बुधवार, 18 सितंबर 2013

जलता हुवा दीप ही बुझे हुवे दीपकों को जला सकता

जीवन की अवधारणा 



जीवन की अवधारणा का जैसा अद्भुत और सर्वान्गीण निखरा रूप गीता में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। अनासक्ति कर्म की महत्ता एवं व्यावहारिकता कर्त्तव्य की भावना में है। कर्त्तव्य- धर्म है , इसी भावना से कर्म करना है। अत:समाज में वर्ण -धर्म की स्थापना की गयी। गुण-कर्म-स्वभाव को बनाने वाली प्रकृति पर वर्ण आधारित हैं, परिणामत: मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुकूल कर्म करे। प्रकृति में गुण-वैषम्य अनेक प्रकार के कर्मों को जन्म देते हैं। कुछ कर्म उच्चतर हो सकते हैं तो कुछ निम्नतर। अतऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था निश्चित करके कर्मों के वैषम्य को संतुलित किया और कर्मफल को विश्व-समाज को अर्पित करने का विधान बनाया।

कर्मफल को सर्वजन हिताय ' अर्पण करना यज्ञ कहलाता है। यज्ञ वैदिक-संस्कृति का केंद्र है , जिसके चारों ओर आर्य-सभ्यता के ताने-बाने बुने गये। यज्ञ शब्द का अर्थ संगतिकरण , देव-पूजा और दान है। सारे जीवन के यज्ञीकरण का उपदेश श्रुति करती है। यज्ञीकरण का अर्थ है कर्मफल को सब के लिए अर्पित कर देना। जब कर्त्ता कर्म और कर्त्तव्य समझ कर करता है और फल के लिए अर्पित करता है तो जगत के बाह्य प्रलोभन उसे बाँध नहीं पाते। वह अपने सामाजिक , पारिवारिक और आध्यात्मिक स्वरूप में स्थित रहता है। स्वरूप की उपलब्धि एवं आत्मस्थिति  तो बहुत पढ़ने से होती है और  बहुत सुनने से _ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो।  मेधया  बहुना श्रुतेन॥ "

इसका सम्बन्ध जीवन की अवधारणा से है। जीवन की पद्धति और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से है। आत्मोपलब्धि क्रियायोग है। क्रियायोग का अर्थ हैप्रत्येक कर्म और चेष्टा का साधना में बदल जाना साधना के प्रति आग्रह और निष्ठा तर्क से पैदा नहीं होती। इसके लिए अनुभव से पैदा होने वाले विश्वास की आवश्यकता है। अनुभव-जन्य विश्वास ही श्रद्धा है। जब तक श्रद्धा की प्राप्ति नहीं होगी अध्यात्म में गति असम्भव है। वेद में श्रद्धा को देवी के रूप में सम्बोधित किया गया है। श्रद्धा ऐश्वर्य का उच्चतम बिंदु है , अतश्रद्धा से अग्नि को प्रज्वलित करना चाहिएऐसा ऋचा में कहा गया है _श्रद्धया अग्निसमिध्यते श्रद्धया हूयते हवि: " । श्रद्धा का अर्थ है गति करना। गतशील अर्थात चलने वाला व्यक्ति ही अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है। गीता में कहा गया है _ ' श्रद्धावान लभते ज्ञानम ' , अत: आत्म-ज्ञान के लिए श्रद्धा अर्थात गति परम अनिवार्यहै। अनभव के प्रकाश में ही गति सम्भव है। यह यात्रा अन्धविश्वास के अंधकार में नहीं की जा सकती। इसअनुभव के लिए अनभव-सिद्ध मार्ग-दर्शक मिलना आवश्यक है। जलता हुवा दीप ही बुझे हुवे दीपकों को जला सकता है। अग्नि से ही अग्नि जगाई जाती है _ ' अग्निना अग्निसमिध्यते ' ।


आत्म-ज्ञान के वक्ता और व्याख्याता बहुत हैं , किन्तु गुरु-चरणों में बैठकर विधिवत आत्म-प्रत्यक्ष हुवे वक्तादुर्लभ हैं। श्रोता तो बहुत मिल सकते हैं किन्तु सुन कर समझने वाले भी उतने ही दुर्लभ हैं। कहने कातात्पर्य यह है कि आत्म साक्षात् के लिए गति अर्थात अभ्यास ही एकमात्र साधन है और अभ्यास से पहले उसअनुभव की आवश्यकता है जो इस मार्ग के लिए आवश्यक निष्ठा प्रदान कर सके। यह अनुभव पाने के लिएदेखना आना चाहिए। घटनाएँ जो हमारे जीवन में होती हैं या अन्यों के जीवन में, अपने साथ संदेश का संदेशलाती हैं। सामान्य बुद्धि घटना के स्थूल रूप को देखती है , किन्तु उसमें स्थित परम तत्त्व को नहीं देख पाती है। अनुभवी सिद्ध महापुरुष छोटी-छोटी घटनाओं से ही साधक को वह बोध करा देते हैं, जो हजार ग्रन्थभी नहीं करा सकते।*************

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