मंगलवार, 17 सितंबर 2013

देखने से प्रयोजन है _ अनभव करना

देखना जब दर्शन में बदल जाता है , तब जीवन अपने आप   परिवर्तित 




हम देखते हैं , हमारा देखना केवल इन्द्रिय -प्रत्यक्ष है। किन्तु हम दर्शन नहीं कर पाते। जो केवल इन्द्रियों कि अनुभूति तक सीमित है , वह पशु है। आचार्य यास्क के अनुसार ' पश्यति इति पशव: ' अर्थात जो केवल ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष करता है, जो इन्द्रियों तक सीमित है _ वह पशु है। प्राय: लोग घटनाओं के स्थूल रूप को देखते हैं। अगर बुद्धि और ज्ञान से देखा जाए तो जीवन के गम्भीर तत्त्व एवं तथ्य सामने आते हैं। घटना चाहे कितनी भी कष्ट-प्रद क्यों न हो , वह वस्तुत: अज्ञान के पाश को तोड़ती है श्रुति में कहा गया है _ ' हे! तीक्ष्ण दृष्टि वाली आपत्तियों तुम्हें नमस्कार है। भीषण दुखों तुम्हारा स्वागत है। तुम भोग की बेड़ियाँ काटकर पाश-मुक्त करते हो। तुम्हारे जीवन में आने वाली दुखद से दुखद घटना सत्यानुभूति का अवसर प्रदान करती है। इसके लिए तुम्हें केवल ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं , अपितु बौद्धिक करना आना चाहिए।


एक बार किसी ने प्रसिद्ध शेख सादी से पूछा _ " तुम्हारा गुरु कौन है ? जिससे तुम्हें इतना ज्ञान मिला है। " शेख ने सहज उत्तर दिया कि , " मेरे आस-पास जितने भी मूर्ख हैं , वे मेरे गुरु हैं। ये लोग मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। मैं उनकी मूर्खता को ओर उसके फल को देखता हूँ ओर अपने अनुभव भी सम्पन्न करता हूँ। इन मूर्खों ने ही मुझे ज्ञान दिया है, यही लोग मेरे गुरु हैं।"

देखने से प्रयोजन है _ अनभव करना। अत: घटना को व्यापक सन्दर्भ में आंकना चाहिए। स्वार्थ के दायरे में होकर देखने से वह सत्य प्रत्यक्ष नहीं होगा, जो सूक्ष्म ओर व्यापक है। घटना को व्यापक सन्दर्भ में देखना ही दर्शन है। दर्शन जितना व्यापक होगा उतना स्पष्ट होगा ओर द्रष्टा की अनुभूति उतनी ही तात्विक होगी। आँख और अक्ल अगर अंधे होते तो कुछ बुरा नहीं होता। अधिक से अधिक यही होता कि कुछ देख न पाते। किन्तु यहाँ तो स्थिति यह रही कि आँख कमजोर और बुद्धि भ्रष्ट है। अत: घटनाएँ सदा उलटे ढ़ंग से देखी गयीं। अस्तु भ्रम पूर्ण मान्यता और अन्धविश्वास जीवन का आधार बन गये। वेद में स्थान-स्थान पर प्रार्थना की गयी है कि हम सौ वर्ष तक देखने वाले एवं भद्र को देखने वाले बनें _ ' पश्येम शरद: शतं , भद्रं पश्येम: ' ।

उपनिषदों में एक गम्भीर बात देहने को मिलती है _ जब कोई जिज्ञासु ज्ञान के लिए ऋषियों के पास जाता था , तब ऋषि उसे गो-संवर्धन सेवा के लिए वन में भेज देते थे। ' सौ गाय ले जाओ जब एक हजार हो तब आना। ' एक ऐसे ही उदाहरण में जिज्ञासु गाय को लेकर गया , जब लौट कर आया तो ऋषि बोले _ " तुम्हारा मुख ब्रह्म-तेज से मंडित है। तुम को किसने उपदेश दिया है ? " ऋषि के पूछने पर जिज्ञासु ने बताया _ " बैल और अग्नि ने उसे उपदेश दिया है। " गो -संवर्धन और वन में वास का यही रहस्य था। जिज्ञासु प्रकृति और घटनाओं को नये सिरे से देखें और चिन्तन करें। इसलिए गुरु ऋषि उन्हें गो-सेवा के लिए भेजते थे। आत्मज्ञाता होने के लिए प्रकृति , परिवेश ओर घटनाओं को देखना आना चाहिए_ ' आत्मा वा अरे द्र्ष्टव्यो ' 

अत: आत्म-अनुभूति के लिए देखना सीखो। देखने में ही आत्म-बोध होता है। यह अनुभव आत्मनिष्ठ करने वाला है। आत्मा का गौरव जब प्रकट होता है तो संसार के जड़ पदार्थ प्रभाहीन और नगण्य हो जाते हैं। प्राणहीन होने पर यह शरीर पति का हो या पत्नी का , पर प्रेम की वस्तु नहीं है। आत्मा के निकल जाने पर यह कैसा घृणित और निरर्थक हो जाता है ? तब क्या शरीर से प्रेम नहीं किया जाना चाहिए।

इस सम्बन्ध में उपनिषद में स्पष्ट करते हुवे याज्ञवल्क्य कहते हैं _ ' पति की कामना के लिए पत्नी पति को प्रेम नहीं करती और न पति को कामना के लिए पत्नी प्रिय होती है। अपितु आत्मा के लिए पति पत्नी को और पत्नी पति को प्रेम करती है। ' आत्मानं कामाय सर्वं प्रिय भवति ' अर्थात आत्मा के लिए ही सब चीज प्रिय होती है। देखना जब दर्शन में बदल जाता है , तब जीवन अपने आप परिवर्तित हो जाता है। बहिर्मुखता नष्ट होकर अन्तर्मुखी होने लगती है।%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%

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