बुधवार, 18 सितंबर 2013

धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे

पश्चिम ने सदा तर्काश्रित ज्ञान को प्रधानता दी है , जबकि पूर्व ने अनुभूत ज्ञान को 

मनुष्य अज्ञानवश कल्पित व्यक्तित्व को जीवन का आधार बना लेता है , तब उलझन ही उलझन उसके हाथ लगती है। कल्पना केवल कल्पना में ही सुहावनी लगती है। यथार्थ के साथ उसका मेल नहीं हो सकता। जीवन स्वयं में एक ठोस तत्त्व है, अत: सत्य के द्वारा ही जीया जा सकता है। और जो कुछ है उसे भूल गये हैं या भूलना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में जीवन कैसे चल सकता है। अत: भारत एक जीवन-दर्शन देता है, जो इस बौद्धिक व्यामोह से मुक्त करेगा। सत्य की उपलब्धि करा देगा और आनंद का संचार करेगा। इस दिव्यता के कारण देवों ने स्वर्ग में रहते हुवे भी भारत की स्तुति की है, उन्होंने भारत में जन्म लेना सौभाग्य माना है _ ' गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे '



प्राचीन देवताओं ने ही नहीं अपितु आधुनिक देवताओं भारत की वन्दना की है। जैको लाइट ने ' बाइबिल इन इण्डिया ' में लिखा है कि " भारत मानवता का पलना है। इसके ऊंचे हिमालय से ज्ञान-विज्ञानं की सरिताएँ निकली हैं। सृष्टि की उषा में इसका आंगन ज्ञान से आलोकित हुवा था। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि भारत का अतीत मेरी मातृभूमि के भविष्य में बदल जाए। विलडूरण्ट ने ' सभ्यताओं के इतिहास ' में पश्चिम देशों को बताया है कि _ " जब तुम भारत के सान्निध्य में आओगे तो तुम्हें अनश्वर शांति का दिव्य मार्ग मिलेगा। " प्रसिद्ध दार्शनिक शापेन हावर ने कहा था _ " जब यूरोप के लोग भरतीय दर्शन के सम्पर्क में आयेंगे तो उनके विचार और आस्थाएँ बदलेंगी। वे बदले हुवे लोग यूरोप के विचारों और विश्वास को प्रभावित करेंगे। आगे चलकर यूरोप में ही ईसाई-धर्म को संकट उत्पन्न हो जाएगा। " प्रतिबद्ध मैक्समूलर को भी यह सत्य स्वीकारना पड़ा _ " अगर कोई देश है जो मानवता के लिए पूर्ण और आदर्श है, तो एशिया की ओर ऊँगली उठाऊंगा जहाँ भारत है। " नेहरु ने तथा अन्य विद्वानों ने भारत की खोज की , पर कोई भी उस भारत को नहीं पा सका , जिसकी स्तुति देवताओं ने की थी।

भारत कोई भौतिक सत्ता नहीं है, सत्य तो यह है कि भारत कोई देश नहीं , अपितु भारत सतत ज्ञान की गति है। भा+रत का अर्थ है, भा=प्रकाश एवं रत=गति है। ज्ञान के प्रकाश में एवं चैतन्य के आलोक में जो गति कर रहा है , अथवा जिसमें सतत ज्ञान की गति है ; वही भारत है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था _ " मैं भौगोलिक मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता हूँ। मेरा भरत जड़ भारत नहीं है , अपितु वह ज्ञानलोक है , जिसका आविर्भाव ऋषियों की आत्मा में हुवा है। " श्री अरविन्द ने कहा _ " भारत वस्तुत: विश्व पुरुष की कुंडलिनी शक्ति है। जब भारत जागृत होगा तो विश्व पुरुष का दिवता में रूपांतरण हो जाएगा। अगर भारत सो गया , न जागा तो विश्व-मानवता ही समाप्त हो जाएगी। " यह भारत नेहरु और इतिहासकारों का नहीं , अपितु वह भारत दयानन्द , टैगोर और अरविन्द का है। यह भारत जीवन का सत्य-दर्शन है। इस भारत का जन्म नहीं हुवा है , क्योंकि जो जन्म लेता है , वह अवश्य मरता है , किन्तु यह भारत नित्य और शाश्वत है। दिक्-काल की सीमा से मुक्त यह अलौकिक है। इसकी नागरिकता सीमित नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को इसमें रहने और गति करने का स्वाभाविक अधिकार है।

एक अर्थ में भारत सत्य में जीवन-दर्शन है _ जिससे अस्तित्व को समझा जाता है और उसके साथ अपने सम्बन्धों को जाना जाता है। दर्शन का अर्थ मात्र ' फिलोसफी ' नहीं है , फिलोसफी लैटिन भाषा का शब्द है , जिसका अर्थ है _ बौद्धिकता से प्रेम। दर्शन का अर्थ है _ देखना , प्रत्यक्ष करना एवं अनुभव करना। दर्शन से अभिप्राय है _ सत्य की आत्मानुभूति। दर्शन बौद्धिक चिन्तन नहीं है , तर्क-युक्तियों से खोजा गया तथ्य नहीं है। यही पूर्व और पश्चिम में मौलिक अंतर है। पश्चिम ने सदा तर्काश्रित ज्ञान को प्रधानता दी है , जबकि पूर्व ने अनुभूत ज्ञान को। सीधे-सरल-शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि पूर्व तार्किक परिभाषा या कानून की भाषा में आने वाले सत्य को महत्त्व नहीं प्रदान करता , अपितु वह सत्य को स्वीकार करता है _ जो जीवन -अनुभूत है , जीवन में पूर्ण रूप से उतरा हुवा है। अत: इस राष्ट्र में पंडितों से अधिक श्रेष्ठ उनको माना गया जो यद्यपि विद्वान् नहीं थे , किन्तु वे सत्य के द्रष्टा थे। सत्य के प्रयोक्ता थे। अस्तु दर्शन का अर्थ है भोग हुवा और अनुभव में आया हुवा सत्य। भारत- दर्शन का अभिप्राय है ज्ञान की अनुभूत यथार्थता।&&&&&&


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