गुरुवार, 19 सितंबर 2013

मन से ही मन की सेवा

जीवन के उत्थान एवं पतन का केंद्र मन ही 

सेवा का सबसे बड़ा अधिकारी हमारा अपना मन ही है। मन से ही मन की सेवा की जा सकती है। इससे अपना स्वभाव ऐसा मधुर होगा कि प्रत्येक व्यक्ति सम्पर्क में आने का प्रयास करेगा। कार्य ऐसे होंगे कि जिनसे अपना मान और महत्त्व सर्वसाधारण की दृष्टि में दिन-रात बढ़ता ही चला जाएगा। बिना विवेक की सेवा का लाभ कुपात्र अथवा ऊसर में बीज बोने की तरह शक्ति का अपव्यय होगा। इस दृष्टि से हमारा अपना मन ही सेवा का सबसे बड़ा अधिकारी हो सकता है। जीवात्मा वह छोटा भी है , सम्बद्ध भी है। वह मन के समीप भी है और विश्वासपात्र भी है फिर उसी को क्यों न अपना सेवा-भाजन बनाएं। जीवन के उत्थान एवं पतन का केंद्र मन ही है। यह मन जिधर चलता है, जिधर इच्छा और आकांक्षा करता है , उधर ही उसकी एक दुनिया बनकर खड़ी हो जाती है। उसमें ऐसा अद्भुत आकर्षण एवं चुम्बकत्व है कि जिससे खींचती हुयी संसार की वैसी ही वस्तुएं , घटनाएँ , साधन-सामग्री , मानवी और दैवी सहायता एकत्रित हो जाती है।

कल्पवृक्ष की उपमा मन को ही दी गयी है। उसमें ईश्वर ने वह शक्ति विशाल परिमाण में भर दी है कि जैसा मनोरथ करे वैसे ही साधन जुट जाएँ और उसी पथ पर प्रगति होने लगे। मन को ही कामधेनु कहा गया है। वही कामना भी करता है और वही उनकी पूर्ति के साधन भी जुटा लेता है। हाड़-मांस की इस काया में छिपा हुवा एक प्रचंड बैताल के रूप में यह मन ही बैठा रहता है। यह पैशाचिक कुकृत्य भी कर सकता है, स्वर्ग जैसे नन्दन-वन की रचना भी कर सकता है। साथ ही कुम्भकरण की तरह पड़ा-पड़ा जीवन के अमूल्य क्षणों को नष्ट भी कर सकता है। देवताओं की पूजा फल दे न दे यह संदिग्ध है, पर मन का देवता प्रत्यक्ष फल प्रदान करता है। इसकी आराधना कभी निष्फल नहीं जाती। यह तुरंत ही फल प्रदान करता है। पुराणों और इतिहासों के पन्ने-पन्ने पर ऐसी गाथाएँ हमें पढ़ने को मिल सकती हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति की महानता उसे उपलब्द्ध साधनों या परिस्थितियों में नहीं अपितु उसके मनोबल में सन्निहित है। जब जिसका मनोबल जितनी मात्र में विकसित हुवा है तब उसमें अपने क्षेत्र में उतनी ही अद्भुत सफलताएँ प्राप्त करके अपने उन साथियों को आश्चर्य में डाला है।

मन को कल्पवृक्ष कहा गया है और इस पर चार फल _ धर्म, अर्थ ,काम और मोक्ष लगते हैं , ऐसा बताया गया है। दूसरों की सेवा करने से केवल धर्म ही प्राप्त हो सकता है , पर अपनी एवं अपने मन की सेवा करने से जब वह सुधर जाता है , सन्मार्ग पर चलने लगता है तो धर्म लाभ के अनेकों अवसर तो प्राप्त होते ही हैं , साथ ही जीवन की प्रत्येक दिशा में उन्नति एवं सफलता का द्वार खुल जाता है। जिसका मन बेकाबू है उसका सांसारिक जीवन असफल एवं दुखमय ही रहता है। चटोरी जीभ वाला व्यक्ति , जिसका मन हर घड़ी स्वादिष्ट पदार्थों को अधिक मात्रा में खाने के लिए ललचाता रहता है , वह अपनी बुरी आदत के कारण ही अपनी पाचन-शक्ति को खो बैठता है।

इंजीनियर , डाक्टर , कलाकार , चित्रकार, कवि, साहित्यकार आदि जो कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं , उसके पीछे उनका मनोयोग ही कार्य करता है। राजनेता , दार्शनिक , लोकनायक, सेनापति आदि जिम्मेदारियों का भार वहन करने वाले वे ही लोग होते हैं , जिनमें दूरदर्शिता होती है , समस्या के हर पहलू को बारीकी से सोच-समझ सकते हैं और यह सब मन के संयमित होने पर ही सम्भव है।

योगसाधना तो महर्षि पतंजलि के शब्दों में ' चित्त -वृत्तियों का निरोध ' मात्र ही है। योगसाधना का सारा कर्म-काण्ड और विधि-विधान चित्त - निरोध के लिए ही है। ध्यान की तन्मयता से ही भगवान के दर्शन होते हैं। विषय-विकारों की ओर से , माया-मोह की ओर से चित्त को हटा लेना ही मोक्ष है। मूर्ति-पूजा , कीर्तन, भजन-पूजन का उद्देश्य भी मन की एकाग्रता ही है। सारी साधनाएँ मन को साधने के लिए ही हैं। भगवान के लिए क्या साधना करनी ? वह तो पहले से ही प्राप्त है , रोम-रोम में रमा है, अनंत वात्सल्य और असीम करुणा की वर्षा करता हुवा अपना वरदहस्त पहले से ही हमारे सिर पर रखे हुवे है , उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई है ? कठिनाई तो मन के कुसंस्कारों की है जो आत्मा और परमात्मा के बीच में चट्टान बनकर अड़ा हुवा है। यदि वह अपनी बाधक न बने तो बस अध्यात्म की सारी सिद्धि पूर्णत: सहज हो जाए। मोक्ष और ब्रह्म-निर्वाण स्वत: प्राप्त हो जाएगा। मन का नियंत्रण होते ही सारी सिद्धियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाएंगी।


यदि मन को साधा नहीं गया तो वह शैतान की तरह हमारे सिर पर सवार होकर विविध प्रकार के कुकृत्य कराता है और विविध -विधि नाच कराता है । यदि हम इसे वश में नहीं करते तो इसके वश में होना पड़ता है। असंयमी और उच्छ्र्न्खल मन किसी प्रबल शत्रु से, बैताल ब्रह्म-राक्षस से कम नहीं है। पर यदि उसे साध लिया जाए तो वही परम मित्र बन जाता है , देवता की तरह सहायक सिद्ध होता है। अत: सेवा का सबसे बड़ा पात्र एवं अधिकारी हमारा अपना मन ही है। मन की मन से सेवा करके हम समस्त प्राणियों की तथा सारे विश्व-ब्रह्मांड की सेवा कर सकते हैं। इसी में ही स्वहित के साथ - साथ लोकहित भी निहित है।&&&&&&&&&



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