शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

मैं ' कहिये या ' तू ' कहिये

 जीवन का महान उद्देश्य है कि हम ईश्वर का साक्षात्कार करें 


यह निर्विवाद है कि जो पैदा हुवा है, उसे मरना पड़ेगा । हमें भी मृत्यु की गोद में जाना है । उस महान यात्रा की तैयारी यदि अभी से की जाए , तो उस समय जो भय और दुःख होता है , वह न होगा । मृत्यु के अभी बहुत दिन हैं , या तब की बात तब देखी जाएगी । ऐसा सोचकर उस महत्त्वपूर्ण समस्या को आगे के लिए टालते जाना अंत में बड़ा दुखदायक होता है । मनुष्य जीवन एक महान उद्देश्य के लिए मिलता है , लाखों -करोड़ों योनियाँ पार करके बड़े समय और श्रम के बाद हमने इसे पाया है । ऐसे अमूल्य रत्न का सदुपयोग न करके यों ही व्यर्थ गवां देना , भला इससे बढ़कर और क्या मूर्खता हो सकती है । जीवन का महान उद्देश्य है कि हम ईश्वर का साक्षात्कार करें , परमपद को पायें। किन्तु कितने हैं , जो इस ओर ध्यान देते हैं। किसी को तृष्णा से छुटकारा नहीं , कोई इन्द्रिय-भोगों में मस्त है , कोई अहंकार में ऐंठा जा रहा है , तो कोई भ्रम-जाल में मस्त है। 



विडम्बनाओं को उलझाते - सुलझाते यह स्वर्ण अवसर बड़ी तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है। जो काम कल करना है , उसका प्रबंधन आज से करना होगा , हमारी मृत्यु का समय निर्धारित नहीं है या हमें उसका पता नहीं है। इसलिए उसकी तैयारी आज से , इसी क्षण से आरम्भ करनी चाहिए ।

अनासक्ति कर्मयोग के तत्त्व-ज्ञान को समझकर हृदयंगम कर लेना मृत्यु की सबसे उत्तम तैयारी है। माया के बंधन इसलिए बाँध लेते हैं कि हम उनमें लिप्त हो जाते हैं और तन्मय हो जाते हैं। मन में यह धारणा दृढ़ करके प्रति-क्षण प्रयत्न करते रहें कि " मैं अविनाशी , निर्विकार, सच्चिदानन्द आत्मा हूँ। संसार एक क्रीड़ा-क्षेत्र है , मेरी सम्पत्ति नहीं। " यह विश्वास जितना-जितना सुदृढ़ होता चला जाएगा , मनुष्य के ज्ञान-नेत्र उतने ही खुलते चले जायेंगे। स्त्री, पुत्र, कुटुंब, परिवार का बड़े प्रेमपूर्वक पालन करें , उन्हें अपनी सम्पत्ति नहीं अपितु पूजा का आधार बनाइए सम्पत्ति उपार्जित कीजिए , पर इसका उद्देश्य सत होना चाहिए। सब काम उसी प्रकार कीजिए जैसे संसारी लोग लरते हैं , पर अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए। गिरह बाँध लीजिए , बार-बार मन में विचार कीजिए कि संसार की वस्तुएं आपकी वस्तुएं नहीं हैं। दूसरी आत्माएं हमारी गुलाम नहीं हैं। या तो सबकुछ आपका है या कुछ भी आपका नहीं है। या तो ' मैं ' कहिये या ' तू ' कहिये। ' मेरा ' और ' तेरा ' दोनों एक साथ नहीं रह सकते। बस , माया की सारी गाँठ इतनी ही है। योग का सारा ज्ञान इसी गाँठ को सुलझाने के लिए ही है।

सांसारिक जीवों में प्रभु की मूर्ति विराजमान देखी और उसकी पूजा के लिए अपना हृदय बिछा दीजिए। स्त्री को हम दासी नहीं देवी मानें , वैसी , जैसी मन्दिरों में विराजमान रहती है पुत्र को आप वैसे ही महान समझिये जैसा गणेशजी को मानते हैं। सांसारिक व्यवहार के अनुसार उनके प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पालन कीजिए। स्त्री की आवश्यकताएँ पूरी कीजिए और पुत्र की शिक्षा-दीक्षा में दत्तचित्त रहिये, पर खबरदार ! होशियार ! सावधान ! उन्हें अपनी जायदाद नहीं मानना नहीं तो बुरी तरह मारे जाओगे, बड़ा भारी धोखा खाओगे और ऐसी मुसीबत में फंस जाओगे कि मामला सुलझाने से भी नहीं सुलझेगा। संसार के समस्त दुखों का बाप है _' मोह '। जब हम कहते हैं कि मेरी जायदाद इतनी है तो प्रकृति गाल पर तमाचा मारती है और कहती है कि मूर्ख ! तू तीन दिन में आकर इस पर अधिकार जमता है , यह प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। सोना-चांदी तेरा नहीं है, यह प्रकृति का है। जिसे तू स्त्री समझता है , वह असंख्य बार तेरी माँ हो चुकी होगी। आत्माएं स्वतंत्र हैं और कोई किसी का गुलाम नहीं। अज्ञानी मनुष्य कहता है _ ' यह तो सब मेरा है , इसे तो अपने पास रखूँगा। ' तत्त्व-ज्ञान की आत्मा चिल्लाती है _ ' अज्ञानी पुरुषों ! विश्व का कण-कण बड़ी द्रुतगति से नाच रहा है। कोई वस्तु स्थिर नहीं है , पानी बह रहा है , हवा चल रही है, पृथ्वी दौड़ रही है, तेरे शरीर में से पुराने कण भाग रहें हैं और नये कण आ रहे हैं , तू एक तिनके पर भी अधिकार नहीं कर सकता । इस प्रकार बहती हुयी नदी का आनन्द देखना है तो देख रोकने खड़ा होगा तो लात मारकर एक ओर हटा दिया जायेगा। '

दुःख , विपत्ति , व्यथा और पीड़ा का कारण अज्ञान है अंधकार से प्रकाश की ओर चलना चाहिए। मृत्यु से अमृत की ओर बढ़े। ईश्वर प्रेमरूप है , प्रेम की उपासना करो स्वर्ग पैसे से नहीं खरीदा नहीं जा सकता , खुशामद से मुक्ति नहीं मिल सकती , धार्मिक कर्मकांड आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते। दूसरों की ओर मत देखिये कि हमें कोई पार कर देगा , क्योंकि वास्तव में किसी भी दूसरे में ऐसी शक्ति नहीं है। ' उद्धरेत आत्मना आत्मानम ' अर्थात आत्मा का आत्मा से ही उद्धार कीजिये, अपना कल्याण अपने आप ही कीजिये। अपने हृदय को विशाल , उदार , उच्च और महान बना दीजिये। अहं भाव को प्रसार कर सबको आत्म-दृष्टि से देखिये , अपनी अंतरात्मा को प्रेम में डुबो दीजिये और उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेद-भाव के सिंचित कीजिये। अपना कर्त्तव्य धर्मनिष्ठा पूर्वक पालन कीजिए व्यवहार कर्मों में किंचित मात्र भी शिथिलता मत आनी चाहिए ।

इसप्रकार आत्मज्ञान द्वारा हम परलोक को परम आनन्दमय बना सकते हैं। मृत्यु फिर दुःख न देगी , अपितु खेल प्रतीत होगी। म्रत्यु की तैयारी के लिए आज से ही आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिन्तन आरम्भ कर देना चाहिए। अपनी महानता का ज्ञान होते ही माया-मोह के सारे बंधन टूटकर गिर जायेंगे ओए आनन्द दृष्टि प्राप्त हो जाएगी। अपने तुच्छ और स्वार्थपूर्ण विचार को त्याग कर अपनी महान आत्मा को 'सो अहं ' के माध्यम से पहचानने का प्रयास करना चाहिए।%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%

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