गुरुवार, 26 मार्च 2015

- चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा की मुख्य निष्पत्तियां हैं--भावों का परिष्कार , स्वभाव एवं आदतों में परिवर्तनं , ज्ञान , आनंद ,और शक्ति का जागरण। हमारे शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं , जहाँ चैतन्य दूसरे अवयवों की अपेक्षा अधिक सघन होता है। इसलिए इन्हें चैतन्य केन्द्रों की संज्ञा दी गयी है। हमारे शरीर के दो मुख्य तंत्र हैं--एक नाड़ी-तंत्र और दूसरा ग्रंथि- तंत्र । नाड़ी -तंत्र में हमारी सारी वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं, ये अनुभव में आकर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार अनुभव एवं अभिव्यक्ति ये नाड़ी - तंत्र के कार्य हैं। किन्तु आदतों का जन्म ग्रंथि -तंत्र में ही होता है। ये ही आदतें मष्तिष्क तक पहुंचती है, अभियक्त होती है। चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करने से अंत:स्रावी ग्रंथियों के साथ परिष्कृत होते हैं। चित्त का यह स्वभाव है कि वह सिर से लेकर पैर तक चक्कर लगाता रहता है। हृदय , कंठ , और मष्तिष्क -- ये तीन स्थान साधना में बहुत उपयोगी हैं। हृदय आनन्द - केंद्र, कंठ विशुद्धि - केंद्र और मष्तिष्क ज्ञान - केंद्र है चैतन्य केंद्र का प्रारम्भ शक्ति- केंद्र कि प्रेक्षा से होता है और एक-एक चैतन्य केंद्र की प्रेक्षा करते हुवे ज्ञान-केंद्र तक चित्त की यात्रा की जाती है। लेबल: चित्त प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 10:45 AM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक शुक्रवार, 28 मई 2010 बोधि सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥" लेबल: विषय प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:56 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मंगलवार, 25 मई 2010 समथ और विपश्यना समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले। विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है। लेबल: भव-भव प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 5:42 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक आसक्ति आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एक तृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञान। जब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।। "....इति=+ लेबल: तृष्णा प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:03 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक दु:ख आर्य-सत्य दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इति=+ लेबल: संवेदना प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 6:45 AM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक गुरुवार, 20 मई 2010 अन्विता अन्विता से तात्पर्य संयुक्त्त होने से है । संयुक्त किस से होना और क्यों ? आत्मा -परमात्मा से संयुक्त स्थिति को भी अन्विता के रूप में देखा जा सकता है । पहले अन्विता का व्याकरणिक स्वरूप को देखना चाहिए । व्याकरणिक दृष्टि से जिसका अन्वय हुवा हो ,उसे अन्विता कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से अन्विता परस्पर सम्बन्ध ,मेल ,वाक्य की शब्द -योजना ,वंश , कुल आदि के लिए आता है । अन्विता जीवन में तारतम्यता को प्रस्तुत करती है ,तारतम्यता का तात्पर्य जीवन में सूत्रबद्धता से है । जीवन में प्रत्येक कार्य सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध करना ही अन्विता का भाव प्रकट करता है । कार्य-कारण की स्थिति का न्याय स्पष्ट्त: संकेत करता है कि बिना कारण के कोई कार्य कभी भी नहीं हो सकता । जैसे स्पष्ट है कि बिना बादल के बरसात नहीं होती ; धूप है तो सूर्य भी है। उसी प्रकार प्रत्येक प्रत्यक्ष कार्य का कोई न कोई अवश्य ही अप्रत्यक्ष कारण होता है। यह न्याय ही अन्विता-बोध है । एक तरह से एक बात की सिद्धि से दूसरी बात की सिद्धि - योग ही अन्विता -सूचक है। एकतानता का अर्थात यूनिटी का रूप भी अन्विता है। अन्विता दुर्गा का भी एक नाम है। क्योंकि दुर्गा ही व्यक्ति को प्रेरित है कि वह काली माई का वीभत्स रूप छोढ़कर सात्विक दुर्गम रूप धारण करे , सत मार्ग पर चलना कोई सहज कार्य नहीं है ,सत और असत में अन्वित्त -बोध ही अन्विता है । लेबल: यूनिटी प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 2:47 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक दिशिता दिशिता का अर्थ दिशा की तारतम्यता से है । दिशा के लिए दिश तथा दिक् भी प्रयोग में आता है । नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार को दिशा कहा जाता है । ओर संज्ञा भी दिशा के लिए प्रयुक्त होती है । क्षितिज -वृत्त के चार विभाग किए गये हैं । इन्हें पूर्व ,पश्चिम ,उत्तर तथा दक्षिण दिशा कहा गया है । क्रमश: प्रत्येक दो दिशाओं में एक- एक कोण भी दी गये हैं । ये कोण अग्नि ,नेरृति ,वायु और ईश नाम से जाने जाते हैं । एक दिशा ऊर्ध्व और दूसरी दिशा अध: होती है , पहली दिशा का पालक देवता ब्रह्मा और दूसरी दिशा का पालक देवता अनंत है । इस प्रकार दस दिशाएं हैं । दिशाओं में से किसी एक दिशा को अपना लक्ष्य बना कर प्रगति करनी होती है । सही दिशा का चयन एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है । अन्यथा दिग-भ्रम की स्थिति हो जाती है । स्व-केंद्र स्वयं निर्धारित करना होता है । स्वयं अपनी दिशा को निर्धारित कर प्रगति करनी होती है । इस स्थिति - मन में लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती है । दिशा-वृत्त में केंद्र-बिंदु बन कर दिशा की तारतम्यता बनाये रखना ही दिशिता है । इसे ही दिशा -बोध कहा जा सकता है । निश्चित लक्ष्य,पक्का इरादा ,दूर -दृष्टि ही दिशिता का पूर्ण मंतव्य है । उचित दिशा-बोध ही वस्तुत: है--- दिशिता । लेबल: क्षितिज प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 1:51 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक बुधवार, 19 मई 2010 ऋत- सत्य ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा - सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही। ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है । लेबल: सत्य प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:20 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मंगलवार, 18 मई 2010 अभिव्यक्ति अभिव्यक्ति का अर्थ है --अपने को किसी भी माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करना। अनुभूति को विस्तृत एवं विस्तारित करना ही अभिव्यक्ति है । सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बीज से अंकुर का आविर्भाव होता है । कलात्मक स्थिति का ही प्रसार अभिव्यक्ति के माध्यम से होता है । कला के दो भेद हैं --ललित और उपयोगी ।वास्तु , मूर्ति , चित्र ,संगीत और काव्य ये पांच ललित कलाएं हैं। ललित कलाओं में अमूर्त -आधार की मात्रा के अनुसार उनकी श्रेष्ठ स्थिति को स्वीकार किया गया है। उपयोगी कलाओं में समस्त प्रकार की कलाओं को स्थापित किया गया है। कलाओं में पूर्णता अभिव्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अनुभूति जहाँ विचार रूप में स्थित है ,वहां अभिव्यक्ति कलात्मक रूप में शिल्पाकार ग्रहण करती है। यह विचार को अभिव्यक्त करने वाली कला है । अनुभूति जब स्थिर हो शुद्ध चेतना का रूप धारण करती है । तब अभिव्यक्ति अपना प्रसार प्रारम्भ करती है । अनुभूति यदि बीज है तो अभिव्यक्ति उसका अंकुरित ,प्रस्फुटित ,पुष्पित ,प्रफुल्लित एवं फलित रूप है। अनभूति के द्वारा आंतरिक लोक की परम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । तो अभिव्यक्ति द्वारा इह लोक में यश ,कीर्ति , वैभव ,प्रसिद्धि तथा आनंद को प्राप्त की जा सकता है। मेरी अभिव्यक्ति ही मुझे यश दिला सकती है .... । लेबल: यश प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 1:10 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मेरे बारे में मेरा फोटो VIDYALANKAR GHAZIABAD, U. P., INDIA सेवा-निवृत्त प्राचार्य एस.डी.पी.जी.कालेज। एम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट.उपाधि प्राप्त। ' आचार्य शंकर पुरस्कार' ॐ एवं प्रणव पर शोध-ग्रन्थ लिखने पर १९९६ में ३१ हजार तथा आदिशंकराचार्य का स्वर्ण-अंकित पदक प्राप्त। मेरे पिता डा.गंगाराम गर्ग गु.का.वि.वि., हरिद्वार के पूर्व कुलपति रहे तथा विश्वविख्यात विश्व-कोशों के रचयिता।धर्म- पत्नी डा.बीना गर्ग ,डी.लिट.अध्यक्ष,हिंदी-विभाग वी.एम्.एल.पी.जी.कालेज। आर्यसमाज का संरक्षक तथा अखिल भारतीय योग संस्थान का संस्थापक सदस्य।आई.आई.टी.दिल्ली से कम्प्यूटर में A.C.C.L.(92)। मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें लिंक Google News Edit-Me Edit-Me पिछले संदेश विदुषी विनम्र वन्दिता कुसुम का बल शशि सौरभ समर्थ रजनीश चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा बोधि समथ और विपश्यना मेमोरी May 2010 June 2010 Powered by Blogger सदस्यता लें संदेश [Atom] हैं--भावों का परिष्कार , स्वभाव एवं आदतों में परिवर्तनं , ज्ञान , आनंद ,और शक्ति का जागरण। हमारे शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं , जहाँ चैतन्य दूसरे अवयवों की अपेक्षा अधिक सघन होता है। इसलिए इन्हें चैतन्य केन्द्रों की संज्ञा दी गयी है। हमारे शरीर के दो मुख्य तंत्र हैं--एक नाड़ी-तंत्र और दूसरा ग्रंथि- तंत्र । नाड़ी -तंत्र में हमारी सारी वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं, ये अनुभव में आकर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार अनुभव एवं अभिव्यक्ति ये नाड़ी - तंत्र के कार्य हैं। किन्तु आदतों का जन्म ग्रंथि -तंत्र में ही होता है। ये ही आदतें मष्तिष्क तक पहुंचती है, अभियक्त होती है। चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करने से अंत:स्रावी ग्रंथियों के साथ परिष्कृत होते हैं। चित्त का यह स्वभाव है कि वह सिर से लेकर पैर तक चक्कर लगाता रहता है। हृदय , कंठ , और मष्तिष्क -- ये तीन स्थान साधना में बहुत उपयोगी हैं। हृदय आनन्द - केंद्र, कंठ विशुद्धि - केंद्र और मष्तिष्क ज्ञान - केंद्र है चैतन्य केंद्र का प्रारम्भ शक्ति- केंद्र कि प्रेक्षा से होता है और एक-एक चैतन्य केंद्र की प्रेक्षा करते हुवे ज्ञान-केंद्र तक चित्त की यात्रा की जाती है। लेबल: चित्त प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 10:45 AM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक शुक्रवार, 28 मई 2010 बोधि सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥" लेबल: विषय प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:56 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मंगलवार, 25 मई 2010 समथ और विपश्यना समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले। विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है। लेबल: भव-भव प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 5:42 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक आसक्ति आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एक तृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञान। जब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।। "....इति=+ लेबल: तृष्णा प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:03 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक दु:ख आर्य-सत्य दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इति=+ लेबल: संवेदना प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 6:45 AM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक गुरुवार, 20 मई 2010 अन्विता अन्विता से तात्पर्य संयुक्त्त होने से है । संयुक्त किस से होना और क्यों ? आत्मा -परमात्मा से संयुक्त स्थिति को भी अन्विता के रूप में देखा जा सकता है । पहले अन्विता का व्याकरणिक स्वरूप को देखना चाहिए । व्याकरणिक दृष्टि से जिसका अन्वय हुवा हो ,उसे अन्विता कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से अन्विता परस्पर सम्बन्ध ,मेल ,वाक्य की शब्द -योजना ,वंश , कुल आदि के लिए आता है । अन्विता जीवन में तारतम्यता को प्रस्तुत करती है ,तारतम्यता का तात्पर्य जीवन में सूत्रबद्धता से है । जीवन में प्रत्येक कार्य सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध करना ही अन्विता का भाव प्रकट करता है । कार्य-कारण की स्थिति का न्याय स्पष्ट्त: संकेत करता है कि बिना कारण के कोई कार्य कभी भी नहीं हो सकता । जैसे स्पष्ट है कि बिना बादल के बरसात नहीं होती ; धूप है तो सूर्य भी है। उसी प्रकार प्रत्येक प्रत्यक्ष कार्य का कोई न कोई अवश्य ही अप्रत्यक्ष कारण होता है। यह न्याय ही अन्विता-बोध है । एक तरह से एक बात की सिद्धि से दूसरी बात की सिद्धि - योग ही अन्विता -सूचक है। एकतानता का अर्थात यूनिटी का रूप भी अन्विता है। अन्विता दुर्गा का भी एक नाम है। क्योंकि दुर्गा ही व्यक्ति को प्रेरित है कि वह काली माई का वीभत्स रूप छोढ़कर सात्विक दुर्गम रूप धारण करे , सत मार्ग पर चलना कोई सहज कार्य नहीं है ,सत और असत में अन्वित्त -बोध ही अन्विता है । लेबल: यूनिटी प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 2:47 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक दिशिता दिशिता का अर्थ दिशा की तारतम्यता से है । दिशा के लिए दिश तथा दिक् भी प्रयोग में आता है । नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार को दिशा कहा जाता है । ओर संज्ञा भी दिशा के लिए प्रयुक्त होती है । क्षितिज -वृत्त के चार विभाग किए गये हैं । इन्हें पूर्व ,पश्चिम ,उत्तर तथा दक्षिण दिशा कहा गया है । क्रमश: प्रत्येक दो दिशाओं में एक- एक कोण भी दी गये हैं । ये कोण अग्नि ,नेरृति ,वायु और ईश नाम से जाने जाते हैं । एक दिशा ऊर्ध्व और दूसरी दिशा अध: होती है , पहली दिशा का पालक देवता ब्रह्मा और दूसरी दिशा का पालक देवता अनंत है । इस प्रकार दस दिशाएं हैं । दिशाओं में से किसी एक दिशा को अपना लक्ष्य बना कर प्रगति करनी होती है । सही दिशा का चयन एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है । अन्यथा दिग-भ्रम की स्थिति हो जाती है । स्व-केंद्र स्वयं निर्धारित करना होता है । स्वयं अपनी दिशा को निर्धारित कर प्रगति करनी होती है । इस स्थिति - मन में लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती है । दिशा-वृत्त में केंद्र-बिंदु बन कर दिशा की तारतम्यता बनाये रखना ही दिशिता है । इसे ही दिशा -बोध कहा जा सकता है । निश्चित लक्ष्य,पक्का इरादा ,दूर -दृष्टि ही दिशिता का पूर्ण मंतव्य है । उचित दिशा-बोध ही वस्तुत: है--- दिशिता । लेबल: क्षितिज प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 1:51 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक बुधवार, 19 मई 2010 ऋत- सत्य ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा - सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही। ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है । लेबल: सत्य प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 12:20 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मंगलवार, 18 मई 2010 अभिव्यक्ति अभिव्यक्ति का अर्थ है --अपने को किसी भी माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करना। अनुभूति को विस्तृत एवं विस्तारित करना ही अभिव्यक्ति है । सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बीज से अंकुर का आविर्भाव होता है । कलात्मक स्थिति का ही प्रसार अभिव्यक्ति के माध्यम से होता है । कला के दो भेद हैं --ललित और उपयोगी ।वास्तु , मूर्ति , चित्र ,संगीत और काव्य ये पांच ललित कलाएं हैं। ललित कलाओं में अमूर्त -आधार की मात्रा के अनुसार उनकी श्रेष्ठ स्थिति को स्वीकार किया गया है। उपयोगी कलाओं में समस्त प्रकार की कलाओं को स्थापित किया गया है। कलाओं में पूर्णता अभिव्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अनुभूति जहाँ विचार रूप में स्थित है ,वहां अभिव्यक्ति कलात्मक रूप में शिल्पाकार ग्रहण करती है। यह विचार को अभिव्यक्त करने वाली कला है । अनुभूति जब स्थिर हो शुद्ध चेतना का रूप धारण करती है । तब अभिव्यक्ति अपना प्रसार प्रारम्भ करती है । अनुभूति यदि बीज है तो अभिव्यक्ति उसका अंकुरित ,प्रस्फुटित ,पुष्पित ,प्रफुल्लित एवं फलित रूप है। अनभूति के द्वारा आंतरिक लोक की परम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । तो अभिव्यक्ति द्वारा इह लोक में यश ,कीर्ति , वैभव ,प्रसिद्धि तथा आनंद को प्राप्त की जा सकता है। मेरी अभिव्यक्ति ही मुझे यश दिला सकती है .... । लेबल: यश प्रस्तुतकर्ता VIDYALANKAR 1:10 PM पर 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक मेरे बारे में मेरा फोटो VIDYALANKAR GHAZIABAD, U. P., INDIA सेवा-निवृत्त प्राचार्य एस.डी.पी.जी.कालेज। एम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट.उपाधि प्राप्त। ' आचार्य शंकर पुरस्कार' ॐ एवं प्रणव पर शोध-ग्रन्थ लिखने पर १९९६ में ३१ हजार तथा आदिशंकराचार्य का स्वर्ण-अंकित पदक प्राप्त। मेरे पिता डा.गंगाराम गर्ग गु.का.वि.वि., हरिद्वार के पूर्व कुलपति रहे तथा विश्वविख्यात विश्व-कोशों के रचयिता।धर्म- पत्नी डा.बीना गर्ग ,डी.लिट.अध्यक्ष,हिंदी-विभाग वी.एम्.एल.पी.जी.कालेज। आर्यसमाज का संरक्षक तथा अखिल भारतीय योग संस्थान का संस्थापक सदस्य।आई.आई.टी.दिल्ली से कम्प्यूटर में A.C.C.L.(92)। मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें लिंक Google News Edit-Me Edit-Me पिछले संदेश विदुषी विनम्र वन्दिता कुसुम का बल शशि सौरभ समर्थ रजनीश चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा बोधि समथ और विपश्यना मेरी May 2010 June 2010 Powered by Blogger सदस्यता लें संदेश [Atoमोm]



चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा की मुख्य निष्पत्तियां हैं--भावों का परिष्कार , स्वभाव एवं आदतों में परिवर्तनं , ज्ञान , आनंद ,और शक्ति का जागरण। हमारे शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं , जहाँ चैतन्य दूसरे अवयवों की अपेक्षा अधिक सघन होता है। इसलिए इन्हें चैतन्य केन्द्रों की संज्ञा दी गयी है। हमारे शरीर के दो मुख्य तंत्र हैं--एक नाड़ी-तंत्र और दूसरा ग्रंथि- तंत्र । नाड़ी -तंत्र में हमारी सारी वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं, ये अनुभव में आकर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार अनुभव एवं अभिव्यक्ति ये नाड़ी - तंत्र के कार्य हैं। किन्तु आदतों का जन्म ग्रंथि -तंत्र में ही होता है। ये ही आदतें मष्तिष्क तक पहुंचती है, अभियक्त होती है। चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करने से अंत:स्रावी ग्रंथियों के साथ परिष्कृत होते हैं। चित्त का यह स्वभाव है कि वह सिर से लेकर पैर तक चक्कर लगाता रहता है। हृदय , कंठ , और मष्तिष्क -- ये तीन स्थान साधना में बहुत उपयोगी हैं। हृदय आनन्द - केंद्र, कंठ विशुद्धि - केंद्र और मष्तिष्क ज्ञान - केंद्र है चैतन्य केंद्र का प्रारम्भ शक्ति- केंद्र कि प्रेक्षा से होता है और एक-एक चैतन्य केंद्र की प्रेक्षा करते हुवे ज्ञान-केंद्र तक चित्त की यात्रा की जाती है।
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शुक्रवार, 28 मई 2010

बोधि

सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम,वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ ,शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधिसम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"
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मंगलवार, 25 मई 2010

समथ और विपश्यना

समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले।विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है।
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आसक्ति

आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एकतृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञान। जब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।।"....इति=+
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दु:ख आर्य-सत्य

दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इति=+
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गुरुवार, 20 मई 2010

अन्विता

अन्विता से तात्पर्य संयुक्त्त होने से है । संयुक्त किस से होना और क्यों ? आत्मा -परमात्मा से संयुक्त स्थिति को भी अन्विता के रूप में देखा जा सकता है । पहले अन्विता का व्याकरणिक स्वरूप को देखना चाहिए । व्याकरणिक दृष्टि से जिसकाअन्वय हुवा हो ,उसे अन्विता कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से अन्विता परस्पर सम्बन्ध ,मेल ,वाक्य की शब्द -योजना ,वंश , कुल आदि के लिए आता है । अन्विता जीवन में तारतम्यता को प्रस्तुत करती है ,तारतम्यता का तात्पर्य जीवन में सूत्रबद्धता से है । जीवन में प्रत्येक कार्य सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध करना ही अन्विता का भाव प्रकट करता है । कार्य-कारण की स्थिति का न्याय स्पष्ट्त: संकेत करता है कि बिना कारण के कोई कार्य कभी भी नहीं हो सकता । जैसे स्पष्ट है कि बिना बादल के बरसात नहीं होती ; धूप है तो सूर्य भी है। उसी प्रकार प्रत्येक प्रत्यक्ष कार्य का कोई न कोई अवश्य ही अप्रत्यक्ष कारण होता है। यह न्याय ही अन्विता-बोध है । एक तरह से एक बात की सिद्धि से दूसरी बात की सिद्धि - योग ही अन्विता -सूचक है। एकतानता का अर्थात यूनिटी का रूप भी अन्विता है। अन्विता दुर्गा का भी एक नाम है। क्योंकि दुर्गा ही व्यक्ति को प्रेरित है कि वह काली माई का वीभत्स रूप छोढ़कर सात्विक दुर्गम रूप धारण करे , सत मार्ग पर चलना कोई सहज कार्य नहीं है ,सत और असत में अन्वित्त -बोध ही अन्विता है ।
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दिशिता

दिशिता का अर्थ दिशा की तारतम्यता से है । दिशा के लिए दिश तथा दिक् भी प्रयोग में आता है । नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार को दिशा कहा जाता है । ओर संज्ञा भी दिशा के लिए प्रयुक्त होती है । क्षितिज -वृत्त के चार विभाग किए गये हैं । इन्हें पूर्व ,पश्चिम ,उत्तर तथा दक्षिण दिशा कहा गया है । क्रमश: प्रत्येक दो दिशाओं में एक- एक कोण भी दी गये हैं । ये कोण अग्नि ,नेरृति ,वायु और ईश नाम से जाने जाते हैं । एक दिशा ऊर्ध्व और दूसरी दिशा अध: होती है , पहली दिशा का पालक देवता ब्रह्मा और दूसरीदिशा का पालक देवता अनंत है । इस प्रकार दस दिशाएं हैं । दिशाओं में से किसी एक दिशा को अपना लक्ष्य बना कर प्रगति करनी होती है । सही दिशा का चयन एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है । अन्यथा दिग-भ्रम की स्थिति हो जाती है । स्व-केंद्र स्वयं निर्धारित करना होता है । स्वयं अपनी दिशा को निर्धारित कर प्रगति करनी होती है । इस स्थिति - मन में लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती है । दिशा-वृत्त में केंद्र-बिंदु बन कर दिशा की तारतम्यता बनाये रखना ही दिशिता है । इसे ही दिशा -बोध कहा जा सकता है । निश्चित लक्ष्य,पक्का इरादा ,दूर -दृष्टि ही दिशिता का पूर्ण मंतव्य है । उचित दिशा-बोध ही वस्तुत: है--- दिशिता ।
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बुधवार, 19 मई 2010

ऋत- सत्य

ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा - सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही।ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है ।
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मंगलवार, 18 मई 2010

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति का अर्थ है --अपने को किसी भी माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करना। अनुभूति को विस्तृत एवं विस्तारित करना ही अभिव्यक्ति है । सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बीज से अंकुर का आविर्भाव होता है ।कलात्मक स्थिति का ही प्रसार अभिव्यक्ति के माध्यम से होता है । कला के दो भेद हैं --ललित और उपयोगी ।वास्तु , मूर्ति , चित्र ,संगीत और काव्य ये पांच ललित कलाएं हैं। ललित कलाओं में अमूर्त -आधार की मात्रा के अनुसार उनकी श्रेष्ठ स्थिति को स्वीकार किया गया है। उपयोगी कलाओं में समस्त प्रकार की कलाओं को स्थापित किया गया है। कलाओं में पूर्णता अभिव्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अनुभूति जहाँ विचार रूप में स्थित है ,वहां अभिव्यक्ति कलात्मक रूप में शिल्पाकार ग्रहण करती है। यह विचार को अभिव्यक्त करने वाली कला है । अनुभूति जब स्थिर हो शुद्ध चेतना का रूप धारण करती है । तब अभिव्यक्ति अपना प्रसार प्रारम्भ करती है । अनुभूति यदि बीज है तो अभिव्यक्ति उसका अंकुरित ,प्रस्फुटित ,पुष्पित ,प्रफुल्लित एवं फलित रूप है। अनभूति के द्वारा आंतरिक लोक की परम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । तो अभिव्यक्ति द्वारा इह लोक में यश ,कीर्ति , वैभव ,प्रसिद्धि तथा आनंद को प्राप्त की जा सकता है। मेरी अभिव्यक्ति ही मुझे यश दिला सकती है .... ।
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गुरुवार, 8 मई 2014

दु:ख आर्य-सत्य

दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। 
अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इ
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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मन के मैले चीर

शुद्ध एवं बुद्ध 


सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं।




जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। 




हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। 




विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

शनिवार, 11 जनवरी 2014

सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर

भावनामयी -प्रज्ञा


भावनामयी -प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश में हेतु अधुना विचार करना है । अपनी अनुभूतियों के बलपर जो प्रज्ञा बढ़ रही है , वह कल्याणकारी प्रज्ञा है । सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर जो जाने ,वही भावनामयी प्रज्ञा है । अपनी अनुभूति में जो उतर रहा है , वही अपनी प्रज्ञा है। सबसे पहले सच्चाई इस शरीर की है । इससे काम शुरू करते हैं और इसकी सूक्ष्मताओं में उतरते हैं । धीरे- धीरे चित्त की सूक्ष्मताओं में उतरते हैं उस के , गुण ,धर्म , स्वभाव को देखते हैं । इसके बाद जो इन्द्रियातीत धर्म है , सच्चाई है, लोकातीत धर्म है , उसका साक्षात्कार अपने आप हो जाता है ।

 अनुभूति से मालूम कि उत्पन्न - नष्ट होने वाले ये कण परमाणु से भी छोटे हैं , उस समय की समृद्ध भाषा में भी ऐसे छोटे कण को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं था । तब एक नये शब्द अश्ट्कलाप kओ स्वीकार किया गया । अष्ट कलाप उस ईकाई को कहा , जहाँ आठ चीजें जुढ गयीं । उनके और टुकढे नही हो सकते । यह है भौतिक जगत की नन्ही -सी -नन्ही इकाई ।

 चार भौतिक तत्व और उनके अपने -अपने गुण ,धर्म और स्वभाव । अनुभूतियों के स्तर पर जब यह बात स्पष्ट होती है कि यह शरीर कितना अनित्य है, कितना भंगुर है । प्रति क्षण उदय होता है ,व्यय होता है ,तो आसक्तियां अपने आप टूटने लगती हैं । ज्यों -ज्यों अनित्य-बोध पुष्ट होने लगता है , त्यों-त्यों प्रज्ञा का दूसरा अंग अनात्म-बोध स्पष्ट होने लगता है ।

 अनुभूति के स्तर पर देखने लगेंगे तो पता चलेगा कि जिनके प्रति आसक्ति पैदा कर रहे हैं ,ये तो तरंगें ही तरंगें हैं । अनात्म का अर्थ है ,जहाँ अहं समाप्त हो जाये । तभी राग मिटता है ,द्वेष मिटता है । परिणामत: प्रज्ञा के तीसरे अंग दु:ख का वास्तविक बोध होने लगता है । सही माने में दुख के दर्शन होने लगेंगे । 

प्राय: जिसे सुख संवेदना कहते हैं ,अनित्य स्वभाव वाली होने के कारण उसके नष्ट होने पर जो दुःख होता है ,उसे भी जानेंगे तथा उसे साक्षी ,द्रष्टा एवं तटस्थ भाव देखना सीखेंगे । अनित्य ,अनात्म और दुःख की ये तीनों प्रज्ञा भीतर से अपने- आप जागने लगेंगी ,तो बाह्य जगत में भी प्रज्ञा का शासन चलेगा । जो बात अशुभ है ,अशुभ ही लगेगी । जो असुन्दर है ,असुन्दर ही लगेगी ।चित्त से चित्त का दमन कर ,चित्त से चित्त सुधार । चित्त स्वच्छ कर चित्त से ,खोल मुक्ति के द्वार ।।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

बोधि

सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

सोमवार, 6 जनवरी 2014

हर कर्म का प्रारम्भ मन से

अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान 


अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। 

जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा वाणी याअपनी शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। 

इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा । शील का अर्थ है __ सदाचार। शील के अंतर्गत सम्यक वाणी ,सम्यक कर्म और सम्यक आजीविका आती है। हर कर्म का प्रारम्भ मन से होता है ,फिर वाणी पर उतरता है और इसके बाद शरीर को वश में कर लेता है। अत: शरीर का प्रत्येक कर्म शुद्ध एवं पवित्र हो ना चाहिए। 

सम्यक आजीविका से तात्पर्य ईमानदारी से व्यवसाय करना है।प्रज्ञा के दो अंग _ सम्यक संकल्प और सम्यक दृष्टि हैं । संकल्प का अर्थ है _ चिंतन , मनन। हमारे मन में जो संकल्प-विकल्प चलते हैं , वे सम्यक होने चाहिएं। साँस के प्रति साक्षी भाव लाते-लाते , स्मृति का अभ्यास करते -करते ,अनुभव होता है कि दूषित विचारों से कम से कम छुटकारा होने लगा है। दूषित विचार कम होने लगे हैं ।

 दर्शन का सही अर्थ है ,जो बात ,जो वस्तु जैसी है , उसे ही उसके गुण धर्म-स्वभाव में देखें । यही सम्यक दर्शन है । साथ ही प्रज्ञा के तीन सोपान हैं _ श्रुतमयी प्रज्ञा , चिंतन मयी प्रज्ञा और भावनामयी प्रज्ञा श्रुतमयी प्रज्ञा का अर्थ है वह ज्ञान,जो हमने सुनलिया अथवा शास्त्रों में पढ़ लिया । चिंतन मयी प्रज्ञा का महत्त्व अपना मनन करना मनुष्य का स्वभाव है , उसका अपना प्राकृतिक धर्म है । जब तक अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने ज्ञान की वृद्धि नहीं होगी ,सही माने में लाभ नहीं होगा ।

बुधवार, 1 जनवरी 2014

कठिनाइयों से भागो मत

जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। 



जीवन में एक बड़ी भ्रान्ति चलती है। इस का कारण है कि हम सदैव बहिर्मुखी होते हैं।सदा ओरों को ही देखते हैं। बाहर की परिस्थितियों को ही देखते हैं , अत: दोष बाहर ही देखते हैं। बाहर की घटना , स्थिति ,वस्तु, व्यक्ति को ही अपने दुःख का कारण मानते हैं। तथा उसे ही सुधारने में ही अपना श्रम लगा देते हैं।

 साधना इसलिए है कि अंतर्मुखी होकर अपने आप को देखें ; जैसे हैं , वैसे ही देखें । अपने दोष का दर्शन ही साधना है, दुःख का दर्शन करना है। दुःख का दर्शन करने का मतलब निराशा में डूबना नहीं है। अपने दुखों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, अन्य कोई नहीं है। बहिर्मुखी तो बहुत रहे पर अब स्वमुखी और अन्तर्मुखी होना है एवं प्रज्ञा जगानी है।

 आंशिक दर्शन मिथ्या तथा भ्रामक है। अनेकांत दृष्टि सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करती है। यही ज्ञान-चक्षु से अपने भीतर देखने की प्रज्ञा है। भीतर व्याकुलता विकार के जागृत होने पर ही आती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने बतलाया कि जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। क्रोध आया तो क्रोध को देखो,भय आया तो भय को देखो ; इस प्रकार देखना यदि आ गया तो इन विकारों का शमन होने लगेगा। 

धर्म बुद्धि-विलास में नहीं है,अनुभूतियों से प्राप्त धर्म ही वास्तव में धर्म है। अनुभूतियों के स्तर सत्य के दर्शन करते हुवे यह बात स्पष्ट हुई किजब-जब चित्त पर कोई विकार जगता है, तो बहुत स्थूल - स्तर पर साँस अपनी स्वाभाविकता खो देता है। अस्वाभाविक होकर सूक्ष्म स्तर पर सारेशरीर में कहीं-न-कहीं , कोई -न-कोई जीव - रासायनिक प्रतिक्रिया तीव्र रूप से शुरू हो जाती है। 

यह चित्त -धारा और शरीर-धारा अलग-अलग नहीं हैं। अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे का , एक दूसरे पर प्रतिक्षण प्रभाव पड़ता रहता है। इसलिए इन्हें सहज एवं सहजात कहा गया है। दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। हमारे दुःख का कारण बाहर के व्यक्तियों , वस्तुओं एवं घटनाओं में नहीं है। उसे वास्तव में दूर करना है। दुःख का कारण तो इस मैं और मेरे में है। इस मम -भाव और अहं -भाव में है। साथ ही इस गहरी आसक्ति में है। स्वप्न लेना बुरी बात नहीं है , परन्तु स्वप्नों क्र साथ चिपक जाना बहुत बुरा है।अत:बहिर्मुखी नहीं होकर अन्तर्मुखी होना ही सच्ची साधना है। --"सुख आये नाचे नहीं , दुःख आये नहीं रोय। दोनों में समता रहे , तो ही मंगल होय।। " इति =+