले। गुण-ग्राहक व्यक्तियों की सच्ची प्रशंसा और प्रोत्साहन से मुरझाये मन भी ऐसे ही हरे हो जाते हैं , जैसे मुरझाकर सूखने को हो रहे पौधे जल से सिंचित होते ही खिलने लगते हैं।

प्रशसा का अर्थ झूठी चापलूसी करके किसी का अनुचित अहंकार उभारना नहीं , उससे भी तात्कालिक स्वार्थ सिद्ध होते हैं, किन्तु अंतत: चापलूसी से मन में ग्लानि ही उत्पन्न होती है। फिर जिसकी झूठी चापलूसी की जाती है , उसका भी अनिष्ट ही होता है। उभरा हुवा अहंकार उसकी विवेक- बुद्धि को कुंठित कर देता है, और उससे अनुकरणीय अनुचित काम करा देता है। गुण-ग्राहिकता चाटुकारिता से सर्वथा भिन्न वस्तु है। चाटुकारिता में प्रवंचना और क्षुद्रता का भाव होता है। उसमें या तो हीनता की भावना काम करती है या ठगी की। जबकि गुण- ग्राहकता के पीछे उदार मानवीयता की प्रेरणा होती है। प्रशंसा और प्रोत्साहन द्वारा अनेकों व्यक्तियों को ऊंचा उठाने और आगे बढ़ाने में सत्प्रयोजन को पूरा किया जा सकता है। फिर यह भी हो सकता है कि कोई क्रियाशील व्यक्ति आपकी प्रशंसा-प्रोत्साहन पाकर अभावों -प्रतिकूलताओं के बीच भी आगे बढ़ने का साहस नये सिरे से जुटा ले और उन्नति के प्रकाशपूर्ण पथ पर चलता हुवा एक दिन ऊंची चोटी पर जा पहुंचे। इस महान कर्म -साधना में आप भी अनायास ही पुण्य के भागी हो जाएँ। पुण्य- कर्म से अनेकों के अंत:करण की चिर-तृषा तृप्त होती है, उन्नति के अवरुद्ध स्रोत खुल जाते हैं। अविकसित सद्प्रवृत्तियां प्रस्फुटित हो जाती हैं। छिपी योग्यताएं जागृत हो जाती हैं। तथा निराशा के अंधकार में उन्हें पुन: आशा का दीपक जगमगाता दृष्टि-गोचर होने लगता है।

यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि वाणी की मधुरता का उपयोग संपर्क में आने वाले की प्रसन्नता -वृद्धि के साथ-साथ हित-कामना के लिए भी किया जा सकता है। किसी को सत्परामर्श देने के लिए भी यह आवश्यक है, पहले उसकी अनुकूलता अर्जित की जाए। प्रतिकूलता का मनोमालिन्य बन जाने पर तो हितकारी परामर्श स्वीकार करने एवं सहयोग लेने में भी आनाकानी या संकोच होते देखा गया है। एक चूड़ी बेचने वाला घोड़ी पर चुदियाँ लादकर गावों में बेचने जा रहा था। समय -समय पर वह घोड़ी को रस्ते में बेटी-बहिन , देवी-मुन्नी आदि शब्दों से संबोधन करता जाता है। रास्ते में मिले व्यक्तियों ने घोड़ी को इतना मान देने का कारण पूछा तो उसने कहा --- ' मैं अपनी वाणी को परिमार्जित कर रहा हूँ ताकि जिन महिलाओं के बीच मुझे व्यापार करना है , उनसे मीठा बोलकर अधिक सामान बेच कर , अधिक लाभ प्राप्त कर सकूँ। '

यह प्रवृत्ति हममें से प्रत्येक को पैदा करनी चाहिए। प्रशंसा करने का जब भी अवसर मिले उसे अवश्य ही व्यक्त करना चाहिए। इससे स्वयं अपनी प्रतिष्ठा बढ़ती है, श्रेय मिलता है। इसके अतिरिक्त इस आधार पर उनका मार्ग-दर्शन एवं दोष- निराकरण भी संभव हो सकता है। निश्चय ही प्रशंसा और प्रोत्साहन एक दिव्य औषधि का कार्य करता है। इससे व्यक्ति सामान्य औषधि से कहीं अधिक स्वस्थ होकर विशिष्टता की ओर अग्रसर होता है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


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